
संसद के शीतकालीन सत्र के समापन के बाद यह बहस फिर से शुरू हो गई है कि संसद चलाना बुनियादी रूप से किसकी जिम्मेदारी है? राज्यसभा में सत्तापक्ष के नेता पीयूष गोयल ने कहा कि अगर विपक्ष चाहता तो कार्यवाही सुचारू रूप से चल सकती थी। दूसरी ओर विपक्ष का कहना है कि संसद को सुचारू रूप से चलाना सरकार की जिम्मेदारी है और सरकार चाहती तो सुचारू रूप से कामकाज हो सकता था। यह सनातन बहस का विषय है और पिछले कई दशकों से उसी तरह से चल रही है, जैसे यह बहस कि पेड़ और बीज में से पहले क्या आया था। लेकिन दोनों पक्षों के दावों के बीच देखें तो ऐसा लग रहा है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने का तरीका बहुमत का है। इतने ज्यादा विवाद के बीच भी शीतकालीन सत्र में लोकसभा की उत्पादकता 82 फीसदी से ज्यादा रही, जबकि राज्यसभा में उत्पादकता 37 फीसदी ही रही। लोकसभा में उत्पादकता बेहतर इसलिए रही क्योंकि वहां सरकार के पास प्रचंड बहुमत है।
यह अलग बहस का विषय है कि प्रचंड बहुमत के दम पर जोर-जबरदस्ती सदन को चलाना लोकतंत्र और संसदीय परंपरा के लिए कितना अच्छा है। लेकिन हकीकत है कि पिछली दो लोकसभाओं में भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल रहा है और इस दम पर उसने मनमाने तरीके से सदन को चलाया है। कई बार तो निचले सदन की उत्पादकता सौ फीसदी से भी ज्यादा रही। यानी सदन में कामकाज तय समय से ज्यादा देर तक हुआ और ज्यादा हुआ। हालांकि इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि यह उत्पादकता बहुत सकारात्मक रही। क्योंकि ज्यादातर मामलों में विधायी कामकाज में विपक्ष की भूमिका कम होती जा रही है। सरकार विधेयकों पर चर्चा में विपक्ष की राय को तरजीह नहीं दे रही है और संसदीय समितियों की भूमिका को काफी हद तक सीमित कर दिया है। सरकार पहले संसद से बाहर अध्यादेश के जरिए कानून बना रही है और उसे संसद में पेश करके पास करा रही है। कम महत्व वाले बिल ही ऐसे होते हैं, जिनकी उत्पति संसद सत्र में होती है। ज्यादातर बड़े मामलों में सरकार पहले से कानून लागू कर चुकी होती है और उस पर संसद में मुहर लगाई जाती है।
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जहां तक संसद के अभी खत्म हुए शीतकालीन सत्र का सवाल है तो उसको बाधित करने का काम सरकार ने खुद ही कर दिया। सरकार ने सत्र के पहले दिन की कार्यवाही शुरू होने और कई घंटे चलने के बाद विपक्ष के 12 सांसदों को निलंबित करने का प्रस्ताव रखा, जिसे बिना वोटिंग के आसन ने स्वीकार कर लिया। सोचें, क्या इस तरह सरकार की मर्जी से चुने गए प्रतिनिधियों को सदन से निलंबित किया जा सकता है? विपक्ष के 12 सांसदों का निलंबन सरकार की मर्जी से हुआ, वह सदन की भावना नहीं थी। सरकार ने दिखावे के लिए भी सदन की राय लेने की जरूरत नहीं समझी।
पिछले मॉनसून सत्र के आखिरी दिन बीमा बल पर हुए हंगामे में 33 सांसदों के नाम थे, लेकिन किस आधार पर 12 लोगों को निलंबित करने के लिए चुना गया, यह नहीं बताया गया। उन 33 लोगों में सीपीएम के एलाराम करीम का नाम नहीं था, फिर उनको क्यों निलंबित किया गया, यह बताने की जरूरत भी नहीं समझी गई। पिछले सत्र के आखिरी दिन के कथित अशोभनीय आचरण के नाम पर इस सत्र में सरकार ने अपनी मर्जी से 12 सांसदों को निलंबित कर दिया। जाहिर है इसका मकसद विपक्ष को उकसाना था ताकि वह कार्यवाही बाधित करे और सरकार बिना चर्चा और वोटिंग के विधायी कामकाज पूरे करे। सरकार की यह रणनीति काम आई और उसने केंद्रीय एजेंसियों के प्रमुखों का कार्यकाल पांच साल तक बढ़ाने और चुनाव सुधार के विवादित बिल जैसे कई बिल बिना किसी चर्चा के पास करा लिए।
सबसे हैरानी की बात है कि बिल पेश होने के बाद सरकार के संसदीय मंत्री बुनियादी नियमों का भी ध्यान नहीं रखते हैं। जैसे चुनाव सुधार का बिल जब लोकसभा में पेश किया गया तो विपक्षी सांसदों ने इसमें संशोधन पेश करने की मांग की, जिसकी उनको मंजूरी नहीं दी गई। यह सामान्य नियम है कि विपक्ष के सांसद और कई बार सत्तापक्ष के सांसद भी संशोधन पेश करते हैं, जिसे स्वीकार किया जाता है या मतदान के जरिए खारिज कर दिया जाता है। लेकिन संशोधन पेश करना सदस्यों का अधिकार होता है। चुनाव सुधार बिल पर विपक्ष के सांसदों को संशोधन नहीं पेश करने दिया गया। इसी तरह यह बिल राज्यसभा में पेश हुआ तो वहां विपक्ष ने इसे संसदीय समिति को भेजने के लिए वोटिंग कराने की मांग की पर उसे भी ठुकरा दिया गया। सरकार ने विपक्ष के 12 सांसदों को निलंबित करा कर अपना बहुमत सुनिश्चित किया हुआ था इसके बावजूद विधेयक को संसदीय समिति में भेजने के मुद्दे पर वोटिंग नहीं कराई गई। यह संसदीय नियमों और परंपराओं की खुलेआम अनदेखी है, जिससे अंततः संवैधानिक व्यवस्था कमजोर हो रही है।
इसके बावजूद सरकार का आरोप है कि विपक्ष की वजह से संसद सत्र सुचारू रूप से नहीं चल पाया। यह सही है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने में विपक्ष की भी भूमिका होती है लेकिन केंद्रीय भूमिका सरकार की होती है। इसके लिए हर सरकार में ऐसे नेताओं को संसदीय कार्य मंत्री बनाया जाता है, जो विपक्ष की सभी पार्टियों के साथ तालमेल बनाए, उन्हें भरोसे में ले, उनकी राय को भी तरजीह दे, विपक्ष के उठाए विषयों पर चर्चा सुनिश्चित करे। लेकिन अगर संसदीय कार्य मंत्री को अपने बहुमत या सरकार की ताकत का अहंकार हो जाए और वह नियमों की बजाय सरकार के एजेंडे के हिसाब से संसद को चलवाए तो बात बिगड़ती है। दोनों सदनों के पीठासीन पदाधिकारियों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि पक्ष और विपक्ष में तालमेल बना रहे और कार्यवाही का सुचारू संचालन हो। लेकिन दुर्भाग्य से पिछले कुछ सत्रों से कुछ पीठासीन पदाधिकारियों का पूर्वाग्रह वाला रवैया दिखा है, जिससे आसन और सदन दोनों की गरिमा प्रभावित हुई है। इसे जितनी जल्दी हो बहाल करना चाहिए अन्यथा संसदीय कामकाज स्थायी रूप से संदेह के घेरे में रहेगा और संसद से बनने वाले कानून भी पूर्वाग्रह वाले माने जाएंगे, जिससे लंबे समय में विधायिका और कार्यपालिका दोनों पर अविश्वास बनेगा।