जजों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका किस हद स्वतंत्र या स्वायत्त रहे, यह एक गंभीर प्रश्न है, जिस पर सार्वजनिक विश्वास के वातावरण में राष्ट्रीय आम सहमति बनाते हुए निर्णय लिया जा सकता है।
केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजुजू का कॉलेजियम में सरकार के प्रतिनिधि की भागीदारी के लिए सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखना न्यायिक स्वतंत्रता पर सीधा प्रहार माना जाएगा। यहां मुद्दा कॉलेजियम के औचित्य का नहीं है। उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम सिस्टम की वैध और उचित आलोचनाएं मौजूद हैं। इस व्यवस्था पर लोकतांत्रिक माहौल में और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत पुनर्विचार करने की जरूरत है, इस बात से बगैर इनकार किए भी यह कहा जा सकता है कि केंद्र ने जो तरीका अपनाया है, वह न सिर्फ आपत्तिजनक, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत शक्तियों के अलगाव के सिद्दांत के लिए खतरनाक भी है। यह कदम उस समय उठाया गया है, जब समाज में आम धारणा है कि मेनस्ट्रीम मीडिया पर सत्ता पक्ष का पूरा नियंत्रण हो चुका है और निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाएं उसके प्रभाव में आ चुकी हैं। मानव अधिकार और महिला आयोग जैसी संस्थाओं का पक्षपातपूर्ण रुख भी विभिन्न मौकों पर सामने आया है।
सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियां तो सीधे सरकार के हाथ में हैं, जिन पर आरोप है कि वे सत्ता पक्ष के राजनीतिक हितों के मुताबिक काम कर रही हैं। न्यायपालिका ने ऐसा नहीं कर रही है, इसे भी आज कोई भरोसे के साथ नहीं कहता। बहरहाल, ये जो तमाम बातें हैं, वे धारणा या एक राय के रूप में समाज में मौजूद हैं। जबकि सरकार का सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिख कर कॉलेजियम में प्रतिनिधित्व के लिए दावा जताना एक ठोस कार्रवाई है। प्रश्न है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की 1990 के दशक में दी गई व्यवस्थाएं अस्तित्व में हैं, सरकार किस कानून या संवैधानिक प्रावधान के तहत ऐसा दावा जता सकती है? जजों की नियुक्ति के मामले में न्यायपालिका किस हद स्वतंत्र या स्वायत्त रहे, यह एक गंभीर प्रश्न है, जिस पर सार्वजनिक विश्वास के वातावरण में राष्ट्रीय आम सहमति बनाते हुए निर्णय लिया जा सकता है। जबकि सरकार ने बिना ऐसा किए अपनी तरफ से कदम उठा दिया है। इसलिए इसको लेकर संदेह रखने और इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रहार मानने का पर्याप्त आधार बनता है। इसीलिए इस कदम को समाज का एक हिस्सा लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी मानेगा।