बेबाक विचार

बैलगाड़ी से चंद्रयान...फिर भी गंगा शववाहिनी!

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बैलगाड़ी से चंद्रयान...फिर भी गंगा शववाहिनी!
पिछले तीन सौ सालों की भारत घटनाओं, भारत अनुभव में बैलगाड़ी से चंद्रयान के सफर के अलग-अलग वक्त पर गौर, तुलना करें तो सन् 2020-21 का सत्य है कि हमने पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की खोज से चंद्रयान, मेडिकल साइंस, अस्पताल, डॉक्टर भले बना डाले लेकिन इस सबके बावजूद भारत अंधे युग के अंधविश्वासों में जीते हुए वैसे ही है, जैसे तीन सौ साल जीते हुए था। इसका पर्याय गंगा है। तब भी गंगा में लावारिस मौतों के शव बहते थे और सन् 2020-21 में भी!
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भारत कलियुगी-3: हिंदुओं के अंध काल (कलियुग) के मायने क्या हैं? तो जवाब जड़ बुद्धि और अचैतन्यता है। डेढ़ हजार वर्षों में हम विदेशियों, विधर्मियों की गुलामी में जितने जीये हैं उन सबसे हमने पहिया, बैलगाड़ी, रेल, मोटर, हवाई जहाज, रॉकेट सब पाए। मेसोपोटामिया में ईसा पूर्व 3500 में बना पहिया कब भारत आया, कब बैलगाड़ी बनी इसकी जानकारी नहीं है। पर बैलगाड़ी से जैसी गति बनी, जो विकास हुआ तो आगे भी पश्चिमी सभ्यता से साइकिल, रेल, मोटर, विमान, रॉकेट हमें मिले और उनसे भारत बना। ऐलोपैथी से लेकर लोगों के जीवन को मानवीय, आसान, समझदार, दीर्घायु बनाने के जितने भी विकास दूसरी सभ्यताओं (ईसाई, इस्लाम, चाइनीज, जापानी आदि) में हुए हैं वे भारत में आते गए। उस नाते भारत दूसरों की गुलामी में रहा हो या पराश्रित (जैसे आज चीन, ताकतवर देशों का आर्थिक साम्राज्यवाद) रहा है तो वह वरदान इस नाते है कि इसके जरिए हमें लगातार नया और सब कुछ प्राप्त है। आत्मनिर्भरता का हमारा कॉन्सेप्ट यह नहीं है कि हम आविष्कार-रिसर्च से मौलिक उपलब्धि बनाए और हम दुनिया को देते हुए हों! कलियुग के कारण हममें नया रचने की आजादी और बुद्धि नहीं है। हमें अनुगामी बनना, नकल करना, जुगाड़ बनाना आता है। इसमें हर्ज नहीं है। आखिर विश्व को जब कुटुंब मानते हैं तो दूसरी सभ्यताओं के विकास से हम हिंदुस्तानियों का एंबेसडर, मारूति, चंद्रयान आदि बना लेना ठीक ही है।
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सो मुगलों की गुलामी ने भी हमारा कलियुगी जीना आगे बढ़वाया तो अंग्रेजों की गुलामी से सैकड़ों साल बाद बुद्धि कुछ ऐसे खुली, जिससे गोरों को देखते-समझते हुए मनुष्य की आजादी, मानवाधिकार, मानव गरिमा, समता, लोकतंत्र, राष्ट्र-राज्य की अवधारणा व राजनीति आदि का भभका बना। हिंदुओं में सोचा जाने लगा। कोऊ नृप हो हमें का हानी या जैसे रामजी रखेंगे वैसे रह लेंगे की बेसुधी व पलायन से बाहर निकल कर स्वराज का ख्याल आया। एक हिसाब से हजार-डेढ़ हजार साला गुलामी का पहला चरण विदेशी आक्रमणों से अप्रत्याशित सदमें का था तो दूसरा चरण खालिस गुलामी और समर्पण का था, जिसने हिंदू घरों में पलायन और भक्ति बनवाई। तीसरा चरण यूरोपीय पुनर्जागरण की छाया लिए अंग्रेजों की शिक्षा से हिंदू बुद्धि के खिड़की-दरवाजों का खुलना था। इन सब चरणों से हमने क्या पाया क्या गंवाया और दिल-दिमाग में कितने गहरे छापे बने यह अलग विश्लेषण का मसला है। फिलहाल सोचने वाली बात है कि बाहर से हमें जितनी भौतिक नई चीजें मिलीं तो उसमें बैलगाड़ी, रेल, वाहन, विमान, रॉकेट की तकनीक-सुविधाएं हैं वहीं आधुनिक चिकित्सा, शिक्षा, व्यवस्था, लोकतंत्र, व्यापार, मनोरंजन, खेल-कूद, खान-पान के तौर-तरीकों पर जीवन बनाना भी है। पर क्या कैसा जीवन?... क्या बैलगाड़ी से चंद्रयान के सफर में हिंदू का जीवन बना है? या उलटे कलियुगी पतन का उसका खड्डा गहराता हुआ है? जरा अकाल-महामारी के पिछले तीन सौ सालों की भारत घटनाओं, भारत अनुभव में बैलगाड़ी से चंद्रयान के सफर के अलग-अलग वक्त पर गौर, उनमें तुलना करें तो सन् 2020-21 का सत्य है कि हमने पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की खोज से चंद्रयान, मेडिकल साइंस, अस्पताल, डॉक्टर भले बना डाले लेकिन इस सबके बावजूद भारत अंधे युग के अंधविश्वासों में जीते हुए वैसे ही है, जैसे तीन सौ साल जीते हुए था। इसका प्रमाण गंगा है। तब भी गंगा में लावारिस मौतों के शव बहते थे और सन् 2020-21 में भी!
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सही है कि दूसरी सभ्यताओं से हमने आधुनिक चिकित्सा और विज्ञान ले कर मृत्यु दर घटाई। हमारी उम्र बढ़ी। जनसंख्या विस्फोट हुआ। तभी सन् 1918-20 की महामारी के वक्त तीस करोड़ लोग थे तो सन् 2021-22 में 140 करोड़ लोग हैं। बावजूद इस सबके जब महामारी आई तो लोग अंधविश्वास, कुव्यवस्था, आधुनिक चिकित्सा की बेसिक चीजों, जानकारी, सत्य, बिस्तर, दवा, इंजेक्शन, ऑक्सीजन की कमी में वैसे ही मरते हुए हैं, जैसे 1918-20 में मरते हुए थे। एक मायने में सन् 1918-20 में देश की तीस करोड़ आबादी के छह प्रतिशत लोगों की मौत गंगा किनारे अनजाने की शांत मौत थी। कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने 1918 में दालमऊ के गंगा किनारे जब देखा कि- जहां तक नज़र जाती थी गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं! दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गईं। मेरा परिवार मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया। मुझे अपने चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता था।...तो निराला को भी उस वक्त यह क्या- कैसे हुआ इसका पता नहीं था। बाद में उन्हें अखबारों से पता पड़ा कि हम एक बड़ी महामारी के शिकार हुए हैं। तब संचार साधन, आवाजाही और व्यवस्था का टोटा था। स्पैनिश फ्लू क्या है, कैसे इससे बचें, क्या करें इसका लोगों को भान नहीं था। इसलिए लोगों के बीच फ्लू पहुंचा और वे अज्ञानता-बेसुधी में मर कर गंगा में बहा दिए गए तो वह मुर्दा कौम की मुर्दा मौत का सहज अनुभव था। लेकिन सन 2020-21 में तो भारत वैसा नहीं है। भारत की भौतिक प्रगति, 140 करोड़ लोगों की भीड़ के बाजार से बनी वैश्विक ताकत व चंद्रयान, परमाणु ताकत आदि की तमाम बातों के हवाले भारत विश्व गुरू व विश्व नेता होने का दंभ लिए हुए है। आज अपनी सरकार है। पल भर में संदेश, फोटो, वीडियो इधर से उधर आते-जाते हैं। आधुनिक चिकित्सा, ऐलोपैथी के जगह-जगह अस्पताल-डॉक्टर है। मार्च 2020 में ही प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय आह्वान और पूरे देश में तालाबंदी करके 140 करोड़ लोगों को, पिछले सौ सालों के विकास की तैयारी में कथित समर्थ व्यवस्था को एलर्ट किया था। भरोसे से कहा था कि हम महामारी को हराएंगे।
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लेकिन सारी बातें, सारा विकास, सारा मेडिकल तामझाम महामारी के आगे ऐसा ढहा कि गंगा फिर शववाहिनी! लोगों ने, परिवारों ने फिर भोगा कि पलक झपकते मेरा परिवार मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया....किस कारण से? एंबुलेंस, ऑक्सीजन, डॉक्टर, दवा, प्रशासन, व्यवस्था के न होने से! ईमानदारी से दिल पर हाथ रख कर सोचें, सन् 2020-21 (आने वाले वर्ष भी) का भारत वक्त क्या है?जैसा सन् 1918-20 की महामारी का वक्त था उसकी पुनरावृत्ति है। जैसे सन् 1918-20 में लाखों लोग इधर-उधर पैदल भागते हुए थे वैसे सन् 2020-21 में करोड़ों लोग भागते हुए थे। बैलगाड़ी की जगह कथित हाईवे के बावजूद लोग झुलसती सड़कों पर नंगे पांव घर जाते या रेलों में भेड़-बकरियों की तरह ठूंसे हुए। सन् 2020-21 के भारत को सन् 1918-20 की महामारी के आईने में देखें या 1895-96 की प्लेग महामारी में, हर वक्त भारत की महामारी वैश्विक रिकार्ड बनाती हुई है। उससे पूर्व 1817-24 व 1881 की कोलेरा महामारी (तब दुनिया में भारत ‘फैक्टरी ऑफ कोलेरा’ के नाते चर्चित था) की तस्वीरें देखें तब भी मौत की भारतीय विभीषिका वैसी ही लावारिस-मारक थी, जैसे भारत के अकालों की भुखमरी में थी। कहते हैं 18वीं-19वीं-20वीं सदी में भारत में भूख-अकाल से मरने वाले लोगों का आंकड़ा जहां छह करोड़ था तो महामारी के 1918-20 के वक्त में कुल आबादी की छह प्रतिशत आबादी स्पैनिश फ्लू से तड़पते हुए मरी थी। तभी तीन सौ साल, तीन सदी की लिखित आपदाओं के रिकार्डेड वक्त और नई 21वीं सदी की महामारी का अनुभव क्या कौम की अचेतना, अवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और लूट-लापरवाही का अंधकाल नहीं है? विकास नहीं होने और विकास होने, बैलगाड़ी होने या चंद्रयान बना लेने के बावजूद गंगा बार-बार शववाहिनी बनने से श्रापित है तो जाहिर है कलियुगी भारत के बस में हिंदुओं के जीवन को सभ्य, गरिमापूर्ण बनाना नहीं है।..वक्त का जो श्राप है। क्या है श्राप? इस पर कल। (जारी)
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