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बजट अच्छा है लेकिन क्रांतिकारी नहीं

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जैसा मैंने परसों लिखा था कि देश का वह बजट आदर्श बजट होगा, जो देश के सभी 140 करोड़ लोगों के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा की न्यूनतम व्यवस्था तो करे। राष्ट्र को परिवार बना दे। इस कसौटी पर किसी भी बचत का खरा उतरना तभी संभव है, जबकि देश के शीर्ष नेताओं के दिल में ऐसा प्रबल संकल्प हो और उन्हें आर्थिक मामलों की गहरी समझ भी हो लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा बजट पेश किया है, जिसका छिद्रान्वेषण तो कई आधार पर किया जा सकता है। फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि इस बार उन्होंने ऐसे कोई प्रावधान नहीं किए हैं, जो हर बजट में कमोबेश किए ही जाते हैं। जैसे आयकर, संपत्ति कर, कोरोना कर तथा अन्य कई छोटे-मोटे कर न उन्होंने बढ़ाए हैं और न ही घटाए हैं। देश के 6-7 करोड़ आयकरदाता यह जरुर सोचते थे कि इस बार टैक्स घटेगा ताकि लोगों के हाथ में खर्च के लिए पैसा बढ़ेगा। यदि चीजों की मांग बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा।

गनीमत है कि इस बजट में नए टैक्स नहीं थोपे गए हैं। सरकार इस वर्ष के लगभग 35 लाख करोड़ रु. के खर्च को कैसे जुटाएगी? वह सरकारी ज़मीनों, कारखानों, वित्तीय संगठनों, सरकारी कंपनियों वगैरह को बेचेगी। दो सरकारी बैंक भी जाएंगे। विपक्षी नेता इसे ‘देश को बेचना’ कह रहे हैं। लेकिन वास्तव में वे ही संगठन बेचे जाएंगे, जो निकम्मे हैं, नुकसानदेह हैं और जिन्हें चलाने में सरकार असमर्थ है। वह दो बैंकों को भी अपनी गिरफ्त से बाहर करेगी। बीमा कंपनियों में वह विदेशी पूंजी को 74 प्रतिशत विनिवेश होने देगी। सरकार यह सब नहीं करती और आम नागरिकों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष टैक्सों की बौछार कर देती तो क्या ठीक होता ? यह ठीक है कि सड़क-निर्माण और रेल्वे में वह ज्यादा पूंजी लगाएगी। उससे रोजगार बढ़ेंगे लेकिन देश के साल भर में एक-डेढ़ करोड़ बेरोजगार हुए लोगों का पेट कैसे भरेगा ? मनरेगा की प्रति व्यक्ति मजदूरी की राशि में कोई बढ़ोत्तरी नहीं है लेकिन उसका खर्च भी 1.15 लाख करोड़ से घटाकर 73000 करोड़ रु. कर दिया गया है।

इसी तरह प्र.मं. आवास योजना का खर्च 40500 करोड़ से 27500 करोड़ रु. और किसान सहायता भी 75000 करोड़ से घटकर अब 65000 करोड़ रु. रह गया है। बैंकों, रेल्वे, सड़कों, पुलों, कंपनियों आदि के निजीकरण के बाद उनकी सेवाओं और चीजों के दाम जरुर बढ़ेंगे। जब तक सरकार ‘दाम बांधो’ नीति लागू नहीं करेगी, आम उपभोक्ता ठगा जैसा रहेगा। अभी शेयर मार्केट जैसी छलांगें भर रहा है, क्या वह लोगों की कंजूसी नहीं बढ़ाएगा ताकि वे अपने खर्च घटाएं और पैसा शेयरों में लगाएं ? स्वास्थ्य सेवा के बजट में वृद्धि सराहनीय है लेकिन गांवों और कस्बों में बसे लोगों को कोरोना के बाद इसका कितना लाभ मिलेगा, यह समय ही बताएगा। इस बजट से खेती कितनी बढ़ेगी, यह भी अनुमान का विषय है। कुल मिलाकर बजट अच्छा है लेकिन इसे क्रांतिकारी या ऐतिहासिक या असाधारण कहना ज़रा कठिन है।

By वेद प्रताप वैदिक

हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।

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