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कानून को अलविदा

कानून के राज का बुनियादी सिद्धांत यह है कि कानून सबके लिए बराबर है। इसी के साथ उचित प्रक्रिया का प्रश्न जुड़ा हुआ है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि उचित प्रक्रिया के पालन का सब्र अपने समाज में चूकता चला जा रहा है।

अतीक अहमद को अंदेशा था कि अगर उसे उत्तर प्रदेश ले जाया गया, तो उसकी जान नहीं बचेगी। गुजरात की एक जेल में बंद अहमद ने इसीलिए उसने सुप्रीम कोर्ट याचिका दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि ‘उसकी हिफाजत का ख्याल सरकारी मशीनरी’ करेगी। लेकिन सरकारी मशीनरी ऐसा कर नहीं पाई। इस रूप में उसने सुप्रीम कोर्ट का भरोसा भी तोड़ा है। क्या अब यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह अहमद और उसके भाई की लाइव टीवी कैमरों के सामने पुलिस की हिरासत में हुई सनसनीखेज हत्या हो जाने देने के लिए दोषी लोगों की जवाबदेही तय करे और अपनी देखरेख में मुकदमा चलवा कर उनकी उचित सजा तय करे? हैरतअंगेज है कि इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत भी पुलिस हिरासत में उमेश पाल हत्याकांड के गवाहों की हत्या से हुई थी। लेकिन तब राज्य सरकार ने अति सक्रियता दिखाई। उस हत्या के लिए अतीक अहमद के परिवार को दोषी माना गया। कुछ ही रोज पहले अतीक के बेटे और एक अन्य नौजवान को पुलिस ने “मुठभेड़” में मार गिराया। उसके बाद यह घटना हुई है। उत्तर प्रदेश के कई मंत्रियों और सत्ताधारी भाजपा के नेताओं ने यह कहते हुए भी कि पुलिस हिरासत में ऐसा नहीं होना चाहिए था, अतीक और उसके भाई की हत्या को उनके ‘किए का फल’ बताया है।

यह टिप्पणी कानून की उनकी उस परिभाषा और व्याख्या के अनुरूप ही है, जिसके तहत इंस्टैंट जस्टिस को उत्तर प्रदेश में अघोषित राजकीय नीति बना रखा गया है। आरोप है कि यह जस्टिस कब और किसके साथ होगा, यह कथित अपराधी के संप्रदाय से तय हो रहा है। लेकिन यह किसी भी रूप में कानून का राज नहीं है। कानून के राज का बुनियादी सिद्धांत यह होता है कि कानून सबके लिए बराबर है और सभी- चाहे वे किसी हैसियत के हों- कानून के अधीन हैं। इसी के साथ उचित प्रक्रिया का प्रश्न आता है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि उचित प्रक्रिया के जरिए इंसाफ का इंतजार करने के लिए जरूरी सब्र अपने समाज में चूकता चला जा रहा है। यह कानून को अलविदा कहने जैसा है।

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