बेबाक विचार

अमर्यादित राजनीति का कौन जिम्मेदार?

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अमर्यादित राजनीति का कौन जिम्मेदार?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पांच फरवरी को संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण करने हैदराबाद पहुंचे तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव उनकी अगवानी करने के लिए हवाईअड्डे पर मौजूद नहीं थे और बाद में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में भी शामिल नहीं हुए। हैदराबाद या आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में इस समय कोई चुनाव नहीं हो रहा है, जो यह माना जाए कि राजनीतिक कारणों से मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री का बहिष्कार किया। प्रधानमंत्री एक धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे थे और उनके पद का मान रखने के लिए भी मुख्यमंत्री को उनकी अगवानी करनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने इस सामान्य शिष्टाचार का पालन नहीं किया। responsible for indecent politics यह पहला मौका नहीं था, जब किसी मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के साथ इस तरह का बरताव  किया। इस घटना से ठीक एक महीने पहले पांच जनवरी को प्रधानमंत्री पंजाब के बठिंडा पहुंचे थे और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी उनकी अगवानी करने नहीं गए थे। प्रधानमंत्री को हुसैनीवाला में शहीद स्मारक पर जाना था और कई योजनाओं का शिलान्यास करना था। मुख्यमंत्री ने किसी भी कार्यक्रम में शामिल होने से पहले ही मना कर दिया था। संयोग या दुर्योग से किसानों के आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री की वह यात्रा पूरी नहीं हो सकी और सुरक्षा चूक का अलग मामला आ गया। उससे पहले पिछले साल पश्चिम बंगाल में चक्रवाती तूफान का जायजा लेने प्रधानमंत्री बंगाल पहुंचे तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनकी मीटिंग में शामिल नहीं हुईं। प्रधानमंत्री इंतजार करते रहे, ममता आईं, उनको नमस्ते की और चली गईं। इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को टेलीफोन किया तो उसके बाद मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री सिर्फ मन की बात करते हैं, काम की बात नहीं करते। ये कुछ प्रतिनिधि घटनाएं हैं, जिनसे प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा और सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। आखिर पिछले आठ साल में ऐसा क्या हुआ है, जो राज्यों के मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री के प्रति ऐसे भाव का प्रदर्शन कर रहे हैं? राजनीति में वैचारिक टकराव पहले ज्यादा रहा है और पहले भी केंद्र और राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकारें रही हैं, फिर ऐसा पहले क्यों नहीं हुआ? क्या इसे भाजपा विरोधी पार्टियों की राजनीतिक असहिष्णुता कह कर खारिज किया जा सकता है या इसके कुछ गंभीर कारण हैं, जिनकी तत्काल पड़ताल और निराकरण जरूरी है? असल में प्रधानमंत्री के प्रति देश के अलग अलग राज्यों में उभर रही इस किस्म की प्रवृत्ति को गंभीरता से समझने की जरूरत है। आखिर ऐसा क्या हुआ है कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं के राज्यों के मुख्यमंत्री इस तरह का बरताव कर रहे हैं? सबसे पहले इस तथ्य को रेखांकित करने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री के प्रति बेअदबी की लगभग सारी घटनाएं पिछले एक साल की हैं। उससे पहले राजनीतिक विरोध के बावजूद सामान्य शिष्टाचार था और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी होता था। लेकिन इसके बीज पड़ने लगे थे, जिसकी अंत परिणति ऐसी ही होनी थी। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही इसकी शुरुआत हो गई थी। शुरू में राजनीतिक दलों के लिए यह अनोखी बात थी कि प्रधानमंत्री उनके प्रति अपमानजनक बातें कहें। फिर भी नरेंद्र मोदी और भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि नेताओं ने इसे बरदाश्त किया। संभव है कि वे इसका इंतजार भी करते रहे हों कि शायद अब प्रधानमंत्री बदल जाएंगे और सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार अपना लेंगे, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ और लगा कि एक खास राजनीतिक मकसद से प्रधानमंत्री योजनाबद्ध तरीके यह सब कर रहे हैं तब विपक्षी नेताओं के सब्र का बांध टूटा और उसमें सारे राजनीतिक शिष्टाचार बह गए। देश का शायद ही कोई विपक्षी नेता होगा, जिसके लिए सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री ने अपमानजनक बातें नहीं कही होंगी। मई 2014 में मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद हुए विधानसभा चुनावों में विपक्षी पार्टियों के नेताओं पर ऐसे हमले किए, जैसे पहले कभी नहीं हुए थे। उन्होंने महाराष्ट्र में शरद पवार और अजित पवार की चाचा-भतीजे की जोड़ी को भ्रष्ट बताते हुए कहा कि इन लोगों ने राज्य को लूटा है। उसी समय जम्मू कश्मीर में उन्होंने मुफ्ती मोहम्मद सईद और मेहबूबा मुफ्ती को बाप-बेटी की जोड़ी और फारूक अब्दुल्ला व उमर अबदुल्ला को बाप-बेटे की जोड़ी बताते हुए कहा कि पहले एक जोड़ी राज्य को लूटती है और फिर दूसरी जोड़ी राज्य को लूटने आ जाती है। यह अलग बात है कि उसी चुनाव के बाद उन्होंने महाराष्ट्र में पवार के समर्थन से सरकार बनाई और कश्मीर में अपना समर्थन देकर बाप-बेटी की ‘लुटेरी जोड़ी’ को बारी बारी से मुख्यमंत्री बनवाया। अगले साल 2015 में प्रधानमंत्री ने राजनीतिक शिष्टाचार की सारी हदें पार की, जब उन्होंने दिल्ली में प्रचार करते हुए अरविंद केजरीवाल को नक्सली कहा और बिहार में प्रचार करते हुए नीतीश कुमार के डीएनए में खराबी बताई। इसके बाद वे रूके नहीं। संसद में रेणुका चौधरी के ऊपर दिया गया शूर्पणखा वाला बयान हो या पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के लिए ‘दीदी ओ दीदी’ वाला बयान हो। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों और विपक्ष के नेताओं पर निजी हमले किए और अपमानजनक बयान दिया। उन्हें भ्रष्ट, परिवारवादी, माफियावादी, देशद्रोही, आतंकियों का समर्थक जैसी बातें कहीं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सिर्फ चुनावी सभाओं में इस तरह की बातें कहीं, बल्कि जब भी राज्यों में किसी राजनीति कार्यक्रम में शामिल होने गए तो ऐसी ही बातें कहीं। नेताओं पर निजी हमलों के अलावा सार्वजनिक विमर्श के विषयों पर भी उनकी भाषा संयमित नहीं रही और उनकी सरकार की नीतियां भी एकआयामी रहीं, जिससे केंद्र और राज्यों के बीच दूरी बढ़ी। एक तरफ प्रधानमंत्री नेताओं के ऊपर निजी हमले कर रहे हैं तो दूसरी ओर भाजपा के अन्य नेताओं और आईटी सेल की ओर से नेताओं का चरित्रहरण किया जा रहा है। केंद्रीय एजेंसियां विपक्षी नेताओं और उनके करीबियों के यहां छापे मार रही हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ कर कार्रवाई की जा रही है और जैसे ही आरोपी नेता भाजपा में शामिल हो जाता है वैसे ही सारे मामले ठंडे पड़ जाते हैं। केंद्र सरकार की नीतियां भी बिना राज्यों से सलाह किए बनाई जा रही हैं और उन्हें नहीं मानने या उनका विरोध करने पर राज्यों की चुनी हुई सरकार को देशद्रोही ठहराया जा रहा है। बीएसएफ का अधिकार क्षेत्र बढ़ाए जाने के मामले में राज्यों के विरोध पर केंद्र और भाजपा की प्रतिक्रिया इसकी मिसाल है। केंद्र सरकार की मनमानियों का नतीजा है कि आज केंद्र और राज्य के संबंध किसी भी समय के मुकाबले सबसे खराब स्थिति में हैं। प्रधानमंत्री ने भाजपा विरोधी पार्टियों को अपने, अपनी पार्टी और देश के दुश्मन के तौर पर चिन्हित किया है और प्रचारित किया। उसे खत्म करने का खुला ऐलान किया है और हर जगह डबल इंजन की सरकार का ऐसा प्रचार किया है, जैसे विपक्ष की सारी सरकारें जनविरोधी, देश विरोधी और विकास विरोधी हैं। प्रधानमंत्री की इस राजनीति ने विपक्षी पार्टियों को सोचने के लिए मजबूर किया। आज अगर प्रधानमंत्री पद की गरिमा दांव पर लगी है और राज्यों के साथ टकराव बढ़ा है तो उसके लिए जिम्मेदार पिछले करीब आठ साल की राजनीति है, जिसमें भाजपा और उसके शीर्ष नेतृत्व ने राजनीतिक प्रतिपक्ष को जानी दुश्मन बना दिया।
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