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हकीकत की तराजू और यह बजट

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वर्ष 2021-22 के भारत बजट को किस तरह जांचें? क्या महामारी काल की कसौटी पर बजट को तौले या साल-दर-साल के रूटिन में जांच-पड़ताल करें? या दुनिया के बाकी देशों की कसौटी में बजट का अर्थ बूझा जाए या सौ साल की ऐतिहासिकता की जुमलेबाजी में बजट की समीक्षा हो? यह बजट देश, देश की आर्थिकी को महामारी काल से उबारने वाला पूर्ण बजट है या मिनी बजटों की सीरिज का महज एक मिनी बजट? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल में एक के बाद एक आर्थिक पैकेजों के हवाले मिनी बजटों की शृंखला में इस बजट को बताया था तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि सौ साल बाद महामारी का वक्त है तो यह सौ साला इतिहास का अलग-अनोखा-ऐतिहासिक बजट है! उस नाते प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और सरकार का सोचना क्योंकि महामारी के परिप्रेक्ष्य में है तो वक्त की हकीकत याकि महामारी पर ही बजट 2021-22 को जांचना चाहिए। सवाल है महामारी के वक्त का मौजूदा सत्य क्या है? पहला सत्य आर्थिकी की विकास दर का निगेटिव, एक साल में साढ़े सात प्रतिशत की गिरावट का है। दूसरा सत्य है कि इस काल ने भारत की यह सच्चाई जगजाहिर की है कि 81 करोड़ लोग पांच किलो अनाज और एक किलो दाल के राशन पर जीते हुए हैं। इसमें यदि छह हजार रुपए का सरकारी अनुग्रह लेने वाले नौ करोड़ गरीब किसानों की संख्या जोड़ लें तो 90 करोड़ आबादी उस अवस्था में है, जिसके लिए महामारी काल कंगाली में आटा गीले वाला था। इसी से फिर बेरोजगारों की वह भीड़ भी है, जिसे लॉकडाउन के बाद घर बैठना पड़ा।

तो बरबाद आर्थिकी, जैसे-तैसे पेट भरते 90 करोड़ लोग और बेरोजगारी के वे तीन यथार्थ हैं, जिन्हें चाहें तो कोविड-19 के वायरस की वजह से पैदा स्थितियां मानें या असली भारत की महामारी के बहाने प्रकट सच्चाई समझें! अब सवाल है बजट 2021-22 में इस सच्चाई से रूबरू या निदान के लिए क्या है? एक तो विकास दर के एकदम नीचे पैंदे पर पहुंचने की स्थिति में उठाव याकि वी शेप या के शेप में नए वर्ष में 11 प्रतिशत जीडीपी विकास की हवाबाजी है। इसके लिए बजट में क्या कुछ है? मोटा जवाब यह बनता है कि बजट में अगले साल के लिए रिकार्ड तोड़ घाटा मतलब जीडीपी के 6.8 प्रतिशत वित्तिय घाटा होने देने का साहसिक फैसला है। सरकार नोट छाप कर पैसा खर्च करेगी तो जनता के हाथों पैसा पहुंचेगा। इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रोजेक्ट बढ़ेंगे, मजदूरी-मांग बनेगी तो विकास को गति मिलेगी, रोजगार बढ़ेगा और राशन-दान पर गुजर कर रहे 90 करोड़ लोगों में कुछ तो आत्मनिर्भर बनेंगे।

तो चाहे तो वित्तीय अनुशासन छोड़ नोट छाप कर आर्थिकी में पैसा उढ़ेलने का इरादा सही मान सकते है। कड़की सरकार और क्या कर सकती है? न रेवेन्यू बढ़ सकती है, न और कर्ज-ब्याज के दुष्चक्र का विकल्प है, न खर्च घट सकता है तो नोट छाप खर्च करने से हलचल तो बनेगी। फिर महामारी की कसौटी में टीकाकरण के लिए 35 हजार करोड़ रुपए, लगभग दस हजार करोड रुपए स्वास्थ्य में सालाना खर्च आदि की सामाजिक क्षेत्रों की खर्च बढ़ोतरी भी यह जतलाने वाली है कि वक्त के तकाजे में प्राथमिकताएं ठीक बनीं। बावजूद इसके ध्यान रहे कि सौ साल बाद के महामारी काल में 138 करोड़ की आबादी के पैमाने में न तो टीकाकरण के लिए राशि पर्याप्त है और न दस हजार करोड़ रुपए सालाना स्वास्थ्य व्यय से कुछ खास बनने वाला है।

वैसे अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी याकि सभ्य-अमीर देशों के साथ भारत के बजट की तुलना बेमतलब है। बावजूद इसके इतना तो ध्यान रहे कि जिन देशों की आर्थिकी से दुनिया की आर्थिकी है, वे सभी देश, उन सभी देशों के वित्त मंत्रियों ने सौ साल बाद की महामारी की हकीकत में जो आर्थिक पैकेज बनाए, बजट प्रस्ताव बनाए उनमें फोकस सिर्फ और सिर्फ छोटे-मझोले काम-धंधों, कारोबारियों को जिंदा रखने और बेरोजगारों को सीधे मदद का है। क्या वैसा कुछ बजट 2021 में प्रस्तावित है? सोचें और अपने अगल-बगल देखें कि कितनी तरह के व्यापार, व्यापारी, बिल्‍डर, कुटीर-लघु उद्योग के कारोबारी महामारी (वैसे सिलसिला नोटबंदी के वक्त से बना हुआ है) के बाद हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं या जैसे-तैसे वक्त काट रहे हैं तो उन सबके लिए क्या बजट 2021-22 में एक भी ऐसी घोषणा सुनी, जिससे इस वर्ग में सुकून या उम्मीद बंधी हो! महामारी से घर-घर प्रभावित हुआ और इस बात को अमेरिका, ब्रिटेन जैसे कई देशों के वित्त मंत्रियों ने समझा और लोगों को संभाले रखने के लिए, धंधे की उम्मीद बनवाए रखने के लिए मैक्रो-माइक्रो लेवल के आर्थिक-बजट प्रस्ताव बने, जबकि भारत की सरकार के मिनी बजटों या एक फरवरी 2021 के सौ साल बाद के ऐतिहासिक बजट में क्या हुआ या क्या है? ले दे कर वहीं इंफ्रास्ट्रक्चर, किसानी और सुधारों के जुमले, जिन पर पिछले एक-दो दशकों से भारत का हर बजट बोलता हुआ होता है!

हां, महामारी बाद का बजट ऐतिहासिक, सौ सालों का अभूतपूर्व हो सकता था यदि वायरस से सबक ले कर भारत राष्ट्र-राज्य 138 करोड़ लोगों को स्वास्थ्य की एक जैसी सुविधा देने वाला बनता जो ब्रिटेन की सरकारी नेशनल हेल्थ स्कीम यानी एनएचएस जैसे अनुभव से जरूरी मानी जा रही है। दुनिया के विकसित-पूंजीवादी देशों की सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं महामारी काल में अनुकरणीय बनी हैं तो जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन आदि की सामाजिक सुरक्षा गारंटी योजनाओं से भी भारत सीख सकता है कि इधर-उधर की बड़ी-बड़ी बातों के बजाय एक-दो क्षेत्रों पर फोकस बना कर वह किया जाए, जिससे ऐसी कोई स्थाई उपलब्धि बने जिससे लगे कि भारत ने महामारी काल में सबक ले कर संपूर्ण आबादी को राष्ट्रीयकृत स्वास्थ्य जैसी योजना में बांधा है।

महामारी यदि अवसर (जैसा प्रधानमंत्री ने कहा) है तो उसमें सरकार बेरोजगारी, भूख, धर्मादा के बजाय स्थायी समाधान में बेरोजगारी सुरक्षा गारंटी जैसी कोई योजना बना सकती है, जिसमें छोटी-छोटी तमाम धर्मादा योजनाओं के खर्च को जोड़ एकल राष्ट्रीय योजना में सब कुछ कवर हो सकता है। तब इतिहास याद रखता कि नरेंद्र मोदी के राज में महामारी आई तो उनकी सरकार ने वह नेशनल हेल्थ स्कीम या वह सामाजिक सुरक्षा स्कीम बनाई, जिससे भारत की अधिकांश आबादी को स्थायी सुरक्षा कवच मिला।

पर हर राजा, हर सरकार अपनी सीमाओं में बंधी होती है। सीमाओं से ही रूटिन बना होता है। अरूण जेटली जैसे बजट पेश करते हुए थे वैसे ही निर्मला सीतारमण हैं। दिशा बदल ही नहीं सकती, फिर भले देश महामारी काल से गुजर रहा हो। कच्चे-पक्के आंकड़ों पर बजट बना कर बजट के रूटिन में भारत की आर्थिकी का घसीटना नियति है। नोट करके रखें कि नोटबंदी के बाद से भारत की आर्थिकी जैसे घसीटती हुई है और बढ़ती इच्छाओं के आगे लोगों का जीना लगातार सूखा-भूखा बनता जा रहा है तो सिलसिला चलता रहेगा। हां, उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए जरूर वाह की जानी चाहिए कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के दोनों मोर्चों पर टैक्स प्रशासन को फेसलेस, पारदर्शी बनाने, भ्रष्टाचार खत्म कराने के लिए उन्होंने बजट-दर बजट जो फोकस बनाया हुआ है तो अच्छी बात जो इस बजट में भी कुछ और कदम उठे।

लब्बोलुआब दिवालिया दशा में वित्तीय घाटे से बेपरवाह हो कर सरकार सन् 2021-22 में बड़ा जुआ खेलेगी। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों, विदेशी निवेशकों के लिए भारत अधिक जोखिम वाला देश होगा। महंगाई सुरसा की तरह बढ़ सकती है। सरकारी प्रतिष्ठानों को बेच कर पैसा इकठ्ठा करने, चीन से आयात रूकवाने की चिंता में कस्टम डूयूटी बढ़ाने के टोटकों और पूंजी के लिए नए इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक, कंगले सरकारी बैंकों में और पूंजी डालने, बीमा क्षेत्र में विदेशी भागीदारी की सीमा बढ़ाने जैसे फैसलों का इधर-उधर छिटपुट असर भले हो लेकिन इन सबसे न तो विदेशी कंपनियां भारत में आ कर फैक्टरियां खोलने वाली हैं, न भारत के उद्योगपतियों को नए निवेश की पूंजी सुलभ होनी है, न निर्यात बढ़ेंगे और न विकास दर वी शेप में उछलेगी। आखिर जब जोश, उद्यम-मुनाफे की आग, विश्वास, ऊर्जा, भाप ही नहीं तो टोटकों से भला आर्थिकी कैसे दुरूस्त हो सकती है? प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री व सरकार भले सोचें कि महामारी काल से हम मुक्त हो गए हैं और दौड़ने का वक्त है लेकिन अपने को उलटी आंशका है कि इस गलतफहमी में ही कहीं फरवरी 2022 में आर्थिकी और औंधे मुंह गिरी हुई न मिले। बजट 2021 वैसा ही है जैसे महामारी से मुक्ति का अपना टीकाकरण अभियान है!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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