भविष्य में चीन से अनिवार्य संकट-1: सचमुच सोचना, समझना और अनुभव की हकीकत में विश्वास वाली बात नहीं जो 21वीं सदी में वह होता हुआ है, जो 18वीं-19 वीं सदी में था! देश और लोग 21वीं सदी में वैसे ही गुलाम बन रहे हैं, जैसे 18वीं-19 वीं सदी में बने थे। आश्चर्य का और बड़ा हैरानी वाला पहलू क्षेत्र विशेष को उपनिवेश बनाने का तरीका भी घूमा-फिराकर पुराना। तरीके में शुरुआत व्यापार-धंधे और दोस्ती से। फिर सहयोग-मदद के नाम पर निवेश और अंत में वही सब जो ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत में हुआ था। अंग्रेजों ने जहांगीर के दरबार में नजराना दे कर पहले दोस्ती बनाई। धंधे की अनुमति ली और धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी के गोदाम बने। फिर छोटे-छोटे वे मालिकाना इलाके जो किले की तरह थे, जहां सुरक्षा का उनका खुद का सुरक्षा प्रबंध था। उनमें ठाठ से अंग्रेज रहते। हिंदुस्तानी नौकर-चाकरों से पंखा चलवाते, पांव दबवाते, बच्चों की देखभाल, घर का काम करवाते। बतौर मालिक उनका अलग खास जीवन! देशी-काले लोगों की लेबर में अंग्रेजों के शाही जीवन का वह नया अनहोना अंदाज था, जिसे देख देशी लोग हैरान होते थे। सेवादारी भक्ति से होती थी। जगत सेठ जैसे हिंदू सेठों को धंधे का नया अवसर बनता लगता था।
वह सब तब और अब 21वीं सदी में भी नए पैमाने व अंदाज में। सवाल है तब और अब में क्या फर्क है? हां, है और वे ये है- तब पुनर्जागरण, औद्योगिक क्रांति के भभके में यूरोप के कई देश उपनिवेश बनाने की होड़ में थे। तब गुलाम लोगों का व्यापार प्रचलन में था। जंजीरों में जकड़े काले-अश्वेतों की मंडियों में गुलामों की खरीद-फरोख्त होती थी। अफ्रीका दुनिया का गुलाम सप्लायर था। नंबर तीन फर्क तब दुनिया, गांव नहीं थी। भूमंडीलकृत दुनिया नहीं थी। नंबर चार फर्क, तब इलाकों या आबादी क्षेत्रों को गुलाम बनाने का अंतिम औजार सेना व सैनिक ताकत थी। उस नाते अब सेना का वैसा महत्व नहीं है, जैसा पहले था। अब उसकी जगह पैसा-पूंजी-वित्त-व्यापार के महाबली देश दुनिया को मुट्ठी में रखने का उद्देश्य, लक्ष्य बनाए हुए हैं।
अंत में वर्तमान-भविष्य की महत्वाकांक्षाओं का ज्वार, उसकी ड्राईविंग ताकत सभ्यताओं का संघर्ष भी नया विशेष वैश्विक पहलू है!उस नाते लगेगा कि पश्चिमी-ईसाई-यहूदी-यूरोपीय सभ्यता जहां दुनिया को मुट्ठी में समेटने की फितरत में है वही इस्लाम जुनूनी, चाइनीज हॉन सभ्यता और हिंदू सभ्यता भी अपनी-अपनी पताका से अपने को विश्व गुरू समझ दुनिया में जलवा बनाने की उधेड़बुन में!
पर इस सदी के पहले दो दशकों की घटनाओं के अनुभव में अपना मानना है कि पिछले पांच सौ सालों में (मोटे तौर पर रेनांसा बाद) जिस यूरोपीय सभ्यता की धुरी पर दुनिया घूमी है वह क्योंकि ज्ञान-विज्ञान-तकनीक से अब मंगल ग्रह जैसे सपने लिए हुए है और उसके सोचने-उड़ने का महामारी काल से कुछ अलग रूझान बनता लगता है तो इसका इस्लाम या चाइनीज हान सभ्यता से आर-पार का मुकाबला टलता लगता है। वह नौबत नहीं आएगी मतलब, सभ्यता का संघर्ष छुपा-दबा-टला रहेगा।
तो होता हुआ क्या है? चीन जहां पश्चिम के अपने-आप में खोए हुए होने का फायदा उठाते हुआ होगा वहीं घनघोर आर्थिकी प्रतिस्पर्धा में जीतने का जुनून लिए रहेगा। हां, महामारी काल से, पिछले साल और आने वाले दो-तीन सालों का अनुभव जहां गरीब-कंगले देशों को आर्थिक गुलामी की तरफ ले जाएगा वहीं अमीर-विकसित देशों में चीन अपनी आर्थिकी दादागिरी में वह करेगा, जिससे अमेरिका-यूरोप प्रतिस्पर्धा से बाहर हों और वह फिर अपने तरीकों-विचार-मॉडल में दुनिया को ढालने की ओर बढ़े।
उस नाते जरूर संभव है कि आने वाला वक्त आर्थिक तकाजों में तरीकों-विचार-मॉडल की वह जिद्द भी बना बैठे जो सभ्यताओं के संघर्ष की भूमिका लिए हुए हो।
इस दिशा का प्रतीक, अगुआ नंबर एक देश है चीन! महामारी काल ने चीन को नई ताकत दी है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग, उनका पोलित ब्यूरो और वहां के वे तमाम नीति-निर्धारक अपना वक्त आया मान रहे हैं, जिनके सपने हान-मंचूरियाई गौरव की विश्व पताका है। जिनके सपनों में चीन की धुरी पर पृथ्वी घूमती हुई है। वहीं पृथ्वी का वह चंद्रमा है, जिससे भाटा बनता है, ज्वार बनता है। चीन का इतिहास भरा पड़ा है खामोख्याली वाले ऐसे गौरव से। संदेह नहीं कि वक्त ने, पिछले चालीस सालों में चीन ने जो अभूतपूर्व विकास किया है और वह दुनिया की जैसी फैक्टरी बना है (मैं इसमें नंबर एक दोषी भारत को मानता हूं, अमेरिका-पश्चिम, निक्सन-किसिंजर सभी चीन को नहीं बल्कि भारत को बनाना चाहते थे लेकिन भारत के नेताओं ने, भारत राष्ट्र-राज्य की मूर्खताओं ने अवसर नहीं समझा) उसकी दास्ता गजब है। तभी उसका यह आत्मविश्वास (महामारी के बाद तो विशेष रूप से) जायज है कि अमेरिका-यूरोप का वक्त खत्म और चीन जो चाहेगा वह करेगा।
चीन क्या करेगा? वहीं करेगा जो उसकी तासीर है। वह वहीं करेगा जो उसकी जरूरत है।
चीन की तासीर निरंकुश सत्ता से अनुशासित जीवन-व्यवस्था है। कन्फ्यूशियस जीवन पद्वधति में अनुशासन यदि लोक व्यवहार और स्मृति है तो निश्चित ही यह उसकी ताकत है और इसी में उसे दुनिया को ढालना है। मतलब वह हर संभव कोशिश करेगा, जिससे दुनिया के देश (खासकर अल्पबुद्धि वाले गरीब-पिछड़े) उसे सफलता का मॉडल मानें। उसके तौर-तीरे अपनाएं। शासन-राजनीति-विकास-आर्थिकी का चाइनीज मॉडल पृथ्वी के साढ़े सात अरब लोगों में सफलता का प्रतिमान बने।
इसकी गहराई में जाना जरूरी है। सोचें कि दूसरे महायुद्ध के बाद याकि 1945 के बाद मानवता के विकास, होमो सेपियंस का मौजूदा मुकाम किन आदर्शों, आग्रह व म़ॉडल को प्रतिमान माने हुए है? क्या सूत्र है? सब आजाद होने चाहिए, उदार होने चाहिए, समान होने चाहिए। देश की आजादी, व्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार, लोकतांत्रिक नियम-कायदों-व्यवस्था, उदारवाद और उसी अनुसार संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक रिश्तों के लिए बनी वैश्विक व्यवस्था। एक वक्त इसके आगे कम्युनिस्ट व्यवस्था के सोवियत संघ मॉडल में कम्युनिस्ट देश विकल्प थे। सोवियत संघ ढहा तो वह विकल्प खत्म। उसकी बजाय चीन ने कम्युनिस्ट रंग में पूंजीवाद की अमेरिकी पूंजी को आत्मसात करा देंग से लेकर शी जिनफिंग सभी नेताओं ने चालीस सालों में कन्फ्यूशियस आत्मअनुशासन, आत्मसमर्पण व स्थायित्व-विकास का वह मॉडल बना डाला है जो स्वाभाविक तौर पर आज यह दावा बनाए हुए है कि पृथ्वी के भविष्य का इंजन चीन है।
इसलिए जिधर चीन ले जाएगा उधर दुनिया को जाना होगा!
इसका प्रमाण दुनिया के वे देश हैं, जो अघोषित तौर पर चीन के गुलाम हैं या होने के प्रोसेस में हैं। बतौर प्रमाण कल अफ्रीका के जाम्बिया पर गौर करेंगे।
21वीं सदी में गुलामी और चीन!
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