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हाशिए के मुद्दे आगे बहुत सताएंगे।

भारत के सामाजिक, राजनीतिक विमर्श में पहाड़, नदी, हवा, पानी, जंगल, पर्यावरण, जलवायु आदि की चर्चा नहीं के बराबर होती है। मुख्यधारा के मीडिया में भी इनके लिए जगह नहीं होती है। कैलेंडर देख कर पत्रकारिता करने वाले कुछ लोग विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर जरूर पांच जून को लेख आदि लिख देते हैं। अखबारों में फीचरनुमा कुछ चीजें छप जाती हैं। लेकिन सोचना, विचारना, कुछ करना नहीं। बहरहाल हाशिए के ये मुद्दे अब सता रहे हैं और आगे जानलेवा होंगे।। नदियां सूख रही हैं। पानी का संकट दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। पहाड़ धंस रहे हैं और लोगों को घर छोड़ कर जाना पड़ रहा है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई से बाढ़ का संकट बढ़ा है। जंगल के आसपास बनी बस्तियों में जंगली जानवर घुस रहे हैं। जंगल की कटाई, नदियों के सूखने और पहाड़ की कटाई का अनिवार्य नतीजा है कि पारिस्थितिकी का पूरा चक्र बदलता हुआ है। ऐसे लोग जिनको लगता था कि वे तो जंगल, पहाड़, नदी, समुद्र से दूर हैं उनको भी इसका असर महसूस होने लगा है। हवा और पानी का प्रदूषण सभी को समान रूप से परेशान कर रहा है।

अमेरिका सहित दुनिया के जितने ज्यादा विकसित देश हैं वे जलवायु परिवर्तन की मार ज्यादा झेल रहे हैं। वे इसे ठीक करने की कोशिश भी कर रहे हैं। जैसे ओजोन परत को रिपेयर करने का काम तेजी से चल रहा है और हाल में एक रिपोर्ट थी जिसमें कहा गया कि अगले कुछ दशक में ओजोन परत को 80 के दशक वाली स्थिति में ला दिया जाएगा। ध्यान रहे फ्लोरो कार्बन यानी सीएफसी के अत्यधिक उत्सर्जन से ओजोन परत में छेद हो गया था। वह बढ़ता जा रहा था। इससे अल्ट्रा वायलेट किरण ज्यादा प्रचंड होकर धरती पर पहुंच रही थीं। बर्फ और ग्लेशियर पिघलने की दर बढ़ गई थी। लोगों को कई तरह की बीमारियां होने लगी थीं। तभी विकसित देशों ने एक मिशन के तौर पर इसे ठीक करने का काम शुरू किया और अब उनको इसमें कामयाबी भी मिल रही है।

इसके उलट भारत में है। अभी तो सरकार की तरफ से यह विमर्श बनाया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के लिए भारत जैसे विकासशील देश जिम्मेदार नहीं हैं, फिर भी इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। यह बात ग्लोब के दक्षिणी हिस्से के विकासशील देश यानी ‘ग्लोबल साउथ’ के सम्मेलन से निकली है। भारत में हो रहे इस सम्मेलन में सरकार की ओर से कहा गया कि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार नहीं है। संदेह नहीं है कि विकसित देश ज्यादा जिम्मेदार हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि विकासशील देशों की कोई जिम्मेदारी नहीं है। कम से कम स्थानीय स्तर पर मौसम का जो अतिरेक देखने को मिल रहा है या स्थानीय स्तर पर जैसी प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं उनकी जिम्मेदारी उन्ही देशों की है, जहां ये घटनाएं हो रही हैं। यदि भारत में इस समय बेहिसाब सर्दी पड़ रही है या कई दिनों तक शीतलहर बनी रहती है तो इसकी जिम्मेदारी भारत की भी बनती है। अगर गरमी का सीजन चार महीने की बजाय आठ महीने का होने लगा है तो इसके लिए सिर्फ विकसित देशों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। यदि बाढ़ आने पर पहले से ज्यादा तबाही हो रही है तो इसके लिए भारत की अपनी जिम्मेदारी भी है।

सोचें, कितनी हैरानी वाली बात है जो पिछले साल फरवरी के अंत या मार्च के शुरू से गरमी पड़नी शुरू हुई तो दिसंबर के पहले हफ्ते तक जारी रही। इसी तरह दिसंबर के दूसरे हफ्ते में सर्दी शुरू हुई तो एकदम हाड़ कंपाने वाली ठंड थी। दिल्ली के अखबारों में कई दिनों तक छपा कि देहरादून, नैनीताल और शिमला से भी ज्यादा ठंडा दिल्ली। ऐसी ही खबरें उत्तर भारत के लगभग हर राज्य की राजधानी में छपी। बिहार के आधा दर्जन शहरों में तापमान चार डिग्री सेल्सियस तक था। हरियाणा, पंजाब के शहरों में लोहिड़ी के समय तक ठंड कम नहीं हुई। ऊपर से बताया गया कि मकर संक्रांति के बाद से19 या 20 जनवरी तक शीतलहर चलेगी। उत्तर भारत में तापमान चार डिग्री तक जा सकता है।

ऐसे ही पिछले साल पूरे देश ने देखा कि कैसे अक्टूबर के महीने तक देश के कई हिस्सों में बारिश होती रही। चेन्नई और बेंगलुरू की घनघोर बारिश हैरान करने वाली थी। सो, कहीं भारी बारिश तो कहीं सूखा और कहीं भयंकर गरमी तो कहीं कड़ाके की ठंड, ऐसा पहले नहीं था। पहले चार ऋतुएं आती थीं और उनकी आहट लोग पहले से महसूस कर लेते थे। लेकिन अब सिर्फ मौसम का अतिरेक महसूस होता है। उसी के साथ फिर  महसूस होती है सांस की तकलीफें। राजधानी दिल्ली में ठंड के साथ वायु गुणवत्ता सूचकांक में गिरावट होती जाती है। इसमें चार सौ एक्यूआई को गंभीर माना जाता है लेकिन कई दिल्ली में एएक्यूआई पांच सौ या उससे ऊपर रही। मुंबई में भी दिल्ली की तरह खराब वायु गुणवत्ता तो बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में में भी एक्यूआई चार सौ से ऊपर!

याद करें नौ साल पहले उत्तराखंड के केदारनाथ में भयंकर प्राकृतिक आपदा आई थी। क्या उससे सबक सीखा गया?  किसी ने सबक नहीं लिया। पिछले दिनों चमोली जिले में भू-स्खलन और बाढ़ की आपदा आई। कई गांव बह गए। अब जोशीमठ व कर्णप्रयाग में पहाड़ धंसते हुए हैं। सैकड़ों घरों में दरार है। हजारों लोगों को घर छोड़ कर सरकारी राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी। सेना की बैरकों में और आईटीबीपी की बैरकों में दरार है, जिसकी वजह से जवानों को वहां से हटना पड़ा है। फिर भी टनल बोरिंग मशीनों का चलना बंद नहीं हुआ है। पहाड़ खोदे जा रहे हैं। पनबिजली की परियोजनाएं लग रही हैं। बड़े रिसॉर्ट बन रहे हैं। होटलों की बड़ी इमारतें खड़ी की जा रही हैं। तीर्थाटन और पर्यटन की संभावनाओं का अधिकतम दोहन हो रहा है। मतलब प्रकृति के साथ संतुलन बनाने की रत्ती भर चिंता व कोशिक नहीं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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