गजब है। ऐसा कैसे है कि कोविड-19 वायरस विकसित-सभ्य देशों में इस जनवरी भारी तबाही मचाए हुए है जबकि पिछड़े-विकासशील देशों में वह खत्म सा हुआ लग रहा है? तभी वायरस की पहेली में वर्ष 2021 अधिक गंभीर व मारक है। भूल जाएं कि वैक्सीन आने, लगने से वायरस के खिलाफ वैश्विक इम्यूनिटी बनेगी।इन पंक्तियों को लिखते वक्त अमेरिका से एक दिन में 43 सौ मौतों का रिकार्ड आंकड़ा है तो दुनिया में 24 घंटों में संक्रमण का आंकड़ा आठ लाख से ऊपर है। दुनिया में सवा नौ करोड़ लोग संक्रमित हो चुके हैं और महामारी से अब तक बीस लाख लोगों की मौत हुई है। दुनिया के 221 देशों के आंकड़ों की लिस्ट में टॉप 25 देशों पर गौर करें तो भारत, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील (इस सहित लातिनी अमेरिका के पांच देश और वे भी खासे विकसित), तुर्की, ईरान, इंडोनेशिया को छोड़ कर अमेरिका व यूरोपीय विकसित देशों की संख्या टॉप 25 में बहुसंख्या में है और ये तमाम देश महामारी से जूझते हुए हैं जबकि भारत में जनवरी के आंकड़ों पर गौर करें तो लगेगा वायरस तो वैक्सीन के आने से पहले ही खत्म है। मानो वह हर्ड इम्युनिटी बन गई, जिससे टीकाकरण की अब क्या जरूरत है। सचमुच बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश में पहले दिन से ले कर आज तक के माहौल पर विचार करें तो लगेगा कि जो प्रदेश चिकित्सा, स्वास्थ्य बदहाली में आला हैं उनमें कोविड-19 से कभी चिंताजनक स्थिति बनी ही नहीं। वहां लोग कम मरे बनिस्पत विकसित राज्य महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, दिल्ली के।
तो क्या यह मतलब कि गरीब, पिछड़े, देशों, प्रदेशों के लोगों की जैविक रचना अमीर-विकसित देशों के लोगों के शरीर से अधिक प्रतिरोधक ताकतव हर्ड इम्युनिटी लिए हुए है? मगर यह सवाल या ऐसा सोचना बहुत बेतुका, शरीर की बॉयोलोजिक रचना के विज्ञान को नकारने वाली बात है।
तब फिर माजरा क्या? या तो यह कि विकसित देशों में लोगों की जागरूकता व चिकित्सा-मेडिकल की चाक-चौबंद व्यवस्था व सरकारों के सत्यवादी होने से वहां वायरस प्रभाव की सच्ची रिपोर्टिंग, खोजखबर और देखभाल है जबकि पिछड़े-लापरवाह-झूठे देशों में नागरिक क्योंकि रामभरोसे है तो लोग वायरस के साथ वैसे ही जी रहे हैं जैसे फ्लू, बुखार की बीमारी में जीते हैं। सरकार और व्यक्ति दोनों के स्तर पर न चिंता है और न टेस्ट हैतो वायरस के साथ जीने की आदत बनते हुए पूरी आबादी अब वायरस के खिलाफ हर्ड इम्युनिटी में तब्दील है। लोग बीमार हों तो चुपचाप इलाज कराएं और मरें तो बिना वायरस के चस्पे के! जब चिंता ही करना बंद कर देंगे तो महामारी अपने आप खत्म।
सो, कह सकते हैं कि अमेरिका, यूरोपीय देश, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन आदि विकसित देशों की व्यवस्था और वहां के लोगों का शरीर छुई-मुई वाला जबकि जितने गरीब-पिछड़े देश वहां लोगों का शरीर वायरस को मारने की लौह क्षमता लिए हुए! महामारी अमीर देशों, अमीर लोगों के लिए न कि गरीब देशों, गरीब लोगों के लिए! यह भी रहस्यमयी मसला है कि अमेरिका, इटली में वायरस पहले पहुंचा मगर वहां की 60 प्रतिशत आबादी में फटाफट संक्रमण के बावजूद हर्ड इम्युनिटी नहीं बनी, जबकि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों में वायरस ने आते ही 60 प्रतिशत लोगों को चुपचाप संक्रमित किया और हर्ड इम्युनिटी बन गई। मतलब कि अमेरिका में वैक्सीन से हर्ड इम्युनिटी बनेगी जबकि भारत में और खासकर भारत के सर्वाधिक गरीब-पिछड़े प्रदेशों में पहले ही हर्ड इम्युनिटी बन गई सो, न ज्यादा मौतें और न संक्रमितों की अधिक संख्या तो वैक्सीन की भी क्या जरूरत!
जाहिर है ये बेतुकी बातें हैं। सभी विज्ञान कसौटी में गलत। कोविड-19 का सत्य है कि वायरस फैलता है। वायरस की किस्म बदलती जाती है। इससे मौत कम होती है और संक्रमण व मौत के बीच का अनुपात कम है इसलिए जो देश या समुदाय भाग्य भरोसे जीते हैं उनके लिए महामारी सामान्य बुखार की तरह है जबकि एक-एक जान, एक-एक नागरिक की चिंता करने वाले ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, अमेरिका जैसे विकसित-सभ्य देशों में कोविड-19 का अर्थ है खौफनाक आपदा!
सोच, एप्रोच का यह फर्क महामारी को वैक्सीन के बावजूद जिंदा रखेगा। भारत या पाकिस्तान या तीसरी दुनिया के देशों में वायरस के साथ जीना सहज-रूटिन प्रवृत्ति बनेगी और लोग चुपचाप सिसकते मरते रहेंगे। लेकिन विकसित देशों ने महामारी को क्योंकि गंभीर लिया हुआ है तो वे देश अपने को पूरी तरह सुरक्षित बनाने में साल भर जुटे रहेंगे और भारत जैसे पिछड़े-लापरवाह देशों से संपर्क-नाता या तो रखेंगे नहीं या न्यूनतम रखेंगे। तभी विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह कहना गलत नहीं है कि टीकाकरण के बावजूद 2021 में वैश्विक हर्ड इम्युनिटी संभव नहीं है। न तो गरीब देशों में पूरी जनता तक टीका पहुंचेगा और न वहां लोग टीका लगवाएंगें और जिस तेजी से वायरस की किस्म बदल रही है तो तैयार वैक्सीन के प्रभावी होने के अलग सवाल है। जो हो, एक साल का महामारी अनुभव यह गंभीर सवाल बना चुका है कि अमीर देशों के महामारी के अनुभव और पिछड़े-विकासशील देशों के अनुभव में इतना फर्क कैसे है और क्या-क्या वजह है?
भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक। ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।
आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।
संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।