बेबाक विचार

कभी कोशिश नहीं तो अब कैसे?

Share
कभी कोशिश नहीं तो अब कैसे?
hindoo-buddhi-ka-kaayaakalp : भारत कलियुगी-  कैसे हो हिंदू बुद्धि का कायाकल्प? : जरा ज्ञात इतिहास के पन्ने पलटें। ढूंढें कब हिंदुओं में अपने को बदलने की जिद्द बनी? क्या कभी कलियुग मिटाने का धर्म संकल्प हुआ? क्या जाति-वर्ण-वर्ग-असमानता मिटाने का सामाजिक आंदोलन हुआ? गरीबी मिटाने का कोई राजनीतिक भूचाल आया? स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा बनवाने के लिए कभी हुक्मरानों के खिलाफ विद्रोह हुआ? क्या इस सबकी जरूरत नहीं थी, क्या आज नहीं है?.....इन सवालों के बीच का सत्य हिंदुओं का यह मानना है कि हमारे बस में नहीं बल्कि कलियुग मिटाने के लिए ईश्वर का अवतार होगा।....तभी ज्ञात इतिहास में कोई महानायक नहीं है जिससे उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सर्वत्र परिवर्तन का भभका बना हो। इस प्रसंग में बुद्ध और आदि शंकराचार्य फिट नहीं हैं। पूरे इतिहास में हमें न परिवर्तनकारी नेतृत्व मिला है, न स्वयंस्फूर्त रेनासां-पुनर्जगारण की भूख बनी और न विद्रोह का जज्बा। ऐसा हिंदू शरीर की कलियुगी आत्म-केंद्रित धारणाओं से है। सेल्फ-सेंटर्ड जीवन दृष्टि और मान्यताओं ने मौका बनने ही नहीं दिया जो परिवर्तन का हुंकारा बने, सुधारों की आंधी आए। उलटे, जिनसे उम्मीद थी वे भी लोक मान्यताओं के बंधक हुए।

यह भी पढ़ें: पहले पाए इस जैविक रचना से मुक्ति

बतौर मिसाल गांधी की लीडरशीप पर गौर करें। ब्रिटेन की शिक्षा-सूट-बूट के बाद वे अर्ध-नग्न फकीर क्यों बने? ताकि हिंदू मान्यताओं में वे स्वीकार्य और लोकप्रिय हों। गांधी ने व्रत-उपवास-अहिंसा-भजन-कीर्तन-फकीर-संत होने के वे सब उपक्रम इसलिए किए ताकि वे हिंदू मानस में साबरमती के संत के रूप में अधिस्थापित हों। जाहिर है गांधी का नेतृत्व पहले हिंदू माफिक अपने को बनाने का और फिर अपनी मान्यताओं, सेल्फ-सेंटर्ड दृष्टि में लोगों को अनुयायी बनाने का था। हां, कलियुगी बुद्धि में हिंदू को दो ही रूप मान्य हैं। या तो विष्णु भगवान का अवतारी राजा रूप या वैरागी फकीर का रूप। तभी एक तरफ नेहरू के ठसके में ये किंवदंतियां थीं कि उनके कपड़े विलायत से धूल कर आते हैं तो वीपी सिंह हों या नरेंद्र मोदी ये अपने राजा नहीं फकीर के हल्ले, इमेज में हिंदुओं को हिपनोटाइज्ड कर नेतृत्व का तमाशा बना बैठे। सो, कलियुगी हिंदुओं को वक्त की कसौटी का आधुनिक और परिवर्तनकारी नेतृत्व कभी नहीं मिला! कारण फिर वहीं कि सेल्फ-सेंटर्ड जीवन दृष्टि और मान्यताओं में बुद्धि का बंधा होना। तभी रास्ता नहीं सूझता कि कलियुगी बुद्धि कैसे सुधरे? बिना नेतृत्व के, बिना वैचारिक झंझावत और नए तौर-तरीकों के परिवर्तन संभव नहीं है। शरीर जीवन की दृष्टि में मान्यताओँ की बेड़ियों का वह मायावी जाल बना हुआ है कि सुधारक खुद मूर्ति और फकीर बन जाते हैं। सुधार की कोशिश, विचार और वाणी का हर प्रयास मठ और मूर्ति में परिवर्तित होता है। जिन्होंने मूर्ति पूजा के विरोध में आंदोलन बनाया, ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह किया वे भी मूर्ति बन गए और विद्रोही जातियों ने बुद्धि (ब्राह्मण) के अपने नए देवता बना लिए। कह सकते हैं वक्त की परिवर्तन कोशिशों को धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक कलियुगी मकड़जाल लगातार ऑटो मोड में मारता जाता है।

यह भी पढ़ें: पहले पाए इस जैविक रचना से मुक्ति

hinduism religion दरअसल धर्म संगठित, एक भगवान, एक पुस्तक, एक मिशन याकि एक वेटिकन-एक पोप, एक दारूल-इस्लाम जैसे मिशन में बंधा नहीं है और धर्म जीवन आत्म-केंद्रित स्वंयभू एकांगी रवैये में ढला है तो न सामूहिक चेतना व जोर-जबरदस्ती संभव है और न फतवा चलेगा। कारण निज मान्यता-आस्था-भक्ति-इच्छा या मजबूरी का हो या जाति व आईडेंटिटी के कीड़ों का, नस्ल स्वंयभू एकांगी स्वार्थों और पाखंडों में बिखरी हुई है। हर व्यक्ति हजारों सालों की गुलामी-अज्ञानता से कुंठा, भूख-भय और झूठ के चक्र में फंसा है तभी उसके दिमाग, दिल और शरीर में सुधार-परिवर्तनों के लिए न जगह बनती है और न चाह! 1947 के बाद के कलियुग अनुभव पर गौर करें। आजादी मतलब हिंदू इतिहास का अभूतपूर्व अवसर। लेकिन राजा और प्रजा द्वारा उसका क्या हश्र बना?... अवसर में कैसा हमारा व्यवहार है? जवाब है- मेरा क्या?.. मुझे क्या मिला?...और मेरी जो मान्यता, मेरी जो सनक, मेरे अपने स्वार्थ में हाकिम लोग जहां प्रजा को इस घमंड में हांकते हुए कि वे सवर्ज्ञ हैं तो उधर प्रजा में व्यक्ति, सेल्फ-सेंटर्ड वह भूख जो इतिहास के अनुभव का मानो बदला लेना हो। मैं पहले वंचित था अब तुम वंचित रहो। सभी छीना-झपटी में धर्म-समाज-राष्ट्र जीवन को बिखेरते व असंबद्ध बनाते हुए। तभी बेफिक्री से उड़ने की निज स्वतंत्रता, अवसरों की समानता, बुद्धि का खुलना, दिल का बड़ा होना और चिरनिद्रा से शरीर का बाहर निकलना सब मुश्किल है।

यह भी पढ़ें: अधर्म जानें, अफीम छोड़ें!

क्या इलाज संभव? वह इलाज, जिससे कलियुगी पक्षाघात से अचेत बुद्धि खुले और वह सत्यगामी बने? वह आत्मकेंद्रित स्वार्थ-मान्यताओं को छोड़ समाज-धर्म-देश की सच्ची चिंता करती हुई हो? ऐसा किस इलाज, कैसी सर्जरी से संभव? क्या शिक्षा से?....या जोर जबरदस्ती से? या क्या भगवान विष्णु के राजा रूपी अवतार से? क्या प्रवचनों-भाषणों-बौद्धिक जुगाली और प्रोपेगेंडा से? क्या नए संविधान से?... ले्किन सभी तरीके, सभी रास्ते व्यर्थ हैं। इसलिए कि कलियुगी जीवन आत्म-केंद्रित मान्यताओं, अंधविश्वास और पाखंड में इतना भयावह बिखरा व असबंद्ध है कि कोई भी तरीका, कोई भी इलाज मांइड स्वीकार नहीं करेगा। माइंड पूरी तरह आस्था और स्वभाव के कब्जे में है। वह हाइबरनेशन, चिरनिंद्रा में है। उस पर न दवा असर कर सकती है और न चीर-फाड़। कुल मिलाकर कलियुगी बुद्धि का सरोकार सिर्फ अपने से है। वह नियति, भाग्य, जन्मचक्र से संचालित है। इसी से दिमाग, दिल और शरीर क्रमशः अधर्म, भय और कुंभकर्णी नींद के बंधक। ऐसे में वह अंतःप्रेरणा, चाहना भला कैसे बन सकती है, जिससे आजादी से उड़ने-उड़ाने की उन्मुक्तताएं और देखने-सुनने-समझने की जिज्ञासा बने। यह मानना तब बंद हो कि गुलामी, गरीबी और पिछड़ापन सब भाग्य से है। समाज में सचमुच चल पड़े धर्म-अधर्म, सत्य-झूठ के भेद की जागरूकता का अभियान। संभव है यह सब फालतू लगता हो! इस तरह विचारना भी बेतुका और व्यर्थ। निरर्थकता का बोध बनेगा।... तभी लगता है कलियुगी बुद्धी पर सोचना, उसमें बुनियादी परिवर्तन और हिंदुओं के सतयुग को लौटने का ख्याल कुल मिलाकर दीवार पर सिर पीटना है! समाधान सूझता ही नहीं। और लिखते-लिखते विचार रिपीट होते हैं। मसला बहुत पेचीदा है तो कुछ बिंदुओं में सिमटा हुआ भी। पेचिदगी कौम, नस्ल के प्रतिनिधि शरीर की जैविक रचना, चित्त-मनोदशा और दिल-दिमाग के धड़कने (बेफिक्री या भय में, सत्य या झूठ में) से है। कुछ ही बिंदु खोपड़ी की तंत्रिकाओं के फ्रन्टल, पेराएटल, ऑक्सिपिटल के लघु तीन-चार लोब और उनकी ज्ञानेंद्रियों के कारण। सोचें, ये लोब-ज्ञानेंद्रियां अनुभव, अभ्यास, स्वभाव की मेमोरी-चेतना में इनपुट के कितने बीज लिए होती है? जीवन जीने के चंद सूत्र। हां, नस्ल, कौम, सभ्यता का फर्क सत्व-तत्व की चंद कुछ बातों की प्रोसेसिंग में है। जीवन जीने के चंद सूत्रों ने इतिहास अलग-अलग बनाया है। उसी में हम खुद सतयुग बनाम कलियुग, तब और अब का फर्क लिए हुए हैं। सो मामला दिलचस्प और पेचीदा है। इसलिए दिमाग और खपाना होगा। बूझना होगा कि कलियुगी बुद्धि से मुक्ति के क्या-क्या तरीके संभव हैं? hindoo-buddhi-ka-kaayaakalp, hindoo-buddhi-ka-kaayaakalp, hindoo-buddhi-ka-kaayaakalp, hindoo-buddhi-ka-kaayaakalp, hindoo-buddhi-ka-kaayaakalp 
Published

और पढ़ें