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हम हिंदू कितना बरदाश्त कर सकते हैं?

वैश्विक पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट’ में जलवायु परिवर्तन को ले कर एक रिपोर्ट छपी है। शीर्षक है ‘मानव के सहने की सीमा’ (At the limits of human endurance)। हां, इक्कीसवीं सदी में यह जरूरत है जो पृथ्वी की बरबादी के परिणामों में मनुष्य के बरदाश्त करने की सीमाओं पर विचार हो? पत्रिका ने भारतीय उपमहाद्वीप में सिंधु-गंगा घाटी में रहने वाले 70 करोड़ लोगों के गर्मी बरदाश्त कर सकने की सीमा पर विचारा है। इसमें मुझे ‘बरदाश्त कर सकने’ का जुमला सोचने लायक लगा। यों मेरा मानना यह भी है कि बाकी दुनिया को दक्षिण एशिया के लोगों पर सोचने की जरूरत नहीं है। इसे इलाके के लोग बरदाश्त करके मरने तक या नारकीय जीवन जीने का स्वभाव और मनोदशा लिए हुए हैं। गर्मी, सर्दी, प्रलय, महामारी और पृथ्वी के खत्म होने की चिंता दुनिया करे दक्षिण एशिया के लोगों ने तो अपने को भाग्य, ईश्वर-अल्लाह की नियति में सुपुर्द कर रखा है। लोग मरें तो मरें किसे फर्क पड़ता है। 

जाहिर है मैं पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश के अतीत जन्य कुल हिंदू डीएनए की तासीर में जलवायु परिवर्तन पर सोचता हुआ हूं। सिंधु-गंगा घाटी पर गर्मी की मार बाद की बात है। बुनियादी बात लोगों के जीने का मिजाज है। सोचें, 75 सालों से पूरा दक्षिण एशिया क्या लोगों द्वारा अंतहीन बरदाश्त करने का अनुभव लिए हुए नहीं है? आजादी के बाद तीनों देशों के अनुभवों, कुल विकास, लोगों के जीवन ढर्रे, लीडरशीप और इकोनॉमी सबमें क्या एक सी ही दशा नहीं है? 1947 में दक्षिण एशियाई देश कमोबेश चीन के साथ आजाद हुए। तब दक्षिण एशिया से ज्यादा चीन पिछड़ा और अराजक था। लेकिन आज चीन क्या और पूऱा दक्षिण एशिया कहां? पूरा दक्षिण एशिया चीन की आर्थिकी का उपनिवेश है। चीन 2021 में एक अरब 41 करोड़ आबादी लिए हुए था। वही भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल सहित दक्षिण एशिया की भीड़ तब एक अरब 90 करोड़ थी। लेकिन चीन से बड़ी आबादी वाले इस दक्षिण एशिया की आर्थिकी का आकार उससे लगभग पांच गुना छोटा है। 

तो पहली बात, सिंधु-गंगा-यमुना का मैदान-डेल्टा हिंदू मिजाज में जीने का स्वभाव वाला है। दूसरी बात यह इलाका यदि जलवायु परिवर्तन के भीषण प्रभावों की मार का शिकार भी हो तब भी पृथ्वी का लावारिस क्षेत्र होगा। मनुष्य जिंदगी का न मान, सम्मान और अर्थ है न बुद्धि संवेदक है। इसलिए लंदन की पत्रिका का इन गर्मियों में सिंधु-गंगा घाटी के 70 करोड़ लोगों की चिंता करना फिजूल है। भारत की चिंता करते हुए लंदन वाले भले यह अल्टीमेट सोचें कि मनुष्य कितना बरदाश्स्त कर सकता है पर अखंड भारत के लोग सदियों से जैसे जी रहे हैं वैसे जीते रहेंगे। दुनिया अपनी चिंता करें दक्षिण एशिया की कतई न करे। 

सो, हिंदू नस्ल के बरदाश्त करने की सीमा अंतहीन है। याद करें, गुजरे साल कितने महीने और अभी भी पाकिस्तानी लोग बाढ, भूख, बेहाली में जिंदगी जी रहे हैं? कैसे भारत में गंगा-यमुना के मैदान के लोगों ने कोविड महामारी के वक्त में ऑक्सीजन की कमी से फड़फड़ाते हुए जान गंवाई थी? मगर क्या हिंदुओं में उसकी अब याद भी है और है तो कैसी? लोग हजार साल गुलामी में जीये, क्या किसी को गुलामी याद है? आज भारत में कितने मनुष्यों के पंख स्वतंत्रता के लिए फड़फड़ाते हुए हैं? सोचें, अफगानिस्तान दो साल से जंगली हुकूमत में जी रहा है तो वहां लोग क्या स्वतंत्रता की चाहना में फड़फड़ा रहे हैं? इसलिए क्योंकि पूरा इलाका मनुष्य जीवन में पशु अस्तित्व से भी अधिक बरदाश्त करने का ठूंठपना पाए हुए है। दक्षिण एशिया में लोग उस भाग्य, नियति, परमात्मा की धारणा में विश्वास करते हैं, जिसमें महामारी, बाढ़ या भीषण गर्मी या प्रलय सब ईश्वर और अल्लाह की मर्जी है!

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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