न्यायपालिका और सरकार टकराव के रास्ते पर हैँ। इसके बीच अगर यह धारणा बनी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सरकार और संकुचित करना चाहती है, तो उससे लोकतंत्र के प्रति जन-आस्था पर फर्क पड़ सकता है।
केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजुजू ने काफी समय से न्यायपालिका के खिलाफ मोर्चा संभाला हुआ है। वे उच्चतर न्यायपालिका और खास कर इसमें नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर हमला बोलने का कोई मौका नहीं गंवाते। कुछ रोज पहले एक इंटरव्यू में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को सीधी चुनौती दी। कहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को लगता है कि नियुक्ति के लिए उसकी सिफारिशों की फाइल को सरकार लटकाए रखती है, तो वह सरकार को फाइलें ना भेजे। इसके पहले वे कॉलेजियम सिस्टम की खामियों और उसमें कथित तौर पर जवाबदेही के अभाव की चर्चा कर चुके थे। तो सरकार के इस नजरिये पर अब सुप्रीम कोर्ट का असंतोष सार्वजनिक रूप से सामने आया है। कोर्ट ने सोमवार को कहा कि जजों की नियुक्ति ना करके सरकार कानून का उल्लंघन कर रही है और इस रूप में न्यायपालिका के बेसब्र कर रही है। कोर्ट की एक बेंच ने दो टूक कहा कि दरअसल सरकार 2015 में न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को असंवैधानिक ठहरा देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का बदला ले रही है।
साफ है, नियुक्तियों के मसले पर अब सरकार और न्यायपालिका का टकराव सहनसीमा को पार कर गया है। आम तौर पर लोकतंत्र में संस्थाओं के बीच टकराव होते हैं, तो उन्हें एक स्वस्थ प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। लेकिन यह आम समय नहीं है। इस समय समाज के एक हिस्से की शिकायत यह है कि सरकार लोकतांत्रिक तकाजों का उल्लंघन कर संस्थानों पर कब्जा जमाने की रणनीति पर चल रही है। यह उसके एक खास प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिससे वह संवैधानिक व्यवस्था के मूल रूप को बदल देना चाहती है। न्यायपालिका पर उसका निशाना भी इसी का हिस्सा है। ऐसे में वर्तमान टकराव को स्वस्थ नहीं माना जा सकता। बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अपशकुन के रूप में देखा जाएगा। न्यायपालिका के बारे में वैसे ही समाज के एक हिस्से में ये शिकायत गहरा चुकी है कि वह मौजूदा सरकार के आगे जरूरत से ज्यादा झुकी हुई है और इस रूप में अपना संवैधानिक दायित्व नहीं निभा रही है। उस हाल में अगर यह धारणा बनी कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सरकार और संकुचित करना चाहती है, तो उससे लोकतंत्र के प्रति जन आस्था पर फर्क पड़ सकता है।