अभी तक विपक्षी पार्टियों का गठबंधन तय नहीं हुआ है। उसकी एक मोटी रूप-रेखा उभर रही है लेकिन उसे अंतिम नहीं माना जा सकता है। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में सजा होने और लोकसभा की सदस्यता समाप्त किए जाने के तात्कालिक दबाव में विपक्ष ने कांग्रेस के प्रति जो सद्भाव दिखाया है वह कितना टिकाऊ है, यह नहीं कहा जा सकता है। हां, यह जरूर है कि उस घटना ने विपक्ष को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की पहल को तेज कर दिया है। लेकिन सवाल है कि क्या विपक्ष एक प्लेटफॉर्म पर आ जाए और एक दर्जन या डेढ़ दर्जन पार्टियों का गठबंधन बन जाए तो उससे भाजपा को हराया जा सकेगा?इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसा होने पर भाजपा से लड़ने की विपक्ष की ताकत बढ़ जाएगी लेकिन सिर्फ उसके दम पर भाजपा को हरा देना संभव नहीं है। पिछले चुनाव के आंकड़ों का जिन लोगों ने भी बारीकी से विश्लेषण किया है उनको पता है कि विपक्ष का मजबूत गठबंधन कुछ राज्यों में भाजपा की सीटें कम कर सकता है लेकिन सिर्फ उसके दम पर हरा कर सत्ता से बाहर कर देना मुश्किल है।
पिछले लोकसभा चुनाव में देश के 11 बड़े राज्यों में भाजपा को 50 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले थे। इन 11 राज्यों में कहीं कांग्रेस से सीधा मुकाबला था, कहीं कुछ और पार्टियां भी थीं, कहीं गठबंधन था और कहीं सभी पार्टियां अपने अपने दम पर लड़ी थीं। लेकिन हकीकत यह है कि बाकी सभी पार्टियों का साझा वोट 50 फीसदी से कम था। तीन राज्यों- गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को 60 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। पांच राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, हरियाणा और दिल्ली में 55 फीसदी से ज्यादा वोट मिले। इन आठ राज्यों के अलावा कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले। उत्तर प्रदेश में 49.98 यानी ठीक 50 फीसदी वोट मिले। महाराष्ट्र में शिव सेना का गठबंधन था और इस गठबंधन को 51.36 फीसदी वोट मिले थे। अगर महाराष्ट्र को छोड़ दें तो बाकी 11 राज्यों में लोकसभा की 225 सीटें हैं, जिनमें से 202 सीटें भाजपा ने जीती थीं। अगर इस गणित के हिसाब से देखें तो इन राज्यों में सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर लड़ी होतीं तब भी संभव है कि भाजपा को इतनी ही सीटें मिलतीं।
तभी यह मानना एक तरह की गलतफहमी पालना है कि अगर विपक्षी पार्टियों ने गठबंधन बना लिया या सभी सीटों पर भाजपा के मुकाबले विपक्ष का भी एक ही उम्मीदवार हुआ तो भाजपा को हराया जा सकता है। देश के उत्तर और पश्चिमी हिस्से में भाजपा की स्थिति ऐसी है कि सिर्फ विपक्ष के एकजुट हो जाने भर से उसको नहीं हराया जा सकेगा। ज्यादातर पार्टियां खास कर उत्तर और पूर्वी भारत की प्रादेशिक पार्टियां इस बात को नहीं समझ रही हैं। डीएमके नेता और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस स्थिति को समझा है और तभी उन्होंने सभी विपक्षी पार्टियों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने के साथ साथ एक साझा एजेंडा तय करने की भी पहल की है। उन्होंने इस बात को समझा है कि विपक्षी पार्टियों के एक साथ आने के जितना ही यह भी जरूरी है कि विपक्ष के पास भाजपा से मुकाबले का एक सैद्धांतिक आधार हो। यह समझने की जरूरत है कि किसी भी बड़ी लड़ाई के लिए एक अच्छा सिद्धांत होना जरूरी है।
स्टालिन ने इसके लिए अपने एक संगठन ऑल इंडिया फेडरेशन फॉर सोशल जस्टिस की ओर से सामाजिक न्याय पर एक सम्मेलन का आयोजन किया। मीडिया में इस सम्मेलन की रिपोर्टिंग विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास के तौर पर ही हुई। लेकिन असल में यह सम्मेलन एजेंडा तय करने का था। यह बड़ी दूरदृष्टि के साथ आयोजित कार्यक्रम था। विपक्षी पार्टियां जब साथ आ जाएंगी तो वे किन मुद्दों पर चुनाव लड़ेंगी, यह सम्मेलन उन मुद्दों पर विचार के लिए था। भाजपा के हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व के एजेंडे को चुनौती देने वाले कौन से मुद्दे हो सकते हैं, जिन पर नागरिकों को सोचने के लिए मजबूर किया जा सकता है, उन मुद्दों पर इस सम्मेलन में विचार हुआ। हालांकि उत्तर भारत के ज्यादातर नेता मोटा-मोटी बातें करते रहे और भाजपा व आरएसएस पर हमला करने तक सीमित रहे लेकिन खुद स्टालिन और राजद के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने बारीकी से उन मुद्दों का जिक्र किया, जिनके आधार पर भाजपा को मजबूत चुनौती दी जा सकती है।
स्टालिन ने एक बहुत बड़ी बात कही। उन्होंने आर्थिक आधार पर सवर्णों के आरक्षण का मुद्दा उठाया और कहा कि इससे सामाजिक न्याय नहीं सुनिश्चित होता है। ध्यान रहे इस कानून पर देश की लगभग सभी पार्टियां सहमत हैं और जहां विपक्षी पार्टियों का राज है वहां भी इसे खुशी खुशी लागू किया गया है। लेकिन स्टालिन ने इसका अध्याय फिर खोल दिया है। उन्होंने कहा कि वर्ग की बजाय वर्ण यानी जाति ही सामाजिक न्याय की किसी भी योजना का आधार हो सकती है। उनका तर्क था कि कोई अमीर व्यक्ति गरीब हो सकता है, कोई गरीब व्यक्ति अमीर बन सकता है, कोई व्यक्ति अपनी अमीरी छिपा कर गरीब बना रह सकता है लेकिन जाति की वजह से जो छुआछूत और भेदभाव है वह नहीं बदलता है। उनका जोर एक्सक्लूजन पर था। उन्होंने कहा कि समाज और व्यवस्था दोनों समावेशी नहीं हैं। सो, अगर अगले चुनाव में विपक्ष सामाजिक न्याय और आरक्षण को मुद्दा बनाता है तो यह उसका प्रस्थान बिंदु है।
सामाजिक न्याय के सम्मेलन में संघवाद, राज्यों की स्वायत्तता, धर्मनिरपेक्षता, समानता, भाईचारा और सामाजिक न्याय को लेकर स्टालिन ने विस्तार से बात की। अब तक इन मुद्दों पर टुकड़ों टुकड़ों में बात हो रही थी। पहली बार इतने व्यवस्थित तरीके से देश की 16 पार्टियों के नेताओं की मौजूदगी में इन पर चर्चा हुई। विपक्षी पार्टियां इस बात पर सहमत हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले सहकारी संघवाद की बात करते हैं लेकिन केंद्र की नीतियों की वजह से राज्यों की शक्तियों का ह्रास हो रहा है। सो, राज्यों की स्वायत्तता को लेकर कोई नई मसौदा नीति विपक्ष की पार्टियों के लिए मददगार हो सकती है। इसी तरह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर भी विस्तार से चर्चा हुई। पिछले कुछ समय से धर्मनिरपेक्षता को देश और हिंदू विरोध माना जाने लगा है। उस मिथक को तोड़ने का प्रयास विपक्षी पार्टियों को करना चाहिए। केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से देश में आर्थिक असमानता पैदा हुई है। आजादी के बाद कभी भी ऐसी विषमता नहीं रही है। विपक्ष अगर इस बारे में सिद्धांत तय करे कि राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकतम समानता के साथ इस्तेमाल होगा और उसका मकसद हर व्यक्ति को हिस्सेदार बनाने का होगा तो यह एक बड़ी वैकल्पिक नीति हो सकती है। राजद नेता मनोज झा ने जाति आधारित जनगणना का मुद्दा उठाया और इस बात पर जोर दिया कि इसके बगैर सामाजिक न्याय की नीतियों पर सफलतापूर्वक अमल संभव नहीं है। उनका सुझाव था कि जब भी जनगणना हो तो जातियों की गिनती के लिए दबाव बनाया जाए और नहीं तो विपक्ष इसका बहिष्कार करे। यह सामाजिक न्याय की सबसे पहली जरूरत बताई गई लेकिन अगर वोट की राजनीति के लिहाज से भी देखें तो यह विपक्ष का कारगर हथियार हो सकता है। सो, स्टालिन की पहल पर विपक्ष अगले चुनाव का एजेंडा तय करता दिख रहा है। एकजुट होने के साथ साथ अगर जरूरी मसलों पर वैकल्पिक दृष्टि के साथ अगर साझा सिद्धांत भी तय होता है तो उससे भाजपा को चुनौती मिलेगी।