caste based census Bihar कोई राजनीति एक विकासक्रम के साथ आगे बढ़ती है। अगर नेतृत्व इसे समझते हुए अपने एजेंडे को विकसित नहीं करता, तो वो सियासत गतिरुद्ध हो जाती है। बिहार और उत्तर प्रदेश की मंडलवादी पार्टियां इस समस्या से ग्रस्त हैं, लेकिन इसे समझने की दृष्टि का उनमें अभाव है।
मंडल के दौर में उभरी पार्टियों की मुख्य समस्या यह है कि उस वक्त से आगे नहीं निकल पाई हैं। कोई राजनीति एक विकासक्रम के साथ आगे बढ़ती है। अगर नेतृत्व इसे समझते हुए अपने एजेंडे को विकसित नहीं करता, तो वो सियासत गतिरुद्ध हो जाती है। बिहार और उत्तर प्रदेश की मंडलवादी पार्टियां इस समस्या से ग्रस्त हैं, लेकिन इसे समझने की दृष्टि का उनमें अभाव है। ऐसी एक सीमित दृष्टि तेजस्वी यादव ने बिहार विधानसभा चुनाव के समय दिखाई थी, जब उन्होंने सामाजिक न्याय से आगे बढ़ते हुए आर्थिक न्याय की बात की थी। इसका सकारात्मक परिणाम भी दिखा। अपेक्षित यह था कि इस सोच को वे गंभीरता और गहराई में ले जाते। लेकिन अब वे फिर से आईडेंटिटी पॉलिटिक्स के दायरे में बंधते दिख रहे हैँ। उन्हें और मंडलवादी दूसरी पार्टियों को लगता है कि जातीय जनगणना का मुद्दा उठा कर वे 1990 के दशक को पुनर्जीवित कर सकते हैं, जब उनके नेतृत्व में एक निर्णायक राजनीतिक-सामाजिक गठबंधन हुआ था। मगर अब बात काफी आगे निकल चुकी है।
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भारतीय जनता पार्टी ने उनकी आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को अपनी अधिक व्यापक आइडेंटिटी पॉलिटिक्स में समाहित कर लिया है। यह महज उसके आकलन की बात है। अगर उसे महसूस हुआ कि राजनीतिक फायदा इसी में है, तो उसे जातीय जनगणना की मांग मान लेने में कोई दिक्कत नहीं होगी। आखिर तमाम जातीय विमर्श वर्ण व्यवस्था के दायरे में ही रहता है। ये व्यवस्था हिंदुत्व की राजनीति का आधार है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को मुश्किल तब आती है, जब एजेंडे पर वर्ण व्यवस्था को तोड़ने की बात आती है। लेकिन मंडलवादी पार्टियां जातीय पहचान को मजबूत करने की नीति पर चल रही हैं। इस नीति को आगे बढ़ाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और वहां के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नेतृत्व में दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर जातिगत जनगणना की मांग की। गौरतलब है कि इस प्रतिनिधिमंडल में बिहार में भाजपा कोटे से शामिल एक मंत्री भी शामिल थे। मगर प्रश्न है कि ये जनगणना हो गई, तो उससे हासिल क्या होगा? आरक्षण जिस नौकरशाही और आर्थिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व का उपकरण है, उसका मूल रूप पिछले दशकों में बदल गया है। नरेंद्र मोदी सरकार ने ये गति और तेज कर दी है। इसे बिना समझे जिस जातीय गोलबंदी की उम्मीद में ये मांग उठाई है, उसमें मंडलवादी दलों को कुछ हासिल होगा, इसकी संभावना कम है।