बेबाक विचार

भारत है अव्यवस्था का नाम!

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भारत है अव्यवस्था का नाम!
भारत महान के अनेक नाम हैं, जिनमें से एक नाम अव्यवस्था भी हो सकता है। भारत के हम लोग इस अव्यवस्था में रहने के आदी हैं। कोई भी अव्यवस्था हमारे मन के अंदर किसी किस्म के अतिरिक्त भाव पैदा नहीं करती है। हम उसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं और उसके साथ ही जीने की आदत डाल लेते हैं। जैसे अभी कहा जा रहा है कि कोरोना के साथ रहने की आदत डाल लेनी चाहिए। ऐसे ही हम अव्यवस्था के साथ रहने के आदी हो चुके हैं। तभी कोई हैराऩ नहीं है या कोई उद्वेलित नहीं है और न ही सोच रहा है कि इस समय देश में कैसी अव्यवस्था फैली हुई है। कुछ लोग दुखी जरूर हो रहे हैं कि अच्छा नहीं हो रहा है, मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था होनी चाहिए थी या वे पैदल चल रहे हैं तो रास्ते में उनके खाने-पीने का बंदोबस्त होना चाहिए था। एक केंद्रीय मंत्री तो इस बात से नाराज थीं कि विपक्ष के एक नेता ने मजदूरों के साथ बैठ कर क्यों उनका समय बरबाद किया। अगर वे साथ नहीं बैठते तो मजदूर कुछ दूर और चल सकते थे, उनका समय बचता। बहरहाल, अव्यवस्था सिर्फ मजदूरों के पलायन में ही नहीं है। यह सर्वत्र मौजूद है। अस्पतालों में अव्यवस्था है, जांच और इलाज में अव्यवस्था है, आर्थिकी अस्त-व्यस्त हो गई है और देश के हुक्मरान शुतूरमुर्ग की इस मानसिकता में हैं कि ‘सब चंगा सी’!इस समय देश के सामने सबसे बड़ी समस्या मजदूरों की है। लाखों की संख्या में मजदूर पलायन यात्रा में हैं। वे अपने अस्थायी ठिकानों से निकल चुके हैं और अपने घर तक नहीं पहुंचे हैं। कोरोना संकट को संभालने का सरकारों का तरीका इतना खराब है कि उसे सिर्फ अव्यवस्था कहना भी उचित प्रतीत नहीं होता है। वह अमानवीय अव्यवस्था है। ऐसा नहीं है कि इसका कोई समाधान नहीं है। यह सिर्फ व्यवस्था बनाने की बात है, जिसके हम आदी नहीं हैं। मजदूरों के इस संकट में हैरान करने वाली बात यह है कि इस देश में केंद्र से लेकर राज्यों तक में एक भी बैठक सिर्फ मजदूरों के मसले पर नहीं हुई है। यह स्पष्ट रूप से राज्यों के बीच का मामला है पर किसी राज्य ने दूसरे राज्य से बात कर के इस समस्या का समाधान निकालने का साझा प्रयास किया हो, इसकी मिसाल नहीं है। हां, कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने एक दूसरे को चिट्ठी और जवाबी चिट्ठी जरूर लिखी है पर उससे कोई समाधान नहीं निकला है। अगर हम अव्यवस्था के आदी नहीं होते तो इसका समाधान बहुत सरल था और बहुत सस्ता भी था। जो मजदूर जहां है उसे वहीं रोक कर गाड़ी में बैठाने का बंदोबस्त कर दिया जाए तो 24 घंटे से कम समय में यह समस्या सुलझ सकती है। मजदूर अगर इस समय रास्ते में है तो क्या मजबूरी है कि सिर्फ दिल्ली, मुंबई से ही ट्रेन चलेगी? क्या रास्ते में किसी जगह से ट्रेन नहीं चलाई जा सकती? पर यह तब होगा, जब मंशा इस समस्या को सुलझाने की हो। इलाज को लेकर इससे भी बड़ी अव्यवस्था है। मेडिकल की महामारी होने के बावजूद कोरोना को व्यवस्थित तरीक से हैंडल करने की योजना नहीं बनी। लंबा समय मिलने के बाद भी उसे सिर्फ बातों में या राजनीति में गंवा दिया गया। ज्यादा से ज्यादा जांच के बंदोबस्त नहीं किए गए, संक्रमितों के संपर्कों का पता लगा कर उनकी जांच और इलाज की व्यवस्था नहीं हुई, डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखा गया, पर्याप्त संख्या में पीपीई किट्स या टेस्टिंग किट्स का इंतजाम नहीं हुआ, निजी अस्पतालों और डॉक्टरों के प्राइवेट क्लीनिक को लेकर कोई निर्देश जारी नहीं किया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि निजी क्लीनिक चलाने वाले डॉक्टर संकट की इस घड़ी में अपनी दुकान बंद करके घर बैठ गए और मरीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया। कोरोना वायरस से इतर दूसरी बीमारियों के मरीज इलाज के बगैर परेशान हैं, लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं है। सिर्फ राष्ट्रीय राजधानी की बात करें तो हजारों या लाखों मरीज ऐसे होंगे, जो दिल्ली में रहते हैं और इलाज गुड़गांव या नोएडा के किसी सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल में होता है या नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव में रहते हैं और इलाज दिल्ली के किसी अस्पताल में होता है। पर सीमा सील करने का ऐसा जुनून अधिकारियों पर सवार हुआ कि उन्होंने इन मरीजों का इलाज भी बंद करा दिया। राजमार्गों पर चलते मजदूरों की अव्यवस्था के साथ साथ एक भारी अव्यवस्था की तस्वीर हर राज्य की सीमा पर अलग देखने को मिल रही है क्योंकि सभी राज्यों ने अपनी सीमा सील करने का जुनून पाला हुआ है। सो, कहीं गाड़ियों की कतार लगी है तो कहीं इंसान भेड़-बकरियों की तरह भीड़ लगा कर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े हैं। मजदूरों के लिए ट्रेनें चल रही हैं पर उनका पास लेना हिमालय की चोटी पर चढ़ने की तरह है क्योंकि व्यवस्था नहीं है। टिकट के पैसे से लेकर गाड़ी की समय सारणी और उसकी उपलब्धता के बारे में जानना बेहद मुश्किल है। राज्य बसों का इंतजाम कर रहे हैं पर मजदूरों को बसें मिल नहीं रही हैं क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार ने निजी गाड़ियों से जाने की मंजूरी दी है पर उसके लिए पास लेना और अपने राज्य की सीमा में घुसना बेहद मुश्किल है क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं है। इसी अव्यवस्था के बीच कारोबार और उद्योग धंधे शुरू करा दिए गए। अब किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि सामान कैसे और किसे बेचें! इसके बारे में जारी दिशा-निर्देश इतने जटिल हैं कि न तो कारोबारी समझ पा रहे हैं और न ग्राहक। किस दिन किस सामान की दुकान खुलेगी, कौन सी सेवा किस दिन मिलेगी, कहां जाने पर क्या नियम फॉलो करना है, दुकानों पर सुरक्षा का कैसा बंदोबस्त है, कहां जाने पर पुलिस रोकेगी और कहां बिना रोक-टोक जा सकते हैं,बिना मजदूर के उद्योगों में कैसे काम होगा, जो उत्पादन होगा उसकी ढुलाई कैसे होगी, जो माल बनेगा उसे खरीदेगा कौन और सबसे ऊपर तो यह कंफ्यूजन कि वित्त मंत्री ने जो राहत पैकेज घोषित किया है उसमें किसे क्या मिला? परीक्षा की तारीखें घोषित हो रही हैं पर परीक्षा होगी या नहीं यह किसी को पता नहीं है। जिस कोरोना वायरस के नाम पर इतनी अव्यवस्था फैलाई गई है उससे लड़ाई कैसे हो रही है यह भी किसी को पता नहीं है। जांच, इलाज, क्वरैंटाइन, आइसोलेशन आदि को लेकर इतने दिशा-निर्देश जारी हुए हैं कि सब कंफ्यूजन में हैं। कहां जांच करना है, जांच के बाद लैब में या अस्पताल में ही रूकना है या घर लौटना है, संक्रमित पाए जाने पर किसे घर में रहना है और किसे अस्पताल में भरती होना है, अस्पताल में भरती होने वालों में किसे चार दिन से दस दिन और किसे 14 से 30 दिन तक रहना है, इलाज में कौन सी दवा इस्तेमाल हो रही है, जिनके पास घर नहीं या बड़ा घर नहीं है उनको होम आइसोलेशन की क्या व्यवस्था है, सामुदायिक संक्रमण शुरू हुआ या नहीं, ऐसे हजारों सवाल हैं, जिनका आम लोगों के पास जवाब नहीं है। अगर उनमें हर दिन जारी होने वाले मंत्रालयों के दिशा-निर्देश पढ़ने की हिम्मत या समझ हो तभी वे इस बारे में जान सकते हैं।
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