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पर अमित शाह के रहते योगी भला कैसे?

हां, स्वाभाविक है सोचना कि दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साये के अमित शाह के रहते भला योगी आदित्यनाथ के प्रधानमंत्री बनने के कहा अवसर हैं? पूरे देश में नंबर दो के नाते, नरेंद्र मोदी के साये के नाते यदि अमित शाह हैं, और उस कारण उनका अपना शक्ति पीठ है तो गौरखपुर के योगी कहां टिकेंगें? अपनी जगह बात ठीक है। लेकिन सन् 1947 में भारत राष्ट्र-राज्य की जो जन्मपत्री बनी थी उसमें अभी तक तो यह योग नहीं हुआ कि जो प्रधानमंत्री का साया, नंबर दो था वह कभी प्रधानमंत्री बना हो। अटल बिहारी वाजपेयी के नंबर दो न लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री बने और न पंडित नेहरू के नंबर दो गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा प्रधानमंत्री बने और न लालबहादुर शास्त्री को भारत-पाकिस्तान युद्ध में विजय दिलाने वाले रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण प्रधानमंत्री हुए। किसी भी पार्टी में सत्ता का ट्रांसफर उस नेता को कभी नहीं हुआ जो प्रधानमंत्री का साया था या नंबर दो था।

इस हकीकत को संभवतया अमित शाह ने भी नहीं सोचा होगा। उन्हें अंदाज नहीं है कि जो नंबर दो होता है, जो प्रधानमंत्री का साया होता है वह प्रधानमंत्री की अच्छाई-बुराई की छाया लिए होता है इसलिए आगे के लिए अनफिट। इसलिए संभव नहीं है जो नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के फैसले का जब वक्त आएगा तब कसौटी में यह नहीं सोचा जाए कि यूपी में योगी जीता सकते हैं या अमित शाह?

दूसरी बात, अगला प्रधानमंत्री उन बातों से कितना दूर और अलग है, जिससे मोदी का राज बदनाम हुआ? जैसे गौतम अडानी, कारोबारी तासीर, गुजरात की बैकग्राउंड आदि, आदि।

वैसे अमित शाह की नंबर एक खूबी है कि वे बेधड़क हैं। उनमें यह आत्मविश्वास अब शिखर पर होगा कि राजनीति में सब कुछ संभव है। भाग्य को भी मनमाफिक बनाया जा सकता है। पैसे, मीडिया, पूजा-पाठ और प्रबंधन से जैसे नरेंद्र मोदी सोचते हैं कि दुनिया का राजा बना जा सकता है तो अमित शाह भी उनके साये में रहते-रहते दिल्ली की सत्ता का भाग्यविधाता बनने का आत्मविश्वास नहीं बनाए हुए हों यह संभव नहीं।

मगर मैं इंदिरा गांधी के 1975 के वक्त से भारत के सियासी भाग्य का यह सत्य बूझे हुए हूं कि प्रधानमंत्री हमेशा वहीं बना है, जिसका अपना खुद का, स्वनिर्मित ठोस जन आधार वाला प्रदेश हो। जैसे नरेंद्र मोदी का गुजरात था और है। दूसरी बात नरेंद्र मोदी अपने उत्तराधिकार में विरासत के लिए गुजराती अमित शाह का फैसला करें, यह उनकी इतिहास पुरूष बने रहने की ललक में वैसे ही संभव नहीं है, जैसे गांधी के लिए सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाना संभव नहीं था। तीसरी बात, नरेंद्र मोदी निश्चित ही इसलिए योगी आदित्यनाथ को गद्दी देना चाहेंगे क्योंकि अयोध्या के रामजी की परंपरा के रघुकुल वंशज में योगी की शपथ से हिंदूशाही में उनकी कीर्ति वैसे ही स्थापित होगी जैसे पंडित नेहरू से महात्मा गांधी की हुई।

और भी कई बातें हैं जो योगी के हिंदू राष्ट्र सपने में उनके अनुकूल हैं जो मोदी के साये में रहने के कारण अमित शाह के लिए बस की बात नहीं है। पर इनके खुलासे में फिर योगी पर बहुत कुछ लिखना होगा।

संभव है आपको ये बाते बेतुकी लगें। कह सकते हैं कि काले-सफेद में सीधे मोदी के बाद अमित शाह का जैसा परसेप्शन बना है वही भविष्य की रियलिटी है। फिर भाजपा में कुछ लोग सोचते हैं कि यूपी तक के लिए योगी ठीक हैं। मगर दिल्ली के लिए नहीं। क्योंकि भगवाधारी बाबाजी के प्रधानमंत्री कुर्सी पर बैठने से भारत की अंतरराष्ट्रीय इमेज क्या बनेगी! कैसे देश चलेगा?

सब फालतू बातें। दुनिया के लिए कोई अर्थ नहीं है कि हिंदुस्तान के तख्त पर कौन बैठता है। दिल्ली पर रजिया सुल्तान ने भी राज किया था यदि राबड़ी देवी भी प्रधानमंत्री बनतीं तो वे भी हिंदुओं की विश्वनेत्री होतीं। देवगौड़ा, गुजराल, नरेंद्र मोदी, योगी, अमित शाह या एक्सवाईजेड कोई भी हिंदुओं का राजा बने, इससे दुनिया की सेहत पर असर नहीं होता है। भारत पहले भी अजूबा था, आज भी अजूबा है और भविष्य में भी रहेगा। मोटा-मोटी योगी आदित्यनाथ भारत के प्रधानमंत्री हुए तो हिंदू, जहां उनसे विश्व गुरूता टपकती बूझेंगे वहीं दुनिया के लोग उनसे वैसे ही शांति और ज्ञान पाठ सुनेंगे जैसे इन दिनों नरेंद्र मोदी से सुनते हैं।

कुल मिलाकर, योगी आदित्यनाथ का शक्ति पीठ अब हिंदू भक्तों का नंबर एक सियासी पीठ है। इसलिए उन्होंने दिल्ली के फैसले के वक्त जब भी अंगद के पाव की तरह अपना पांव टिकाया तो उनके आगे मोदी, शाह और संघ परिवार का समर्पण गारंटीशुदा है।

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Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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