बेबाक विचार

तो नौकरियां खत्म क्यों?

ByNI Editorial,
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तो नौकरियां खत्म क्यों?
राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाथ जोड़ कर अपील की कि वे अपने व्यवसाय, अपने उद्योग में अपने साथ काम करने वाले लोगों के प्रति संवेदना रखें। किसी को नौकरी से ना निकालें। कोरोना वायरस के संक्रमण के इस दौर में उनकी यह अपील उन करोड़ों लोगों को ढांढस बंधाने वाली लगी होगी, जो नौकरियों पर निर्भर हैं। मगर असल में जो रहा है, उससे ये ढांढस कमजोर बुनियाद पर टिकी दिखती है। हकीकत यह है कि बड़ी संख्या में लोग नौकरी से निकाले जा रहे हैं, उन्हें बिना वेतन छुट्टी लेने को कहा जा रहा है और जिनकी नौकरी बच भी रही है, उनकी तनख्वाह में कटौती की जा रही है। इसकी एक साफ मिसाल तो मीडिया जगत ही है। लॉक डाउन के दौरान मीडिया को अनिवार्य सेवा बताया गया है। 22 मार्च को कथित जनता कर्फ्यू के बाद प्रधानमंत्री की अपील पर जिन लोगों के लिए लाखों लोगों ने अपनी बालकनी पर खड़े होकर ताली और थालियां बजाई थीं, उनमें मीडियाकर्मी भी थे। मगर हैरानी की बात यह है कि इस महामारी के दौरानी मीडियाकर्मी भी अपनी नौकरी या सैलरी नहीं बचा पा रहे हैं। अनेक अखबारों ने अपने स्टाफ की सैलरी घटा दी है। एक चैनल ने अपनी अंग्रेजी डिजिटल सेवा में काम करने वाले सभी लोगों को नौकरी से निकाल दिया। एक बड़े मीडिया हाउस ने अपनी संडे मैगजीन की पूरी टीम को काम से बाहर कर दिया है। पत्रकार संघों का कहना है कि इस संकट के काल में मीडियाकर्मियों को नौकरी से बाहर निकालने को ना केवल अवैध है, बल्कि अनैतिक बल्कि मानवता के खिलाफ भी है। इस मुद्दे को कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने उठाया है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिख कर उन्होंने अनुरोध किया है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सभी मीडिया संस्थानों को सलाह जारी करे। उसमें कहा जाए कि अपने कर्मचारियों की छंटनी ना करें और उन्हें समय पर वेतन दें। इस बीच एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल में मीडिया कंपनियों से निकाले गए कर्मचारियों को ना तो इसका नोटिस दिया गया और ना ही नोटिस पीरियड सर्व करने का मौका दिया गया। प्रबंधनों ने इसका कारण कोरोना महामारी के चलते पैदा हुए आर्थिक संकट को ठहराया है। संकट वास्तविक है। मगर इस मौके पर क्या प्रबंधकों से न्यूनतम मानवीय भावना की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए?
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