बेबाक विचार

झुनझुना थमाने की राजनीति

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झुनझुना थमाने की राजनीति
दुष्यंत कुमार ने लिखा था- जिस तरह चाहे बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं। अब तड़पती से गजल कोई सुनाए, हमसफर ऊंघे हुए हैं, अनमने हैं। जब उन्होंने यह गजल लिखी तब भी लोगों को झुनझुने की तरह बजाने और उनका ध्यान भटकाने के लिए झुनझुने थमाने की राजनीति हो रही थी और अब भी लोगों के हाथ में झुनझुने थमाने की राजनीति जारी है। देश के ऊंघे हुए और अनमने नागरिकों को हर दिन कोई तड़कती-फड़कती सी गजल सुनाई जाती है। ताजा गजल हर साल 26 दिसंबर को वीर बालक दिवसमनाने की घोषणा है। पंजाब में विधानसभा चुनाव है और कुछ नहीं सुझा तो गुरु गोविंद सिंह के साहिबजादों की शहादत के सम्मान में वीर बालक दिवसकी घोषणा कर दी गई। Politics BJP Narendra modi उधर भाजपा के कम से कम दो मुख्यमंत्रियों ने पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में हुई चूक को खालिस्तानी साजिश बताया है। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा और त्रिपुरा के बिप्लब देब ने इसे खालिस्तानी साजिश कहा और सरमा ने तो मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को गिरफ्तार करने की मांग की। सोचें, खराब मौसम के बावजूद फिरोजपुर जाने का फैसला प्रधानमंत्री का और पार्टी का था और बठिंडा हवाईअड्डे से सड़क के रास्ते सफर करने का फैसला भी निश्चित रूप से प्रधानमंत्री और उनकी सुरक्षा करने वाली एजेंसी एसपीजी का था। उधर फिरोजपुर के रास्ते में प्रदर्शन कर रहे किसान थे और प्यारेआना फ्लाईओवर पर एसपीजी की सुरक्षा के बावजूद प्रधानमंत्री की गाड़ी के पास तक पहुंचने वाले लोग भाजपा के कार्यकर्ता थे, लेकिन साजिश खालिस्तान की है और इसके लिए मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करना चाहिए! सोचें, किस भावना के साथ भाजपा के मुख्यमंत्री और दूसरे नेता पंजाब के मामले में बार बार खालिस्तान को ला रहे हैं? केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के विरोध में एक साल तक चले किसान आंदोलन को भी खालिस्तान की साजिश बताया गया था। किसानों को खालिस्तानी और आतंकवादी तक कहा गया था। केंद्र सरकार की शीर्ष मंत्रियों में से एक ने किसानों को मवाली कहा। आईटी सेल के जरिए किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए दस तरह की झूठी कहानियां प्रचारित कराई गईं। फिर जब चुनाव आया तो कानून वापस ले लिया और वीर बालक दिवसका झुनझुना थमा दिया। ध्यान रहे अब तक चारों साहिबजादों की शहादत पर कोई सरकारी कार्यक्रम नहीं होता रहा है फिर भी उनकी शहादत को याद करके लोगों का सिर अपने आप श्रद्धा से झुकता है। शहादत और शौर्य उस कौम की तासीर रही है इसलिए उनको ऐसे झुनझुने की जरूरत नहीं है। Read also उ.प्र. का भावी मुख्यमंत्री कौन? five state assembly election इससे ठीक पहले एक झुनझुना आदिवासियों को पकड़ाया गया। पिछले साल 15 नवंबर को महान स्वतंत्रता सेना और योद्धा धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के दिन अचानक ऐलान कर दिया गया कि अब हर साल 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवसमनाया जाएगा। सोचें, जनजातियों की राजनीतिक भागीदारी लगातार कम की जा रही है। सरकारी नौकरियों में जनजातियों के लिए आरक्षित पद खाली पड़े हुए हैं। लेकिन जनजातीय गौरव दिवसमनाया जाएगा। भारतीय जनता पार्टी पहली पार्टी है, जिसने झारखंड में गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया। उससे पहले राज्य बनने के बाद से 14 साल तक आदिवासी ही मुख्यमंत्री हुए थे। भाजपा ने उनका वह गौरव छीन लिया। छत्तीसगढ़ में लगातार 15 साल तक भाजपा की सरकार रही लेकिन आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की जरूरत नहीं समझी गई। पूर्वोत्तर को छोड़ दें तो भाजपा का कोई मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री आदिवासी नहीं है। ले-देकर एक आदिवासी कैबिनेट मंत्री है और एक आदिवासी राज्यपाल है। केंद्र सरकार के 457 सचिवों, अतिरिक्त सचिवों और संयुक्त सचिवों में अनुसूचित जनजाति के सिर्फ तीन सचिव, पांच संयुक्त सचिव और नौ अतिरिक्त सचिव हैं। उनके लिए आरक्षण साढ़े सात फीसदी है, लेकिन शीर्ष पदों में उनकी हिस्सेदारी चार फीसदी से भी कम है। फिर भी उनके लिए जनजातीय गौरव दिवसमनाया जाएगा! हर चुनावी सभा में इसका प्रचार होता है कि पिछड़ी जाति आयोग को संवैधानिक दर्जा भाजपा की मौजूदा सरकार ने दिया। तो क्या करें पिछड़ी जाति के लोग? आयोग को संवैधानिक दर्जा देने से क्या उनका आरक्षण बढ़ गया? क्या उनके लिए निर्धारित रिक्त पदों पर नियुक्तियां हो गईं? क्या राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ गई? पिछड़ी जाति के नेता जनगणना में ओबीसी की गिनती कराने की मांग कर रहे हैं, लेकिन केंद्र सरकार ने उससे इनकार कर दिया है। ध्यान रहे भाजपा के एक दर्जन मुख्यमंत्रियों में पिछड़ी जाति के अकेले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं। वे भी एक बार हटने के बाद कैसे बने और कैसे बने हुए हैं यह अलग विषय है। फरवरी 2020 के आंकड़ों के मुताबिक भारत सरकार के 89 सचिवों में से एक भी सचिव पिछड़ी जाति का नहीं था और 275 संयुक्त सचिवों में से भी कोई पिछड़ी जाति का नहीं था। हां, 93 अतिरिक्त सचिवों में जरूर 19 लोग पिछड़ी जातियों से थे, जिनमें से ज्यादातर सचिव बनने से पहले ही रिटायर हो गए होंगे। सोचें, ओबीसी का आरक्षण 27 फीसदी है और शीर्ष पद पर हिस्सेदारी पांच फीसदी से भी कम। फिर भी उनके आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का झुनझुना हर जगह बजाया जाएगा।  पिछले दिनों ऑडिट दिवस मनाने का ऐलान किया गया। नियंत्रक व महालेखापरीक्षक यानी सीएजी की स्थापना दिवस को ऑडिट दिवसके रूप में मनाने की घोषणा हुई है। याद करें कैसे सीएजी की एक रिपोर्ट के आधार पर एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए के संचार घोटाले और तीन लाख करोड़ रुपए के कोयला घोटाले का हल्ला मचा था। उसी हल्ले में कांग्रेस का सफाया हुआ और भाजपा केंद्र की सत्ता में आई। लेकिन उसके बाद से क्या किसी ने सीएजी की किसी रिपोर्ट का हल्ला सुना है? असल में सीएजी ने रिपोर्ट ही देनी लगभग बंद कर दी है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की कमान में भाजपा की सरकार बनने के अगले साल यानी 2015 में सीएजी ने कुल 55 रिपोर्ट दी थी, जो 2020 में घट कर 14 रह गई। न्यू इंडियन एक्सप्रेसद्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत मांगी गई जानकारी से यह पता चला कि पांच साल में सीएजी की रिपोर्ट में करीब 75 फीसदी की कमी हुई है। कई मंत्रालयों की तो सीएजी ने शून्य रिपोर्ट दी है। यानी सीएजी की रिपोर्ट आनी बंद हो गई, उस पर चर्चा और उसका विश्लेषण बंद हो गया तो अब सीएजी की स्थापना के दिन ऑडिट दिवसमनाया जाएगा! बाकी संसद की देहरी पर माथा टेकने और संसद की भूमिका नगण्य कर देने, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की दुहाई देने और संसद को विपक्ष से मुक्त करने की मुहिम चलाने, सहकारी संघवाद का ढोल बजाने और राज्यों के अधिकार कम करने, राष्ट्रीय सुरक्षा की राजनीति करने और सीमा पर अपनी जमीन गंवाने जैसे अनगिनत और भी मुद्दे हैं, जिन्हें मोटे तौर पर भी देखने से पता चल जाता है कि कहने और करने में कितना बड़ा फर्क है।
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