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मोदी पर फिल्मः छापे के बदले छापा

दिल्ली और मुंबई के बी.बी.सी. दफ्तरों पर भारत सरकार ने जो छापे मारे हैं, उन पर भारत के विरोधी दलों ने काफी खरी-खोटी टिप्पणियां की हैं लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि यह छापे के बदले छापा है। मोदी सरकार लाख सफाई दे कि यह बी.बी.सी. पर आयकर विभाग का छापा नहीं है, सिर्फ सर्वेक्षण है लेकिन सबको पता है कि यह छापामारी उस फिल्म के जवाब में हुई है, जो बी.बी.सी. ने ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ के नाम से छापामारी की है।

मोदी सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया है। अब यह न तो हमारे सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है और न ही उसे आप आनलाइन देख सकते हैं। ‘पठान’ नामक फिल्म पर भी काफी एतराज हुए थे लेकिन जब वह चली तो ऐसी चली कि वह अपनी दौड़ में आज तक की सभी फिल्मों से आगे निकल गई है। अब इस मोदी फिल्म पर सरकार ने छापा मारा है तो वह पूछ सकती है कि क्या इस फिल्म ने मोदी पर छापा नहीं मारा है? जिस दुर्घटना को बीते हुए दो दशक हो गए, उसे बी.बी.सी. ने किसलिए याद किया है? क्या लंदन की यह आकाशवाणी भारत में दुबारा दंगे करवाना चाहती है? 2002 के गुजराती रक्तपात के बाद देश में दंगे लगभग नगण्य हो गए हैं तो फिर उन्हें याद करवाने का मकसद क्या है?

मोदी को ‘मौत का सौदागर’ सिद्ध करने के पीछे असली मकसद क्या है? क्या बी.बी.सी. भारत में 1947 को दोहरवाने की फिराक में है? यदि भारत में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की पुरानी ब्रिटिश राजनीति फिर चल पड़ी तो क्या होगा? उस समय भारत की जमीन के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब उसके दिलों के सौ टुकड़े हो सकते हैं। इसीलिए ऐसी फिल्में, ऐसी किताबें, ऐसी तेहरीकें किसी काम की नहीं। लेकिन उन पर प्रतिबंध लगाना तो और भी उल्टा सिद्ध हो सकता है।

अब जो लोग मोदी के अंधभक्त हैं, वे भी उसे चोरी-छिपे देखने की कोशिश करेंगे। दूसरे शब्दों में हमारी सरकार जान-बूझकर बी.बी.सी. का मोहरा बन रही है। हमारे कुछ पत्रकार संगठन भी खीज रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। देश में इंदिरा गांधी का आपात्काल फिर से शुरु हो रहा है। जो पत्रकार लोग डरपोक हैं, उन्हें तो हर सरकार आपात्काल की माता मालूम पड़ती है और जिन अखबारों और टीवी चैनलों की चड्डियां पहले से गीली हैं, उन्हें डर लगता है कि कहीं उन पर भी छापा न पड़ जाए। जै

से आप डरपोक हैं, यह सरकार भी उतनी ही डरपोक है। सरकारें डर के मारे छापे मारती हैं और पत्रकार डर के मारे खुशामद करते हैं। यदि सरकार बी.बी.सी. की इस फिल्म पर प्रतिबंध नहीं लगाती तो इसकी थोड़ी-बहुत चर्चा होकर रह जाती लेकिन सरकार में बैठै हुए हमारे नेता लोग कोई ईसा मसीह तो हैं नहीं कि वे अपने ‘हत्यारो’ (आलोचकों) के लिए ईश्वर से कहें कि ‘इन्हें माफ कर देना, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं?’

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By वेद प्रताप वैदिक

हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।

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