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ममता का यह कैसा मॉडल!

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ममता का यह कैसा मॉडल!
बीरभूम जिले से रामपुरहाट में दो बच्चों सहित 10 लोगों को जिंदा जलाने की घटना ममता राज की प्रतिनिधि घटना की तरह आज देश के सामने है। तृणमूल कांग्रेस के एक स्थानीय नेता भादू शेख की हत्या का बदला लेने के लिए इस कार्रवाई को अंजाम दिया गया। लोगों को घरों में बंद कर आग लगा दी गई। यह भयावह घटना है। बीरभूम के रामपुरहाट में हुई हिंसा उसी यथास्थितिवादी राजनीति की अंत परिणति है। बच्चों सहित 10 बेकसूर लोगों को जिंदा जला देने की यह घटना ममता की अखिल भारतीय महात्वाकांक्षा की भ्रूण हत्या साबित हो सकती है। What model of Mamta इन दिनों भारत की राजनीति में सफल होने के लिए गवर्नेंस का एक मॉडल पेश करने का चलन शुरू हो गया है। हालांकि ऐसा नहीं है कि विचारधारात्मक राजनीति खत्म हो गई, बल्कि विचारधारा पहले से ज्यादा अहम हो गई है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत इसका नमूना है। यह अलग बात है कि भाजपा के नेता खुल कर यह बात मानेंगे नहीं कि हिंदुत्व की विचारधारा और हिंदू कंसोलिडेशन से पार्टी जीती है। वे बुलडोजर और कानून-व्यवस्था की बात कर रहे हैं लेकिन ये दोनों चीजें भी हिंदुत्व की राजनीति के प्रतीक के तौर पर चुनाव में इस्तेमाल की गईं। इसी विचारधारा की राजनीति अरविंद केजरीवाल भी कर रहे हैं। इसके बावजूद भाजपा और आम आदमी पार्टी दोनों गवर्नेंस का एक मॉडल भी लोगों के सामने पेश करते हैं। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर 2013 में जब आम चुनाव में उतरे तब उन्होंने गुजरॉत मॉडल पेश किया। पूरे देश में गुजरात गाथा सुनाई गई और बताया गया कि कैसे बतौर मुख्यमंत्री मोदी ने गुजरात का कायाकल्प कर दिया। उसकी हकीकत लोग बाद में जाने तब तक कहानी आगे बढ़ चुकी थी और अब मोदी मॉडल पूरे देश में चल रहा है। इसको चुनौती देने के लिए केजरीवाल ने दिल्ली मॉडल पेश किया है। पंजाब में यह मॉडल दिखा कर उन्होंने चुनाव जीत लिया और अब गुजरात, हिमाचल प्रदेश में इसके प्रदर्शन की तैयारी है। यह मॉडल मुफ्त सेवाएं और नकद पैसे देने का है। उधर मणिपुर के चुनाव में जदयू को छह सीटें मिलीं तो उसके नेताओं ने कहा कि न्याय के साथ विकास का नीतीश कुमार का बिहार मॉडल मणिपुर में चला है। तभी सवाल है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कौन सा मॉडल लोगों के सामने पेश करेंगी? उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही हैं और वे दिल्ली, मुंबई की दौड़ लगा रही हैं। वे पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार चुनाव जीती हैं। जब तक लोकसभा का अगला चुनाव आएगा तब तक राज्य की सरकार में उनके 13 साल पूरे हो जाएंगे। सो, 13 साल सरकार चलाने के बाद वे राष्ट्रीय स्तर पर कौन सा मॉडल पेश करेंगी, जिससे बंगाल से बाहर के लोग उनकी ओर आकर्षित होंगे? बंगाल के लोग तो आकर्षित हो सकते हैं। क्योंकि ममता और उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर बांग्ला अस्मिता का दांव खेलेंगे और लोगों के सामने पहले बंगाली प्रधानमंत्री की चमकदार उम्मीद पेश करेंगे। लेकिन यह दांव बंगाल से बाहर नहीं चलेगा। तभी सवाल है कि वे अपने शासन की किस खूबी को देश के लोगों के सामने पेश करेंगी? Read als इतिहास लाइव! trinamool congress mamta banerjee यह सवाल सिर्फ इसलिए नहीं उठ रहा है कि ममता बनर्जी अगले चुनाव में विपक्ष का चेहरा बनने की कोशिश कर रही हैं, बल्कि इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि राज्य में राजनीतिक हिंसा का बेहद विद्रूप चेहरा देश के सामने आ रहा है। बीरभूम जिले से रामपुरहाट में दो बच्चों सहित 10 लोगों को जिंदा जलाने की घटना ममता राज की प्रतिनिधि घटना की तरह आज देश के सामने है। तृणमूल कांग्रेस के एक स्थानीय नेता भादू शेख की हत्या का बदला लेने के लिए इस कार्रवाई को अंजाम दिया गया। लोगों को घरों में बंद कर आग लगा दी गई। यह भयावह घटना है। कानून के शासन वाले किसी राज्य में ऐसी घटना की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ध्यान हटाने के लिए या नया नैरेटिव सेट करने के लिए भले यह बताया जाए कि मरने वाले सभी लोग मुस्लिम हैं या आपसी रंजिश की वजह से ऐसा हुआ या भाजपा जिम्मेदार है, लेकिन नंगी सचाई लोगों के सामने है। यह घटना इस बात का संकेत है बंगाल में कानून का राज नहीं है या लोगों के मन में कानून के शासन के प्रति कोई सम्मान नहीं है। सरकारों की पहली जिम्मेदारी कानून का शासन स्थापित करने की होती है, जिसमें ममता सरकार विफल दिख रही है। ऐसा नहीं है कि दूसरे राज्यों में इस तरह की घटनाएं नहीं होती हैं या चुनावी रंजिश नहीं होती है या कानून व्यवस्था की समस्या नहीं होती है लेकिन किसी राज्य में राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को सांस्थायिक रूप से स्थापित नहीं किया जाता है। पश्चिम बंगाल में हिंसा वहां की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गई है। हर चुनाव से पहले और बाद में हिंसा होती है और बेकसूर लोग मारे जाते हैं। यह एक बड़ा मानवीय और सामाजिक संकट है लेकिन उससे ज्यादा लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। कहां तो ममता बनर्जी लोकतंत्र की रक्षक बन कर देश में घूम रही हैं और कहां उनके राज में बंदूक की नली से लोकतंत्र के संचालित होने की धारणा बन रही है। वे कहती हैं कि भाजपा की केंद्र सरकार लोकतंत्र खत्म कर रही है और वे इसे बचाएंगी लेकिन उनके राज में तो खुद ही लोकतंत्र संकट में दिख रहा है। यह सही है कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा का पुराना इतिहास रहा है। पहले सीपीएम और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प होती थी। बाद में सीपीएम और तृणमूल के बीच हिंसा शुरू हुई और अब तृणमूल व भाजपा के बीच हिंसक लड़ाई चल रही है। ममता ने राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को बदलने के लिए कुछ नहीं किया उलटे उसे सत्ता का संरक्षण देकर सांस्थायिक बनाए रखा। पिछले साल दो मई को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद एक हफ्ते के भीतर दर्जनों जगह हमले हुए और कम से कम 10 लोगों के मारे जाने की खबर आई। उससे पहले पंचायत चुनावों में या खनन के ठेके-पट्टे को लेकर दर्जनों लड़ाइयों और हत्याओं की खबरे आती रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो, एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक 1999 से लेकर 2016 तक हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुईं। तभी यह अनायास नहीं है कि ममता की सरकार ने 2019 के बाद से एनसीआरबी को आंकड़े देना ही बंद कर दिया। बहरहाल, जमीनी संघर्ष से निकलीं एक मध्यवर्गीय महिला के मुख्यमंत्री बनने पर यह उम्मीद बंधी थी कि बंगाल में हिंसा की राजनीतिक संस्कृति बंद होगी। पुरानी कहावत है कि युद्ध में चलने वाली हर गोली किसी न किसी महिला की छाती में लगती है। कैसी भी हिंसा हो उसमें पीड़ा और मुश्किलें महिलाओं और बच्चों को झेलनी होती है। एक महिला के नाते ममता इस बात को समझतीं और राज्य की राजनीतिक संस्कृति को बदलने का प्रयास करती हैं तो वे एक अपना मॉडल तैयार कर सकती थीं। लेकिन ऐसा लग रहा है कि कुछ बदलने की बजाय उन्होंने यथास्थिति को अपनाया। बीरभूम के रामपुरहाट में हुई हिंसा उसी यथास्थितिवादी राजनीति की अंत परिणति है। बच्चों सहित 10 बेकसूर लोगों को जिंदा जला देने की यह घटना ममता की अखिल भारतीय महात्वाकांक्षा की भ्रूण हत्या साबित हो सकती है। देश के लोगों ने उनसे जो उम्मीद बांधी थी वह इस घटना से टूटेगी और इससे उनकी जैसी छवि बन रही वह राष्ट्रीय फलक पर उनके सफल होने की उम्मीदों को धुंधला करेगी।
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