फेसबुक पर आरोप है कि उसने दुनिया भर में लोकतंत्र को कमजोर करने का काम किया हैं, सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ा है और ऐसे ऐप बनाएं हैं, जिनसे बच्चों को सोशल मीडिया की लत लगी। कंपनी के व्हीसलब्लोअर्स ने इससे जुड़े कई खुलासे किए हैं, जिसे मीडिया संस्थानों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने प्रकाशित और प्रसारित किया है। फेसबुक पेपर्स नाम से हुए इन खुलासों में कई आंतरिक दस्तावेज भी शामिल हैं, जिनसे यह पता चलता है कि फेसबुक के प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग की जानकारी होने के बावजूद कंपनी ने इसे रोकने के लिए उत्तरी अमेरिका के बाहर भारत सहित दूसरे देशों में बहुत मामूली कार्रवाई की या कोई कार्रवाई नहीं की।
पहली नजर में फेसबुक की दो गलतियां दिखती हैं। पहली यह कि उसने ऐसे ऐप बनाए, ऐसा अल्गोरिदम लिखा या ऐसी तकनीक बनाई, जिसका दुरुपयोग हुआ और दूसरी गलती यह कि दुरुपयोग की जानकारी होने और उसे रोकने की क्षमता के बावजूद कंपनी ने इसे रोका नहीं। लेकिन वस्तुनिष्ठ तरीके से देखें तो इसमें सिर्फ एक ही गलती दिखेगी कि उसने अपनी तकनीक के दुरुपयोग की जानकारी होने के बावजूद उसे रोका नहीं।
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यह बड़ी गलती है। क्योंकि कंपनी ने सिर्फ कमाई को अपना मकसद बनाया, अपनी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं समझी और अपने प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग को रोकने पर संसाधन खर्च नहीं किए। यह तथ्य है कि फेसबुक ने अपने प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर गलत जानकारी फैलाने की घटनाओं को रोकने के लिए जो बजट रखा है, उसका 87 फीसदी वह उत्तरी अमेरिका में यानी अपने प्राइमरी मार्केट में खर्च करती है। करीब 34 करोड़ यूजर्स के साथ भारत उसका सबसे बड़ा मार्केट है लेकिन भारत सहित बाकी दुनिया के लिए उसने 10 फीसदी से कुछ ज्यादा का बजट रखा है। जाहिर है कंपनी ने दूसरी, तीसरी दुनिया के देशों में अपने बाजार को इस लायक नहीं समझा कि वहां दुरुपयोग रोकने पर ज्यादा खर्च किया जाए।
अमेरिका में भी उसने अपना अधिकतम बजट इसलिए खर्च किया है क्योंकि वहां सरकार और संसद दोनों ने जिम्मेदारी दिखाई और कंपनी की नकेल कसी। अमेरिका में 2016 से ही फेसबुक निगरानी में है और उसकी जांच चल रही है। भारत में ऐसा नहीं है। दुर्भाग्य से भारत में संसद कोई स्वतंत्र चीज नहीं है, वह एक तरह से सरकार का एक्सटेंशन भर है। इसलिए यह सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह फेसबुक या दूसरे किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग की निगरानी करे और शिकायत मिलने पर कार्रवाई करे। लेकिन भारत सरकार ने या दूसरी, तीसरी दुनिया की किसी सरकार ने फेसबुक के दुरुपयोग को रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। इसका बड़ा कारण यह है कि इस प्लेटफॉर्म के दुरुपयोग का लाभ सरकारों या सत्तारूढ़ दलों को हुआ है। अगर भारत में फेसबुक नफरत फैलाने का माध्यम बना है और उससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है तो उसकी लाभार्थी भारतीय जनता पार्टी है। हाल के एक शोध से यह भी पता चला है कि सोशल मीडिया पर वामपंथी कंटेंट के मुकाबले राष्ट्रवादी कंटेंट ज्यादा तेजी से वायरल होता है। इसका फायदा भी किसको होता है, यह कहने की जरूरत नहीं है।
इसलिए कह सकते हैं कि इस पूरे विवाद में मैसेंजर को शूट करने का काम चल रहा है। सारी जवाबदेही फेसबुक पर डाली जा रही है, जबकि देशों की सरकारें, सत्तारूढ़ दल, निगरानी करने वाली एजेंसियां, आम नागरिक सब बराबर की दोषी हैं। फेसबुक को इस बात के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है कि मशीन लर्निंग और आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस में काम करने वाले उसके इंजीनियरों ने ऐसा अल्गोरिद्म लिखा, जो मानवीय भावनाओं तक को समझने लगा है और इस्तेमाल करने वालों को उनकी पसंद-नापंसद के हिसाब से कंटेंट रिकमेंड करता है। आप कोई एक प्रोडक्ट सर्च करें या लाइक कर दें तो आपको उससे मिलते-जुलते प्रोडक्ट की सैकड़ों रिकमेंडेशन मिलने लगेगी। यह काम मार्क जकरबर्ग नहीं करते हैं, बल्कि मशीन करती है, अल्गोरिदम करता है। इसी तरह अगर नफरत फैलाने वाला कंटेंट प्रसारित होता है या लोकतंत्र को कमजोर करने वाला कंटेंट लोकप्रिय होता है तो यह काम भी मशीन ही करती है, बॉट्स करते हैं। इसके लिए तकनीक को दोष नहीं दिया जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि इस तरह का कंटेंट तैयार करने वालों की पहचान हो और उन पर कार्रवाई हो। इस कार्रवाई में जितनी भूमिका फेसबुक की है उतनी ही सरकारों और कानून का अनुपालन करने वाली एजेंसियों की भी हैं।
इस मामले में भारत की पार्टियां, पार्टियों के अनुषंगी संगठन, आईटी सेल आदि अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं। सांप्रदायिक विभाजन बढ़ाने वाला कंटेंट पार्टियां तैयार कर रही हैं या पार्टियों की मदद से कोई तीसरा पक्ष तैयार कर रहा है। भाषायी आधार पर विभाजन या नफरत फैलाने वाला कंटेंट भी पार्टियों के लिए ही तैयार किए जा रहे हैं। कुछ दोष इस किस्म के कंटेंट पसंद करने वालों का भी है। यूजर्स को मासूम मान कर उन्हें क्लीनचिट नहीं दी जा सकती है। फेसबुक के व्हीसलब्लोअर्स के खुलासे से ही पता चला है कि कंपनी ने 2018 में न्यूज फीड के अल्गोरिद्म में एक बदलाव किया, जिससे उसने पोस्ट को पर्सनालाइज किया। इसका मकसद यह था कि लोगों को पब्लिक पोस्ट कम दिखे और वहीं पोस्ट ज्यादा दिखे, जिससे वह इंटरैक्ट करता है। फेसबुक की व्हीसलब्लोअर फ्रांसीस होगन ने एक इंटरव्यू में बताया कि इस बदलाव से यह पता चला कि लोग नफरत फैलाने वाले और विभाजनकारी पोस्ट के साथ ज्यादा एंगेज हो रहे हैं, ज्यादा इंटरैक्ट कर रहे हैं। सोचें, यह तकनीक की गलती है या समाज के प्रदूषित होते जाने का संकेत है? इस खुलासे से ज्यादा बड़ी चिंता यह पैदा होती है कि समाज लगातार सांप्रदायिक, भाषायी, जातीय आधार पर विभाजित किया जा रहा है और नफरत के बीज बोए जा रहे हैं। इसे रोकने के लिए समाज और राजनीति में बड़े सुधार की जरूरत है।
ध्यान रहे फेसबुक के ऊपर यह आरोप नहीं है कि वह नफरत फैलाने वाला कंटेंट तैयार कर उसे प्रसारित कर रहा है। उसका दोष इतना है कि उसने रिकमेंडेशन का ऐसा सिस्टम तैयार किया है, जिसका दुरुपयोग किया जा रहा है और उस दुरुपयोग की जानकारी होने के बावजूद वह उसे रोकने का प्रयास नहीं कर रहा है या चुनिंदा प्रयास कर रहा है। जैसे फेसबुक की एक और डाटा साइंटिस्ट सोफी झांग ने भारत के बारे में बताया कि दिल्ली के चुनाव के समय कांग्रेस के एक नेता से जुड़े फर्जी एकाउंट को तो बंद कर दिया गया लेकिन जब ऐसे ही दूसरे एकाउंट की जांच की और पता चला कि वह भाजपा नेता से सीधे जुड़ा है तो उस पर कार्रवाई नहीं की। पिछले साल अगस्त में वॉल स्ट्रीट जर्नल ने भी ऐसा खुलासा किया था, जिसके बाद कंपनी की वरिष्ठ अधिकारी आंखी दास को हटाया गया था। सो, फेसबुक की कमियां और उसका दोष जाहिर है। उसने अपनी सुविधा के लिए सत्तारूढ़ दल को मनमाने तरीके से अपने प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने दिया। लेकिन क्या इससे सत्तारूढ़ दल का या एक पतनशील समाज के नाते हमारा दोष छिप जाता है या कम हो जाता है?
दोष अकेले फेसबुक का नहीं
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