बेबाक विचार

अकादमिक स्वतंत्रता का सूरतेहाल

ByNI Editorial,
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अकादमिक स्वतंत्रता का सूरतेहाल
अब तक अगर किसी को भ्रम रहा होगा कि देश में अकादमिक स्वतंत्रता का माहौल कायम है, तो उसे भी अशोका यूनिवर्सिटी की ताजा घटनाओं से जरूर झटका लगा होगा।  सवाल यह है कि अगर निजी फंड से चलने वाली संस्थाएं भी अपनी फैकल्टी को स्वतंत्र माहौल उपलब्ध नहीं करवा पा रही हैं, तो सरकारी संस्थाओं से क्या उम्मीद की जाएगी, जिनके संसाधन ही सरकार मुहैया करवाती है? अशोक यूनिवर्सिटी से इस्तीफा देने वाले दोनों बड़े नाम ऐसे नहीं हैं, जिन्हें आरएसएस या नरेंद्र मोदी का ‘पैथोलॉजिकल विरोधी’ माना जाए। आखिर मेहता ने 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने का दिल खोलकर स्वागत किया था। अरविंद सुब्रह्मण्यम तो मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में उसके प्रमुख आर्थिक सलाहकार थे। लेकिन उन्हीं सुब्रमण्यम ने अशोका यूनिवर्सिटी से इस्तीफ़ा देते हुए कहा कि प्रताप भानु मेहता का इस्तीफ़ा दिखाता है कि ‘निजी ओहदे और निजी वित्त’ भी विश्वविद्यालय में अकादमिक अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं। पिछले साल जुलाई में सुब्रमण्यम ने यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र विभाग में बतौर प्रोफेसर पढ़ाना शुरू किया था। वे यूनिवर्सिटी के अशोका सेंटर फॉर इकोनॉमिक पॉलिसी के संस्थापक भी रहे। इससे पहले प्रतिष्ठित राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार प्रताप भानु मेहता ने प्रोफेसर पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके दो साल पहले उन्होंने यूनिवर्सिटी के कुलपति के पद से त्यागपत्र दे दिया था। बीते कुछ सालों में मेहता केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा की राजनीति की आलोचना कर रहे थे। अपनी शैली के मुताबिक उनका हमला तीखा होता है। ये बात विश्वविद्यालय को भारी पड़ने लगी। हालांकि यूनिवर्सिटी की ओर से बस इतना कहा गया कि कुलपति और फैकल्टी मेंबर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मेहता ने विश्वविद्यालय में बहुत योगदान दिया है। लेकिन मेहता ने कहा कि उनका वहां में बने रहना यूनिवर्सिटी के लिए असहज स्थितियां पैदा कर रहा था। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक मसला यह था कि यूनिवर्सिटी के ट्रस्टीज़ मेहता के अख़बारों में लेखन को लेकर खुश नहीं थे। ऐसे में मेहता को लिखना छोड़ने से बेहतर पहले कुलपति पद और फिर पूरी तरह यूनिवर्सिटी को ही छोड़ना लगा। अरविंद सुब्रमण्यम ने इस संदर्भ में कुलपति मालबिका सरकार को जो पत्र लिखा, उससे ऐसा लगता है कि मेहता को ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया। अब इसके बाद देश में अकादमिक स्वतंत्रता की तमाम बातें बेमायने हो जाती हैं।
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