
इन दिनों चारों तरफ अर्थव्यवस्था की हरी-भरी तस्वीर पेश की जा रही है। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर के बीच आर्थिक विकास दर 8.4 फीसदी रही है और नवंबर में एक लाख 31 हजार करोड़ रुपए जीएसटी संग्रह हुआ है। एक-दो कोर सेक्टर्स को छोड़ कर बाकी सबमें तेज रफ्तार से बढ़ोतरी हुई है। लेकिन क्या इन आंकड़ों से अर्थव्यवस्था की असलियत जाहिर होती है? क्या इन्हीं आंकड़ों के दम पर दुनिया के दूसरे विकसित और सभ्य लोकतांत्रिक देश अपने यहां अर्थव्यवस्था की तस्वीर का आकलन करते हैं? हकीकत यह है कि दुनिया के दूसरे सभ्य व विकसित देश जीडीपी के आंकड़ों के आधार पर आर्थिकी का आकलन नहीं करते हैं। वे इस भ्रम में नहीं रहते हैं कि जीडीपी बढ़ जाएगी यानी अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ जाएगा तो अपने आप हर आदमी का भला हो जाएगा। reality of the economy
इसे ट्रिकल डाउन थ्योरी कहते हैं, जिसका मतलब होता है कि ऊपर घड़ा भर जाएगा तो पानी रिस कर नीचे पहुंचेगा। इसके उलट दुनिया के देश रोजगार, महंगाई और प्रति व्यक्ति कमाई के वास्तविक आंकड़ों पर भरोसा करते हैं। तभी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि उनके तीन लक्ष्य हैं- सबसे पहले जरूरी चीजों के दाम कम करना, दुकानों में वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करना और अमेरिकी नागरिकों को उनका रोजगार वापस दिलाना। भारत में इस तरह की गारंटी नहीं दी जाती है। यहां जीडीपी और कर संग्रह के आंकड़ों से लोगों में यह धारणा बनाई जाती है कि सब कुछ ठीक हो गया है, ऊपर घड़ा भर रहा है और उसमें से पानी रिसना शुरू होगा तो नीचे भी पहुंचेगा।
बहरहाल, जहां तक भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़े पहले सवाल यानी अर्थव्यवस्था की असलियत का सवाल है तो उसके बारे में नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने कहा ही है कि भारत की अर्थव्यवस्था अब 2019 की स्थिति तक पहुंची है। जाहिर है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही की 20 फीसदी से ज्यादा की विकास दर या दूसरी तिमाही की 8.4 फीसदी विकास दर असली तस्वीर नहीं दिखाती है। पिछले साल पहली तिमाही में विकास दर माइनस 24 फीसदी थी इसलिए इस साल की पहली तिमाही की 20 फीसदी विकास दर का मतलब है माइनस चार फीसदी। पिछले साल की दूसरी तिमाही में विकास दर माइनस 7.4 फीसदी थी इसलिए इस साल की दूसरी तिमाही की 8.4 फीसदी विकास दर का मतलब है एक फीसदी। यह बहुत सरल हिसाब है। लेकिन इससे भी अर्थव्यवस्था की असली तस्वीर नहीं जाहिर होती है। क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था 2018 के बाद से ही गिरावट के दौर में है। वित्त वर्ष 2019-20 में तो पूरे साल की जीडीपी की विकास दर चार फीसदी थी। उससे भी तुलना करें तो विकास दर बहुत अच्छी दिखाई देगी पर उससे तस्वीर साफ नहीं होगी।
Read also क्षेत्रीय पार्टियां नहीं लड़ पातीं भाजपा से
यह भी समझने की बात है कि जीडीपी का बढ़ना इस बात का संकेत नहीं होता है कि उसी अनुपात में हर नागरिक की आय बढ़ रही है और उसकी मुश्किलें कम हो रही हैं। ‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022’ से यह असलियत जाहिर हुई है। भारत में अपनाई गई आर्थिक नीतियों की वजह से पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक असमानता बेतहाशा बढ़ी है और अंग्रेजों के राज से ज्यादा हो गई है। अंग्रेजों के शासन में 1858 से लेकर 1947 तक देश की 50 फीसदी संपत्ति पर सिर्फ 10 फीसदी लोगों का कब्जा था, अब उससे भी खराब स्थिति हो गई है। अभी देश की 65 फीसदी संपत्ति पर सिर्फ 10 फीसदी लोगों का कब्जा है। देश की कुल आय का 57 फीसदी हिस्सा 10 फीसदी लोगों के पास जाता है। देश की 22 फीसदी कुल आय सिर्फ एक फीसदी लोगों के पास जाती है।
‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022’ के मुताबिक भारत की 50 फीसदी आबादी की आय इस साल 13 फीसदी कम हुई है। सोचें, एक तरफ सरकार के एक चहेते उद्योगपति की कमाई एक साल में तीन हजार फीसदी बढ़ी है तो दूसरी ओर 50 फीसदी आबादी की आय 13 फीसदी घटी है। दुनिया के जाने-माने एक सौ अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के मुताबिक देश की 50 फीसदी आबादी की औसत आय 53,610 रुपए सालाना है, जबकि शीर्ष 10 फीसदी की औसत आय इससे 20 गुना यानी 11 लाख 66 हजार 520 रुपए सालाना है। अगर सालाना आय की बजाय संपत्ति की बात करें तो उसमें भी जबरदस्त असमानता है। देश की नीचे की 50 फीसदी आबादी के पास औसतन 66,280 रुपए की संपत्ति है। इस लिहाज से देश की 50 फीसदी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का महज छह फीसदी हिस्सा है। मध्य वर्ग की स्थिति थोड़ी ठीक है। उसके पास औसतन सात लाख 24 हजार रुपए की संपत्ति है, जो कुल संपत्ति का साढ़े 29 फीसदी है। सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों के पास 63 लाख 54 हजार रुपए की औसत संपत्ति है, जो कुल संपत्ति का 65 फीसदी है। सबसे अमीर एक फीसदी लोगों की बात करें तो उनके पास औसतन सवा तीन करोड़ रुपए की संपत्ति है, जो कुल संपत्ति का 33 फीसदी है।
कहने की जरूरत नहीं है कि असमानता के आंकड़ों से देश की अर्थव्यवस्था और उसके बढ़ने की रफ्तार की असलियत जाहिर हो रही है। देश की अर्थव्यवस्था बढ़ रही है तो उसका फायदा सबसे अमीर लोगों को हो रहा है। जहां तक जीएसटी संग्रह या ओवरऑल कर संग्रह बढ़ने का मामला है तो वह भी अनिवार्य रूप से कारोबारी गतिविधियों में तेजी आने या अर्थव्यवस्था के रफ्तार पकड़ने का संकेत नहीं है। जीएसटी और कर संग्रह महंगाई की वजह से बढ़ रहा है। पिछले एक साल में जरूरी चीजों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमत में आग लगी है तो, खाने-पीने की चीजों की कीमतें भी आसमान छू रही हैं। मिसाल के तौर पर पिछली तिमाही में एफएमसीजी यानी जल्दी खराब होने वाली उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में 12.6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वास्तविकता यह है कि इसमें वस्तुओं की बिक्री का वास्तविक हिस्सा 1.2 फीसदी है और बाकी बढ़ोतरी कीमत बढ़ने से हुई है। ग्रामीण इलाकों में एफएमसीजी की वास्तविक बिक्री 2.9 फीसदी कम हुई है लेकिन दाम बढ़ने की वजह से इस सेक्टर में 9.4 फीसदी का विकास दिख रहा है। हकीकत यह है कि कई सेक्टर में उपभोग कम हुआ है इसके बावजूद वस्तुओं की कीमत बढ़ने की वजह से कर संग्रह बढ़ा है। इसका मतलब है कि लोगों के जेब खाली करके सरकार अपना खजाना भर रही है।
सो, असलियत यह है कि विकास दर का आंकड़ा, जिसके बढ़ने का इतना हल्ला है वह आभासी है। देश की अर्थव्यवस्था आज भी 2019 के आसपास खड़ी है। अर्थव्यवस्था का आकार देश के शीर्ष एक फीसदी अमीरों की आय बढ़ने की वजह से बढ़ा है। देश की आधी आबादी की आय पहले के मुकाबले कम हो गई है। जहां तक जीएसटी व दूसरे कर संग्रह का सवाल है तो वह महंगाई बढ़ने के कारण इतनी तेजी से बढ़ रहा है। वास्तविक उपभोग कम हो रहा है, निम्न आय वर्ग के लोगों की औसत आय घट रही है और राष्ट्रीय आय व राष्ट्रीय संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी भी कम होती जा रही है।