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महाराष्ट्र में बिहार जैसा दांव?

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महाराष्ट्र में बिहार जैसा दांव?
महाराष्ट्र का दांव मास्टरस्ट्रोक है या मजबूरी का खेल है? मास्टरस्ट्रोक है तो आगे की राजनीति में कितना कारगर होगा और अगर मजबूरी है तो ऐसी मजबूरी कैसे आन पड़ी? पहली नजर में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार गिराना मास्टरस्ट्रोक दिख रहा है। लेकिन उसके बाद जैसी राजनीति हो रही है, उसे देख कर तो लग रहा है कि यह मजबूरी का ढोल गले आ पड़ा है, जिसे भाजपा को बजाना पड़ रहा है। ठीक वहीं कहानी हो गई है, जो 2020 में बिहार में हुई थी। चिराग पासवान के जरिए जनता दल यू को कमजोर करना मास्टरस्ट्रोक था लेकिन उसके बाद जो हुआ वह मजबूरी दुनिया के सामने है। सिर्फ 43 सीट जीत कर जदयू के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं और 74 सीट जीतने वाली भाजपा पिछलग्गू है। राज्य सरकार में भाजपा के किसी मंत्री की कोई हैसियत नहीं है और मजबूरी में भाजपा को कहना पड़ा है कि बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार ही हैं। ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में भी हुआ है। उद्धव ठाकरे की सरकार तो मास्टरस्ट्रोक से गिर गई लेकिन उसके बाद मजबूरी में शिव सेना के ही एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। अगर अक्टूबर 2019 में भाजपा ने उद्धव ठाकरे की बात मान ली होती है और ढाई-ढाई साल की सत्ता साझेदारी पर सहमति दी होती तो आज भाजपा का मुख्यमंत्री होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। पहले ढाई साल से ज्यादा समय तक शिव सेना के उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री रहे और अब शिव सेना के ही एकनाथ शिंदे बन गए हैं। भाजपा की यह मजबूरी तो समझ में आई कि उसने शिंदे को सीएम बना कर शिव सेना के लिए मुश्किल पैदा करने का प्रयास किया है लेकिन यह मजबूरी समझ में नहीं आई कि उसने क्यों शिव सेना से आए राहुल नार्वेकर को विधानसभा का स्पीकर बनाया? भाजपा के पास अपने नेताओं की कमी नहीं है फिर भी उसने राहुल नार्वेकर को स्पीकर बनाया, जो पहले शिव सेना में थे। वहां से एनसीपी में गए और पांच-छह साल पहले ही भाजपा में शामिल हुए। सोचें, एक शिव सैनिक मुख्यमंत्री है और एक पूर्व शिव सैनिक स्पीकर है। फिर भी भाजपा मास्टरस्ट्रोक चलने का श्रेय ले रही है! असल में ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र का पूरा खेल देवेंद्र फड़नवीस ने अपने लिए सजाया था। 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री नहीं बन पाने की वजह से वे छटपटा रहे थे। उनका लक्ष्य किसी तरह से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना था। इसके लिए वे निजी तौर पर उद्यम कर रहे थे। हो सकता है कि उनको आलाकमान से ही सहमति भी मिली हुई है लेकिन पूरा प्रकरण उनका निजी उद्यम ज्यादा दिख रहा है। ढाई साल की मेहनत के बाद जब यह उद्यम कामयाब हुआ तो अंदरूनी सत्ता समीकरण की वजह से फड़नवीस मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। इसी अंदरूनी सत्ता समीकरण की वजह से फड़नवीस को मजबूरी में उप मुख्यमंत्री का पद लेना पड़ा। तभी भाजपा के कम नेता इसे मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं और टेलीविजन के एंकर ज्यादा हवा बना रहे हैं। अब सवाल है कि यह कथित मास्टरस्ट्रोक कितना कारगर होगा? क्या एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर और भाजपा की शह पर शिव सेना पर कब्जा कर लेंगे? अगर ऐसा हुआ तो उलटे उद्धव के प्रति सहानुभूति होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ और शिव सेना उद्धव ठाकरे की कमान में रही तो वह एक बड़ी ताकत बनी रहेगी। वैसे भी ऐसी क्षेत्रीय पार्टियां, जिनका नेतृत्व पार्टी के संस्थापक के परिवार के सदस्यों के हाथ में होता है, उसकी विरासत अंत तक परिवार के साथ ही रहती है। ऐसी पार्टियां टूटती भी हैं तो मूल पार्टी का अस्तित्व खत्म नहीं होता है। ऐसी पार्टियों को वोट देने वाले लोग पार्टी और उसकी विचारधारा से ज्यादा व्यक्ति के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। याद करें कितनी बार बहुजन समाज पार्टी टूटी है? शुरुआती दिनों में हर चुनाव के बाद बसपा टूट जाती थी। उसके विधायक कभी भाजपा के साथ तो कभी सपा के साथ चले जाते थे लेकिन फिर अगले चुनाव में बसपा जीत कर आती थी। ताजा मिसाल राजस्थान की है, जहां बसपा के छह विधायक जीते थे और सभी कांग्रेस में चले गए। लेकिन अगले चुनाव में बसपा फिर जीतेगी। कांशीराम और मायावती के नाम पर नए लोगों को वोट मिलेगा और नए लोग जीतेंगे। सो, उद्धव ठाकरे भले बाल ठाकरे की तरह साहसी या गरजने वाले कट्टर हिंदू नेता नहीं हैं लेकिन उनका विनम्र होना उनकी कमजोरी नहीं है। आखिर मायावती भी कांशीराम की तरह बौद्धिक या प्रतिबद्ध नेता नहीं हैं या तेजस्वी यादव भी अपने पिता लालू प्रसाद की तरह जमीन से जुड़े और पिछड़ों के मसीहा वाली छवि के नेता नहीं हैं या हेमंत सोरेन भी शिबू सोरेन की तरह जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले नेता नहीं हैं या एमके स्टालिन भी करुणानिधि का करिश्मा लिए हुए नहीं हैं फिर भी इन नेताओं ने अच्छे-बुरे समय में पार्टी का नेतृत्व किया। इसलिए यह तय मानें कि अभी चाहे तस्वीर जैसी दिख रही हो लेकिन शिव सेना ठाकरे परिवार से बाहर नहीं जाने वाली है। शिव सैनिक असल में ठाकरे परिवार के सैनिक होते हैं। जब वे बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे के साथ नहीं गए तो क्या एकनाथ शिंदे के साथ चले जाएंगे? राज ठाकरे तो शुरू से उद्धव के मुकाबले ज्यादा कट्टर हिंदुत्व और मराठी अस्मिता की राजनीति करते रहे थे! इसलिए यह दावा भी बहुत सही नहीं है कि उद्धव ने हिंदुत्व का रास्ता छोड़ दिया था इसलिए शिव सैनिक शिंदे के साथ चले जाएंगे। भाजपा भी कहीं न कहीं इस बात को समझ रही है। इसलिए पार्टी में ज्यादा उत्साह नहीं दिख रहा है। सोचें, अगर सब कुछ भाजपा की प्लानिंग के हिसाब से हुआ होता तो हैदराबाद में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इसका कैसा डंका बजता! लेकिन दो दिन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में महाराष्ट्र के इतने बड़े घटनाक्रम का कोई जिक्र नहीं हुआ। कायदे से देवेंद्र फड़नवीस को राष्ट्रीय कार्यकारिणी का हीरो होना चाहिए था लेकिन वे इसमें शामिल होने के लिए हैदराबाद भी नहीं गए। महाराष्ट्र के पूरे घटनाक्रम को इतना लो प्रोफाइल रखा गया तो उसका मतलब है कि जो कुछ हो रहा है वह भाजपा की मजबूरी है। भाजपा कोई त्याग करने वाली पार्टी नहीं है। बिहार में भी उसने त्याग नहीं किया है, मजबूरी में नीतीश कुमार को नेता माना है। उसी तरह की मजबूरी में एकनाथ शिंदे को सीएम बनाया गया है। और इतना सब कुछ करने के बावजूद भाजपा आगे के राजनीतिक नतीजे को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है।
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