बेबाक विचार

उठाने होंगे अभिव्यक्ति के खतरे!

Share
उठाने होंगे अभिव्यक्ति के खतरे!
अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर पिछली एक सदी में जितनी कविताएं या गद्य लिखा गया है, उनकी सिर्फ एक-एक, दो-दो पंक्तियां लिख दी जाएं तो अपनी बात पूरी हो जाएगी। असल में पिछली एक सदी में आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई हो या आजादी के बाद भूख-गरीबी-अशिक्षा-असमानता-बेरोजगारी के खिलाफ लड़ाई हो या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ दूसरी आजादी की लड़ाई हो, हर लड़ाई में एक बात कॉमन थी- जो सत्ता में बैठा था और जिसके खिलाफ लड़ाई हो रही थी उसे अभिव्यक्ति की आजादी स्वीकार्य नहीं थी। अंग्रेजों ने इस आजादी को दबाने के लिए खूब दमन चक्र चलाया। कहते हैं कि आजादी के बाद ‘प्यासा’ फिल्म में जब साहिर ने यह लिखा कि ‘जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ, ये कूचे ये गलियां ये मंजर दिखाओ’ तो आजाद भारत के इतिहास में सबसे उदार और लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री रहे जवाहरलाल नेहरू को भी बुरा लग गया था। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का दमन चक्र ऐसा था कि दुष्यंत कुमार को लिखना पड़ा, ‘मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है’। दुष्यंत कुमार ने क्या यह कल्पना की थी कि एक दिन सचमुच ऐसा आ जाएगा, जब लोग आकाश में घना कुहरा होने की बात कहेंगे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा? कवि भविष्यद्रष्टा भी होता है। वह नजूमी की तरह भविष्य देख लेता है। आज कोई कवि क्या यह देख पा रहा है कि भविष्य में हमारे बच्चे उगते हुई सूरज की तस्वीर बनाएंगे और उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा? उगते हुए सूरज की तस्वीर शासक को बगावत का ऐलान लग सकती है! जैसे फैज ने लिखा था, ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है’। यह सत्ता का मिजाज होता है कि उसे वह बात भी नागवार गुजर सकती है, जिसका फसाने में जिक्र भी न हो। पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी भी अभिव्यक्ति की आजादी के इसी गंभीर खतरे का स्पष्ट संकेत है। जिन लोगों को उमर खालिद की गिरफ्तारी में यह संकेत नहीं दिखा था या जो मनदीप पुनिया, नवदीप कौर, देवांगना कलीता या नताशा नरवाल की गिरफ्तारी में इस खतरे को नहीं देख पाए थे या जिन्होंने वरवर राव, आनंद तेलतुम्बडे, फादर स्टेन स्वामी, गौतम नवलखा, प्रोफेसर जीएन साईबाबा की गिरफ्तारी को आई-गई घटना माना या जिन्होंने गौरी लंकेश, एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पनसारे की हत्या को सामान्य आपराधिक घटना माना उन्हें भी दिशा रवि की गिरफ्तारी से चिंतित होना चाहिए। उन्हें जर्मन विद्वान मार्टिन नीमोलर की यह कालजयी कविता पढ़नी चाहिए- पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था फिर वे यहूदियों के लिए आए और मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं यहूदी नहीं था फिर वे मेरे लिए आए और तब तक कोई नहीं बचा था जो मेरे लिए बोलता यहां यह बताना जरूरी है कि पिछली लगभग एक सदी की यह सबसे जरूरी राजनीतिक कविता लिखने वाले फ्रेडरिक गुस्ताव एमिल मार्टिन नीमोलर 1938 से 1945 तक नाजी तानाशाह हिटलर की कैद में रहे थे। उनका कसूर यह था कि उन्होंने चर्च पर राज्य के नियंत्रण का विरोध किया था। यहां तो झूठ के सहारे हर नागरिक के जीवन पर नियंत्रण का प्रयास किया जा रहा है और इसका विरोध करने वालों को पकड़ कर जेल में डाल दिया जा रहा है। झूठे नैरेटिव के दम पर उनको राष्ट्र विरोधी यानी एंटी नेशनल कहा जा रहा है और उनके ऊपर देशद्रोह के मुकदमे किए जा रहे हैं। दुनिया पोस्ट ट्रूथ की बात कर रही है और भारत में झूठ ही सच बन गया है। जॉर्ज ऑरवेल का कहा याद आता है कि ‘समाज सत्य से जितना दूर होता जाता है, वह सच बोलने वालों से उतनी ही नफरत करने लगता है’। बहरहाल, क्या केंद्र सरकार के बनाए कृषि कानूनों का विरोध करना देशद्रोह है? प्रधानमंत्री खुद उसे पवित्र आंदोलन बता चुके हैं फिर उस आंदोलन का समर्थन करना देशद्रोह कैसे हो गया? दिशा रवि का क्या कसूर है? अगर पुलिस के आरोपों को सही मानें तब भी क्या किसी आंदोलन का समर्थन करने और उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के उपाय करना देशद्रोह है? संचार तकनीक के मौजूदा दौर में अगर किसी ने कोई ईमेल बनाया या व्हाट्सऐप ग्रुप बनाया, कोई गूगल डॉक्यूमेंट बनाया, उसमें ऐसे हैशटैग सुझाए, जिनसे आंदोलन को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाए और उसे शेयर किया तो यह देशद्रोह कैसे हो गया? बाद में अगर उसे एडिट किया गया, कुछ लाइनें डिलीट की गईं या पूरा एकाउंट डिलीट करने को कहा गया तो यह भी कैसे अपराध या देशद्रोह हो गया? कहा जा रहा है कि दिशा रवि, निकिता जैकब और शांतनु ने एक जूम मीटिंग में हिस्सा लिया था, जिसमें खालिस्तान समर्थक एमओ धालीवाल भी शामिल था। क्या यह बात 21 साल की एक लड़की को देशद्रोही बना देती है? प्रधानमंत्री कांग्रेस पार्टी पर हमला करते हैं तो कहते हैं कि कांग्रेस कृषि कानूनों के कंटेंट और इंटेंट पर बात नहीं करती है। लेकिन उन्हीं की पुलिस को एक कथित जूम मीटिंग का न कंटेंट पता है और न उसमें शामिल लोगों का इंटेंट पता है और उसने युवा सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया! यह पुलिस राज के आगाज का संकेत है। कल किसी को इस बात के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है कि वह उसी ट्रेन में सफर कर रहा था, जिसमें कोई आतंकवादी पकड़ा गया है। यह घटनाओं और व्यक्तियों का ऐसा स्टीरियोटाइप बनाने का प्रयास है, जिसमें सत्ता का विरोधी हर व्यक्ति देशद्रोही ठहराया जा सकता है। देश को बचाने के लिए सरकार के इस प्रयास का हर माध्यम से विरोध किया जाना चाहिए। देश के प्रधान शासक इन दिनों भारतीय मेधा के सर्वोच्च प्रतीक गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का वेश बना कर घूम रहे हैं, पता नहीं उन्होंने राष्ट्रवाद के बारे में गुरुदेव के विचार पढ़े हैं या नहीं! गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने 1916-17 में दुनिया की यात्रा की थी और उसी समय ‘नेशनलिज्म’ नाम से उनकी एक किताब न्यूयॉर्क में मैकमिलन कंपनी से छपी थी। इसमें ‘नेशनलिज्म इन इंडिया’ शीर्षक से एक अध्याय है, जिसमें गुरुदेव ने लिखा है कि ‘मेरे देशवासी अपने भारत को सच्चे अर्थों में तभी हासिल कर सकते हैं जब वे उस शिक्षा के विरूद्ध लड़ें, जिसमें उन्हें सिखाया जाता है कि कोई देश मानवता के आदर्शों के मुकाबले महान होता है’। उन्होंने 105 साल पहले यह कहा कि देश नहीं, बल्कि मानवता के आदर्श ज्यादा महान होते हैं। लेकिन आज मानवता के पक्ष में उठी हर आवाज पर देशद्रोह का ठप्पा लगा दिया जाता है। उन्होंने इसी पुस्तक में लिखा है- नेशनलिज्म इज अ ग्रेट मीनेस। यानी राष्ट्रवाद एक बड़ी बीमारी है। उन्होंने राष्ट्र की अवधारणा के बारे में लिखा- वन ऑफ द मोस्ट पावरफुल एनेस्थेटिक्स दैट द मैन हैज इन्वेंटेंड यानी मनुष्य द्वारा बनाई गई बेहोशी की सबसे बड़ा ताकतवर दवा है राष्ट्रवाद! कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रवाद की इस दवा के लगातार डोज से पूरे देश को बेहोशी की स्थिति में लाने का अभियान चल रहा है। इसका मकसद देश, समाज या व्यक्ति को सशक्त बनाना नहीं है, बल्कि इन सबको नियंत्रित रखते हुए सत्ता में बने रहना है। तभी देश के हर जागरूक नागरिक का कर्तव्य है कि वह नीम बेहोशी में पहुंच चुके इस देश को जगाने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठाए, जैसा कि हिंदी के सर्वकालिक महान कवियों में से एक गजानन माधव मुक्तिबोध ने लिखा था- अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सारे!  
Published

और पढ़ें