बेबाक विचार

संसद की फिर जरूरत क्या है?

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संसद की फिर जरूरत क्या है?
तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का बिल लोकसभा में सिर्फ तीन मिनट में और राज्यसभा में नौ मिनट में पास हो गया। न कोई चर्चा हुई, न कोई सवाल उठाया गया और न कोई जवाब देने की जरूरत समझी गई। और सोचें, यह उस समय हुआ, जिसके चंद मिनट पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद परिसर में खड़े होकर कहा था कि हमारी पहचान इस बात से हो कि हमने सदन में कितने घंटे काम किया, न कि इस बात से कि सदन में किसने कितना जोर लगाकर संसद को रोका। उनके यह कहने के थोड़ी देर के बाद दोनों सदनों में विपक्ष कृषि कानूनों को वापस लेने के बिल पर बहस की मांग करता रहा, लेकिन सरकार ने चुटकियों में दोनों सदनों में इसे पास करा लिया। कृषि कानूनों को और ऐसे अनेक कानूनों को इसी तरह से पास कराया गया है। तभी सवाल है कि फिर संसद या संसदीय चुनावों की जरूरत क्या है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या देश उस दिशा में बढ़ रहा है, जहां संसद की जरूरत नहीं रह जाएगी? Parliament Agriculture bill passed ये सवाल इसलिए हैं क्योंकि इस सरकार के संसदीय कामकाज का रिकार्ड बहुत खराब है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आंकड़ों के मुताबिक जुलाई-अगस्त में हुए संसद के मॉनसून सत्र में सरकार ने 15 बिल 10 मिनट से भी कम समय में पास कराए। इनमें से लोकसभा में 14 और राज्यसभा में एक बिल 10 मिनट से कम समय में पास हुआ। सरकार ने उसी सत्र में 26 विधेयक आधे घंटे से कम समय में पास कराया। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार ने पिछले करीब ढाई साल में 19 बिल 10 मिनट से कम समय में और 42 बिल आधे घंटे से कम समय में पास कराए हैं। इसी में कृषि बिल, बीमा बिल, नागरिकता संशोधन बिल भी शामिल है। सोचें, राष्ट्रीय महत्व के ऐसे कानून, जिनसे देश के 140 करोड़ लोगों की किस्मत तय होनी है, उन्हें चुटकियों में पास कराया जा रहा है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिल तैयार करते समय भी संबंधित पक्षों और हितधारकों को शामिल नहीं किया जा रहा है, उस पर उठ रहे सवालों की अनदेखी की जा रही है और संसद के अंदर भी इन पर चर्चा नहीं कराई जा रही है। कृषि कानूनों के मामले में यह देखने को मिला। सैकड़ों किसान संगठनों ने कहा कि कानून बनाने से पहले उनसे कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया। यह देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद से ही भारत में विधायिका की भूमिका का सही तरीके से विकास नहीं हुआ। विधायिका का काम कानून बनाना और कार्यपालिका का काम उस पर अमल करना होता है। लेकिन भारत में उलटा होता है। भारत में कानून सरकारें बनाती हैं और संसद व विधानसभाएं उन पर सिर्फ मुहर लगाती हैं। दुनिया के दूसरे सभ्य, विकसित और संसदीय परंपरा वाले देशों में अनेक बार ऐसा देखने को मिलता है कि सरकार के लाए बिल पर विधायिका में बहस के दौरान सत्तापक्ष के सदस्य भी सवाल उठाते हैं, संशोधन पेश करते हैं और कई बार विधेयक के विरोध में विपक्ष के साथ मिल कर मतदान करते हैं। लेकिन भारत में ऐसा होने की संभवतः एक भी मिसाल नहीं है। ऐसा कभी नहीं होता है कि सत्तापक्ष के सदस्य बिल के विरोध में सदन के अंदर या बाहर एक भी शब्द बोलें। वे हमेशा बिल के समर्थन में हाथ उठाते हैं। देश की पहली चुनी हुई सरकार के समय से ऐसा ही होता आया है। लेकिन सात साल पहले तक दिखावे के लिए ही सही संसद में बहस होती थी, विधेयक तैयार करने से पहले लोगों से सलाह-मशविरा किया जाता था, विधेयक तैयार होने के बाद उसे संबंधित विभाग की स्थायी समिति को भेजा जाता था और अगर किसी विधेयक पर विवाद हो तो उसे संसद की साझा समिति या प्रवर समिति को भेजा जाता था। अब यह प्रक्रिया न्यूनतम हो गई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक दूसरी मोदी सरकार में सिर्फ 11 फीसदी विधेयकों की ही संसदीय समीक्षा हुई है। बिल बिना चर्चा के तैयार कराए जा रहे हैं और बिना बहस के पास कराए जा रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि सरकार और उसके मुखिया को लग रहा है कि वे सब जानते हैं और उन्होंने गोवर्धन अपनी उंगलियों पर उठा रखा है इसलिए किसी को कानून या उसके अमल के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। यह लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था दोनों के लिए बहुत बड़े खतरे का संकेत है। What kind of democracy सोचें, अगर ऐसा नहीं होता तो क्या तीन कृषि कानून उस तरह से पास होते, जैसे पिछले साल कराए गए या उस तरह से वापस किए जाते, जैसे टेलीविजन पर आकर किए गए? प्रधानमंत्री ने टेलीविजन पर आकर ऐलान किया कि वे तीनों कृषि कानून वापस ले रहे हैं और उसके बाद बात खत्म हो गई। क्या इसके बाद किसी बहस की गुंजाइश नहीं बची थी? कानून बनाने या उसे वापस लेने की जगह संसद है या टेलीविजन चैनल? अगर सरकार संसदीय व्यवस्था और परंपराओं के प्रति जरा सी भी संवेदनशील होती तो संसद में इस पर विस्तार से बहस कराती। इन सवालों के जवाब देती कि आखिर इन कानूनों की क्या जरूरत थी, जो इन्हें बनाया गया था और अब क्या मजबूरी हो गई, जो इन्हें वापस लिया जा रहा है। इस बात का कोई मतलब नहीं है कि सरकार थोड़े से किसानों को इस कानून के फायदे नहीं समझा पाई, इसलिए वापस ले रही है। ऐसा तो हर कानून के मामले में हो सकता है कि थोड़े से लोगों को सरकार उसका फायदा नहीं समझा पाए तो क्या सारे कानून वापस हो जाएंगे? Read also यह कैसा भारत बन रहा है? प्रधानमंत्री ने टेलीविजन पर कहा कि वे देशहित में कानून वापस ले रहे हैं तो क्या यह समझाना सरकार का काम नहीं है कि कौन सा देशहित है, जिसकी वजह से कानून वापस लिए गए? क्या यह सही नहीं है कि सरकार ने कानून वापसी के बिल पर इसलिए चर्चा नहीं कराई क्योंकि अगर चर्चा होती तो सरकार को किसान आंदोलन और उसमें सात सौ से ज्यादा किसानों की मौत का जवाब देना होता? क्या यह सही नहीं है कि चर्चा होती तो न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर सरकार को अपना रुख स्पष्ट करना होता? क्या यह सही नहीं है कि संसद में चर्चा होती तो सरकार को लखीमपुर खीरी में चार किसानों और एक पत्रकार को कुचल कर मार डालने की घटना पर जवाब देना होता? क्या यह सही नहीं है कि चर्चा होती तो यह सवाल उठता कि सरकार ने आखिर क्यों राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल देते हुए खेती-किसानी के मसले को कारोबार से जोड़ा और मनमाने तरीके से कानून पास कराया? जाहिर है कई असहज सवालों से बचने के लिए चुटकियों में बिल पास कराने का रास्ता चुना गया। अगर लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था को बचाना है तो सरकार की ऐसी मनमानियों से विधायिका को बचाना होगा। प्रधानमंत्री से यह उम्मीद नहीं की जा रही है कि वे संसद की देहरी पर माथा टेकें या संविधान को गीता की तरह पवित्र ग्रंथ मान कर उसे माथे से लगाएं। उनसे सिर्फ यह उम्मीद की जाती है कि वे अगर संसदीय प्रक्रिया और व्यवस्था को मजबूत नहीं कर सकते हैं तो कम से कम इसे कमजोर करने वाले काम न करें। कायदे से तो संसदीय लोकतंत्र की यह क्लासिक व्यवस्था लागू होनी चाहिए कि संसद में कोई बिल आए तो सारे सांसद, पार्टी की ओर से किसी तरह की अनुशासनात्मक कार्रवाई के भय से मुक्त होकर उस पर अपनी राय रखें, बिना किसी पूर्वाग्रह के उस पर वस्तुनिष्ठ तरीके से चर्चा हो और तब बिल पास हो। लेकिन अगर ऐसा नहीं किया जा सकता है तो कम से कम जैसा आजादी के बाद से चलता आ रहा है, उसे ही चलने दें तो संसद की न्यूनतम गरिमा और उसकी प्रासंगिकता बची रहेगी।
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