अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत किसी संकट में पड़े देश की मदद करना सरकारों और वित्तीय संस्थानों का दायित्व है। लेकिन यह मदद इस रूप में दी जाना चाहिए, जिससे मानव अधिकारों के लिए खतरा पैदा ना हो।
वित्तीय संकट में फंसे किसी देश को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसी सख्त शर्तों पर ऋण देता है, वह पहले से काफी विवादास्पाद रहा है। लेकिन आईएमएफ के इस रुख के खिलाफ अब तक सवाल आम तौर पर वामपंथी संगठन उठाते थे। यह संभवतः पहला मौका है, जब तो पश्चिमी मानव अधिकार संगठनों ने इसे मुद्दा बनाया है। पहले एमनेस्टी इंटरनेशनल श्रीलंका पर लगी गई आईएमएफ की शर्तों पर चिंता जताई और उसके बाद ह्यूमन राइट्स वॉच ने भी श्रीलंका में आईएमएफ के आर्थिक सुधार कार्यक्रम पर सवाल उठाए हैँ। ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा है कि नीतियां ऐसी अपनाई जानी चाहिए, जिनसे श्रीलंका में आम जन के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का और क्षरण ना हो। इसके पहले एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा था कि आईएमएफ की शर्तों को लेकर वह इस अंतरराष्ट्रीय संस्था के अधिकारियों से बातचीत करेगा और उन्हें अपनी चिंता बताएगा। ह्यूमन राइट्स वॉच ने ‘श्रीलंकाः आईएमएफ एक ऋण से अधिकारों के क्षरण का खतरा’ शीर्षक के साथ एक बयान जारी किया। बयान में कहा गया है- ‘सरकारी भ्रष्टाचार और टैक्स नियमों से धनी लोगों को लाभ हुआ, जो श्रीलंका के आर्थिक संकट का प्रमुख कारण है।
इस कारण श्रीलंका के लोगों को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उन्हीं लोगों पर और बोझ नहीं डाला जाना चाहिए।’ विशेषज्ञों के बीच भी आम राय यही है कि श्रीलंका में आर्थिक संकट दशकों तक अपनाई गई गैर-जिम्मेदाराना मौद्रिक नीति, सब्सिडी के गलत इस्तेमाल और कुशासन का परिणाम है। इसकी सबसे अधिक मार आम जन पर पड़ी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आईएमएफ की शर्तों की मार भी उन्हीं लोगों को झेलनी पड़ रही है। अब ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत किसी संकट में पड़े देश की मदद करना सरकारों और वित्तीय संस्थानों का दायित्व है। लेकिन यह मदद इस रूप में दी जाना चाहिए, जिससे मानव अधिकारों के लिए खतरा पैदा ना हो। स्पष्टतः मानव अधिकार संगठनों की इस पहल का स्वागत किया जाएगा। जरूरत ऐसे कथित आर्थिक सुधारों का असली चेहरा सामने लाने की है, जो आम जन की कीमत पर समृद्ध वर्गों के हित साधती हैं।