बेबाक विचार

सिरफिरों की सनक से सावधान होने का समय

Byपंकज शर्मा,
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सिरफिरों की सनक से सावधान होने का समय
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों के ज़िन्न ने केजरीवाल का सिर जिस तरह फिरा दिया है, उसे देख कर; आप कितने हैं, मुझे नहीं मालूम; मैं तो एकदम भौचक हूं। यह तो मैं जानता था कि केजरीवाल का राजनीतिक जन्म संघ-कुनबा समर्थित तथाकथित जन-आंदोलन के गर्भ से हुआ है। यह भी मुझे मालूम था कि वे भाजपा की बी-टीम हैं। मगर इसका अंदाज़ मुझे नहीं था कि ‘बी’ से ख़ुद ही ‘ए’ बनने की ललक उन्हें इतने सडांध भरे पतनाले के हवाले कर देगी। मैं अब पूरी तरह आश्वस्त हूं कि भारत की राजनीतिक गंगा को प्रदूषित करने में केजरीवाल का योगदान नरेंद्र भाई से कई गुना ज़्यादा साबित होने वाला है। यह भारतीय राजनीति में ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ (कलि) युग है। 2014 की गर्मियों में रायसीना पर्वत पर आसीन होने के बाद से नरेंद्र भाई मोदी ने सियासी नक्शे से मुस्लिम-विमर्श के मायने इस कदर बदल डाले हैं कि वैकल्पिक राजनीति के पुरोधा बनने के लिए इंकलाबी नारे लगाते हुए अपने घरों से निकले सूरमा भी आज मिमियाते घूम रहे हैं। किसी-न-किसी तरह चुनाव जीतने की हवस के चलते अच्छे-अच्छों को अपनी दुमें टांगों के बीच दबा कर जीभें लपलपाते देख आपको कैसा लग रहा है? अपने को हिंदू हृदय सम्राट समझने वाले नरेंद्र भाई ने अगर सत्ता हथियाते ही देश पर ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ थोपने के लिए कमर कस ली तो इसमें मैं उनका कोई दोष नहीं मानता हूं। उनसे और क्या उम्मीद थी? उन्हें यही करना था। वे देश के प्रधानमंत्री बने होते तो बात अलग थी। वे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री बने थे। सो, उनके ज़िम्मे एक सुदृढ़ और सर्वसमावेशी भारत-गणराज्य का निर्माण करने के बजाय हिंदू-राष्ट्र की स्थापना का काम था। पिछले 2857 दिनों का एक-एक पल उन्होंने इसी की निर्मम बिसात बिछाने में बिताया है। नरेंद्र भाई मेरे हिसाब से ग़लत कर रहे हैं। मगर वे अपने हिसाब से सही कर रहे हैं। उन्हें अपना कर्म करने का हक़ है। मुझे अपनी सोच पर टिके रहने का अधिकार है। उनके काम को मैं चाह कर भी रोक नहीं सकता। उनकी मेहरबानी है कि मुझे अपनी राय पर कायम रहने में अभी तक तो उन्होंने कोई प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया नहीं है। सो, हम दोनों अपने-अपने सुख की कोठरियों में पांव पसार कर मस्त पड़े हैं। वे हर रोज़ हमारे लोकतंत्र की दीवार से एक ईंट खिसका कर उसे अपनी वैचारिक ज़िद की सिल्ली से प्रतिस्थापित कर देते हैं और मैं यहां-वहां असहमति में अपना हाथ उठा कर विरोध दर्ज़ कराने का स्वयंभू कर्तव्य पूरा कर लेता हूं। हम दोनों का काम मज़े में चल रहा है। मेरा विरोध भले ही बेहद अप्रासंगिक हो चुके मंचों पर हो रहा हो, मगर इससे इतनी हताशा मुझ में अभी नहीं व्यापी है कि मैं ख़ुद को नरेंद्र भाई से बड़ा हिंदू साबित करने के चक्कर में अपनी स्थिति अरविंद केजरीवाल की तरह दयनीय बना लूं। मेरे पास, ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा’ से अधबुनी ही सही, अगर एक आम आदमी पार्टी होती तो मैं अपनी हालत ऐसी नहीं होने देता कि लोग थू-थू भाव से मेरी तरफ़ देखने लगें। तुक्के में ही सही, अगर दो राज्यों में मेरे राजनीतिक दल की सरकारें बन गई होतीं तो नीचे गिरने की होड़ में किसी से आगे निकलने के लिए मैं ऐसी बातें कतई न करता कि लोग मेरी मनःस्थिति पर तरस खाने लगें। लेकिन गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों के ज़िन्न ने केजरीवाल का सिर जिस तरह फिरा दिया है, उसे देख कर; आप कितने हैं, मुझे नहीं मालूम; मैं तो एकदम भौचक हूं। यह तो मैं जानता था कि केजरीवाल का राजनीतिक जन्म संघ-कुनबा समर्थित तथाकथित जन-आंदोलन के गर्भ से हुआ है। यह भी मुझे मालूम था कि वे भाजपा की बी-टीम हैं। मगर इसका अंदाज़ मुझे नहीं था कि ‘बी’ से ख़ुद ही ‘ए’ बनने की ललक उन्हें इतने सडांध भरे पतनाले के हवाले कर देगी। मैं अब पूरी तरह आश्वस्त हूं कि भारत की राजनीतिक गंगा को प्रदूषित करने में केजरीवाल का योगदान नरेंद्र भाई से कई गुना ज़्यादा साबित होने वाला है। इसलिए कि केजरीवाल की तरह नरेंद्र भाई उलट वैचारिक मुखौटा लगा कर सत्तासीन नहीं हुए। वे हिंदू-हिंदू का शंख खुलेआम बजाते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचे। उन्होंने अच्छे दिन लाने का झांसा दिया। उन्होंने सब्ज़बाग़ दिखाए। मगर उन्होंने यह कभी नहीं छिपाया कि वे भारतीय समाज के एक समूचे समुदाय को पूरी तरह हाशिए पर धकेल देने का संकल्प लेकर मैदान में निकले हैं। केजरीवाल राजनीति का एक नया ककहरा लिखने का मुखौटा लगा कर सड़कों पर आए थे। वे साधनों की शुचिता का मंत्रोच्चारण करते-करते आम आदमी के मन में उतरे थे। वे धर्म-समुदाय से परे सभी के हक़ों की लड़ाई लड़ने का दम भरते नहीं अघाते थे। फिर क्या हुआ? यह हुआ कि अण्णाओं का पल्ला झटक कर केजरीवाल की सियासत गुप्ताओं, मित्तलों, साहनियों और अरोड़ाओं की गोद में जा कर बैठ गई। बिलकिस बानो प्रसंग में उनके होंठ सिल गए। वे हनुमान भक्ति जैसी अपनी निजी धार्मिक आस्थाओं का भोंडा हल्लागुल्ला मचाने लगे। जन्माष्टमी के दिन ख़ुद का जन्म होने का बेहूदा बखान कर कंसों का नाश करने के लिए भुजाएं फड़काने लगे। नरेंद्र भाई के अनुचर उन्हें शिव का अवतार बताते हैं। केजरीवाल के टहलुए उन्हें कृष्ण का अवतार बताने लगे। अपने को नरेंद्र भाई से बड़ा हिंदू साबित करने की सनक में केजरीवाल ने भारतीय मुद्रा पर गणेश जी और लक्ष्मी जी की तसवीरें छापने का धूर्तता भरा शोर मचाना भी शुरू कर दिया। क्या आपको लगता है कि गुजरात, हिमाचल प्रदेश और अंततः संपूर्ण भारत के हिंदू इतने जड़-बुद्धि हैं कि केजरीवाल की इन जाहिल हरकतों के चलते नरेंद्र भाई की जगह उन्हें हिंदू हृदय सम्राट घोषित कर देंगे? वोट-राजनीति पर नज़र गड़ाए बैठे केजरीवाल को उनकी झौंक यह समझने ही नहीं दे रही है कि वे दरअसल अपना चमगादड़ीकरण कर रहे हैं। हिंदुत्व की ठेकेदारी-समूह के मुखिया फ़िलहाल नरेंद्र भाई हैं। वे इस वक़्त हिंदुत्व के मोहन भागवत से भी बड़े ठेकेदार हैं। वे अपने को चारों शंकराचार्यो से भी बड़े पीठाधीश्वर की तरह स्थापित करने के लिए दिन-रात दौड़ रहे हैं। केजरीवाल के छिटपुट करतब हिंदुत्व के नेतृत्व की आसंदी में कहां से सेंध लगा पाएंगे? उनकी इस ख़ामख़्याली से तो दरअसल गुजरात और हिमाचल में आम आदमी पार्टी की चुनावी संभावनाएं नीचे लुढ़कने लगी हैं। जिनकी निष्ठा केजरीवाल में नहीं, आम आदमी की पक्षधर वैकल्पिक राजनीति में है, उन्हें केजरीवाल की सनक से सावधान हो जाना चाहिए। एक व्यक्ति का वैचारिक पतन बहुत बार समूची सांगठनिक संरचना की पतनगाथा लिख देता है। मुझे लगता है कि आम आदमी पार्टी उस दिशा में बढ़ रही है। केजरीवाल के निजी व्यक्तित्व की ख़ामियां आम आदमी के हक़ की वैकल्पिक राजनीति के सार्वजनीन विचार पर हावी होता जा रही हैं। इससे कहीं केजरीवाल के चेहरे की अस्वीकृति के साथ ही आम आदमी की पक्षधर सियासत करने को निकली एक प्रासंगिक इत्तिहादी इकाई का अंतिम विदा गीत भी न बजने लगे! ऐसा हुआ तो किसी मनीष सिसोदिया, किसी संजय सिंह और किसी भगवंत मान की बाहें डूबती नैया की पतवारें नहीं थाम पाएंगी। सो, समय आ गया है कि आम आदमी पार्टी सामूहिक नेतृत्व की बुनियाद को ठोस बनाने में जुट जाए। देश सियासी बदलाव के प्रतीक्षालय में बैठा है। नरेंद्र भाई भी यह बात समझ गए हैं। इसलिए उनके दिन-रात अब इस उधेड़बुन में बीत रहे हैं कि ऐसा जालबट्टा कैसे बिछाएं कि वैचारिक विकल्प और भी तेज़ी से भोथरे होते जाएं और वैकल्पिक चेहरे पनप न पाएं। अपनी इस कोशिश में वे अभी तक तो पूरे सफल हैं। नरेंद्र भाई की चिलम से उठ रहे धुंए के असर में सिरफिरी होती जा रही प्रतिपक्षी राजनीति देश का दुर्भाग्य है। बदक़िस्मती की यह लकीर खुरचे बिना अब कुछ नहीं होने वाला। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)
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