यह विडंबना ही है कि जिस भारत देश में निर्भया कांड घटा था व जहां आए दिन आपसी झगड़े के अलावा अपराधियों के द्वारा निर्दोष लोगों को मारे जाने की घटनाएं घटती रहती है वहां निर्भया कांड के अपराधियों को फांसी पर लटकाने के लिए जल्लाद नहीं मिल रहे हैं। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के दो शहर कानपुर व मेरठ में दो जल्लाद ही अब रहते हैं। इनमें से कानपुर में रहने वाला जल्लाद काफी बुढ़ा व कमजोर है जोकि अब फांसी दे पाने की स्थिति में नही है जबकि मेरठ में रहने वाला जल्लाद पवन एक खानदानी जल्लाद है।
उसकी पिछली तीन पीढियों के लोग फांसी देने का काम करते आए हैं। उसके परदादा का नाम लक्ष्मण सिंह है। ब्रिटिश शासन में भगत सिंह को फांसी दी गई। उसके बाबा कल्लू ने इंदिरा गांधी के हत्यारो बेअंत सिंह व सतवंत सिंह को फांसी पद लटकाया था। उसने रंगा और बिल्ला को भी फांसी दी थी। उसका पिता मम्मू भी सरकारी जल्लाद था और 57 वर्षीय पवन चाहता है कि उसको निर्भया के हत्यारो को फांसी देने का काम सौंपा जाए।
उसे भरोसा था कि चार साल पहले उसे निठारी कांड के मुख्य अभियुक्त सुरेंद्र कोली को फांसी देने का मौका मिलेगा। मगर ऐन मौके पर उसको मौत की सजा अजीवन कारावास में बदल दी गई। वह अपनी इस नौकरी को काफी अंहम बताता है। उसका कहना है कि ऐसा करने से वह पृथ्वी से पापियों की संख्या कम कर रहा है। उसे कुछ साल पहले तक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस काम के लिए 3000 रुपए महीना मिल रहे थे व उसकी मांग के बाद सरकार ने इसे बढ़ाकर 5000 रुपए कर दिया।
नियम है कि जिस व्यक्ति को मौत की सजा दी जाती है उसके रिश्तेदारों को कम-से-कम 15 दिन पहले सूचित कर दिया जाना चाहिए ताकि वे लोग आकर उससे मिल सकें। हालांकि आतंकवादियों को फांसी देने वाले जल्लादो को मोटी रकम दी जाती है। कसाब व इंदिरा गांधी के हत्यारो को फांसी देने वाला जल्लाद को प्रति फांसी 25,000 रुपए दिए गए थे व सुरक्षा कारणों से उसका नाम भी गुप्त रखा गया।
ऐसा माना जाता है कि फांसी के जरिए मारना आज भी सबसे कम पीड़ाजनक है। इसके अलावा जहर का इंजेक्शन देकर भी मारने की व्यवस्था है जो भारत में नहीं है।फांसी देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रस्सी की मनीला रोप कहते है व पूरे भारत में यह बक्सर की जेल में ही तैयार की जाती है। जब भी किसी को फांसी देनी होती है तो उसे यहीं से आर्डर पर तैयार करवाया जाता है जोकि यहां बंद कैदियो द्वारा तैयार की जाती है।
यह रस्सी मनीला से पैदा होने वाली विशेष कपास से तैयार की जाती है। मगर अब इसे यहीं तैयार किया जाता है। इसके रेशो की खासियत यह होती है कि वे समुद्री पानी से खराब नहीं होते हैं व उनसे जहाजों की रस्सियों से लेकर मछली पकड़ने के जाल तक इससे तैयार किए जाते हैं। यह पानी में भीगने पर सिकुड़ जाती है। बक्सर की जेल गंगा नदी के पास है व इस रस्सी को बनाने के लिए नमी चाहिए अतः वहां इसका रेसा ज्यादा लचीला नहीं होता है। इस्तेमाल के पहले पानी में भिगोकर इसका मुलायमपन खत्म कर दिया जाता है।
आमतौर पर फांसी देने के काम आने वाली रस्सी तीन-चार इंच चौड़ी होती है व इसे फांसी पाने वाले की लंबाई व भार के अनुरूप तैयार किया जाता है। भारत के अलावा ब्रिटेन व अमेरिका में भी फांसी देने के लिए इसका इस्तेमाल होता रहा है। हालांकि भारत में इस रस्सी को जे-34 श्रेणी की रस्सी माना जाता है।मुलायम धागों से तैयार किया जाता है। रस्सी को काफी नमी वाले वातावरण में तैयार किया जाता है।
जिस व्यक्ति को फांसी पर लटकाना होता है उसे लटकाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रस्सी की लंबाई उसकी लंबाई से 16 गुणा ज्यादा होनी चाहिए। उसके भार के मुताबिक ही रस्सी तैयार की जाती है। बक्सर जेल को अंग्रेजो के शासन के समय से ही 1930 से यह मनीला रस्सी तैयार की जाती रही है। इसके जरिए 26/11 के आतंकवादी अजमल कसाब, संसद के हमले के आतंकवादी अफजल गुरू को भी फांसी की सजा दी गई थी। रस्सी में फंदा लगाए जाने के बाद वह अटके नहीं अतः उस पर मोम लगाकर उसे समतल व चिकना बनाया जाता है।
आमतौर पर फांसी देने के 15 दिन पहले आर्डर पर इसे तैयार किया जाता था। जेल में 375 किलोग्राम भारी इस 6 फीट लंबी रस्सी को 180 प्रति फुटकी दर से वैट देने के बाद 815 रुपए में खरीदा गया था। आमतौर पर यह रस्सी 80 किलोग्राम तक वजन आसानी से सह सकती है। इस समय इसका दाम 2300 रुपए के लगभग है। एक रस्सी में 7200 धागे होते हैं। इस समय वहां 10 रस्सियां तैयार की गई है। हर रस्सी का भार डेढ़ किलो व कीमत 2120 रुपए है।
इसे तैयार करने के लिए जेल के 10 पुराने कैदियो को खासतौर पर प्रशिक्षण दिया गया है। जे-34 रूई से बना धागा बहुत मजबूत होता है व उससे बनी रस्सी 150 किलोग्राम वजन तक उठा सकती है। रस्सी बुनने वाले कैदी मजदूरो को हर रोज 121 रुपए वेतन के रूप में मिलते हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान 1856 में बनी बक्सर जेल को बी श्रेणी की जेल माना जाता है जहां पुराने दिना में कुख्यात कैदियो को रखा जाता था। इनमें काला पानी की सजा पाने वाले कैदियो से लेकर हत्याओं के दोषी तक शामिल होते थे।
यहां 1880 में मनीला रस्सी बनाने की फैक्ट्री शुरू की गई है। बताते है कि जब 1931 में ब्रिटिश सरकर ने कहा कि उसे 24 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरू को फांसी देने के लिए रस्सी चाहिए तो वहां के कैदियो ने उन लोगों के लिए रस्सी तैयार करने से इंकार कर दिया था। उन्होंने काफी दबाव के बावजूद रस्सी नहीं बनाई। जब 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हुआ तो यहां के कैदियो ने तत्कालीन डिप्टी जेलर को मार डाला था।
फांसी देने की प्रक्रिया काफी लंबी भी होती है। किसी व्यक्ति को जब मौत की सजा दी जाती है तो उस आदेश को काला वारंट कहते हैं। इस आदेश की एक प्रति संबंधित व्यक्ति व उसके परिवार को दे दी जाती है। इसके साथ ही जल्लाद को भी सूचित कर दिया जाता है। वह जेल पहुंचकर पहले रस्सी की जांच कर इसकी गांठ लगाने का अभ्यास करता है। आमतौर पर सूरज उगने के पहले फांसी दी जाती है। पश्चिम बंगाल का जल्लाद मलिक तो फांसी वाली रस्सी को चिकना करने के लिए उस पर पके हुए केले और साबुन लगाता था।
फांसी का फंदा तैयार करने के बाद रस्सी खीचने वाले लीवर की जांच की जाती है। लीवर खींचने पर खड़े हुए अपराधी के नीचे का तख्ता खुल जाता है व गर्दन, शरीर झटके से रस्सी से लटकता हुआ उसमें थोड़ा गिर जाता है व झटके के कारण उसकी गर्दन की हड्डी टूट जाती है व कुछ मिनटो में बेहोश हो जाता है।
हालांकि पूरी तरह से मरने में उसे 15-20 मिनट लग जाते हैं। मगर उसका दिमाग काम करना बंद कर देता है। फांसी दिए जाने के समय जेल अधीक्षक, स्थानीय मजिस्ट्रेट, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और डाक्टर भी मौजूद रहते है। फांसी दिए जाने के पहले संबंधित व्यक्ति के दोनों हाथ पीछे करके बांध दिए जाते हैं। उसका मुंह ढंक दिया जाता है व दोनों पैर भी बांध दिए जाते हैं।
कुछ समय तक शरीर के लटका रहने के बाद उसे नीचे उतारा जाता है व डाक्टर शरीर की जांच करके मौत की पुष्टि करता है। शव का पोस्टमार्टम करने के बाद या तो शरीर को उसके घर वालो को दे दिया जाता है अथवा जेल में ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। फांसी देने का यह तरीका बहुत पुराना है व रोम के कानून में इसका उल्लेख मिलता है।