बेबाक विचार

पत्रकार सब्जी बेच ज्यादा संतुष्ट!

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पत्रकार सब्जी बेच ज्यादा संतुष्ट!
पिछले दिनों एक पूर्व सहयोगी महिला पत्रकार का फोन आया जो विदेश के एक बहुत प्रतिष्ठित अखबार समूह में काम करती थी। वे काफी वरिष्ठ थी। उन्होंने बताया कि पिछले दिनों उस प्रकाशन समूह ने अपनी सभी पत्रिकाएं बंद करने के बाद तमाम वरिष्ठ लोगों सहित नए पत्रकारो को भी दो-दो माह का वेतन व नोटिस देकर उनकी छंटनी कर दी। अब सब लोग अपने घरों पर बैठे हैं या नई नौकरी की तलाश में धक्के खा रहे हैं। आजकल वह अपना सारा समय चपड़ासी से लेकर दूसरे पत्रकारों तक के लिए नौकरी ढ़ंढ़ने में लगा रही है। संयोग से यह महिला पत्रकार काफी संपन्न परिवार से है व उन्हें ज्यादा आर्थिक दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ रहा है। इसके आगे उन्होंने जो बताया वह तो मुझ हतप्रभ करने वाला था। उन्होंने बताया कि उनके एक परिचित पत्रकार ने नौकरी छूटने के बाद जब मकान के किराए से लेकर घर का खर्च चलाने जैसी दिक्कते झेली तो उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में नौकरी न मिलने के कारण कमाई का दूसरा रास्ता ढूंढ़ते हुए गाजियाबाद में अपनी सोसायटी के बाहर सब्जी का ठेला लगा दिया व एक दिन पहले सोसायटी में रहने वाले लोगों से आर्डर लेकर अगले दिन उन्हें उनके घर तक सब्जी पहुंचाने लगा। इससे उन्हें औसतन हर रोज 2000 रुपए की कमाई होने लगी। अब उसका कहना है कि अगर मैंने काफी पहले ही पत्रकारिता की नौकरी छोड़ दी होती तो आज मैं कहीं ज्यादा संपन्न होता। उन्होंने बताया कि जब से व्यापारिक घरानों में नई पीढ़ी ने कामकाज संभाला है उनकी सोच ही सबसे अलग है। जब उनके अखबार को चलाने वाले व्यापारिक घराने में युवा लड़के ने कमान संभाली तो उसका कहना था कि क्नाट प्लेस जैसी महंगी जगह पर हमें विज्ञापनो व बिक्री के जरिए अखबार से कमाई हो रही है। उससे ज्यादा कमाई तो अखबार व प्रकाशन समुह बंद करके उस जगह को किसी बड़ी कंपनी को मौटे किराए पर उठाने से हो जाएगी व उसमें  किसी तरह की कोई सिरदर्दी भी नहीं लेनी पड़ेगी। देश का सबसे बड़ा अखबार होने का दावा करने वाले एक अखबार ने अपने तमाम संस्करण बंद कर बड़ी तादाद में संपादक स्तर तक के पत्रकारो की छुट्टी कर दी है। यही हालात खबरिया चैनलो की है। पत्रकारिता का क्षेत्र बुरी तरह से पिट रहा है। यह सब पढ़ व सुनकर मुझे एक घटना याद आती है। बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली प्रेस में नौकरी (पत्रकारिता) करता था। हमारे संपादक मालिक परेश नाथ पत्रकारिता के क्षेत्र में नए प्रयोग करना चाहते थे मगर खर्च करने में उनका विश्वास नहीं था। वे चाहते थे कि कम खर्च में काम हो जाए। मैं युवा पत्रकार था व इस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता था। अतः मैं रिपोर्टिंग के लिए कहीं भी जाने के लिए तैयार रहता था व बस से लेकर रेलगाड़ी की द्वितीय श्रेणी तक में सफर करता था। उसका लाभ यह होता था कि उन्हें कम खर्च में घटना स्थल पर भेजकर रिपोर्ट हासिल करने का अवसर मिल जाता और मेरी पत्रकारिता की रिपोर्टिंग का अनुभव बढ़ता जाता। 1980 के दशक की शुरुआत में जब असम में बांग्लादेशी विदेशी नागरिको का मुद्दा उफान पर था व वहां काफी हिंसा हो रही थी तब उन्होंने मुझसे वहां जाकर रिपोर्टिंग करने को कहा। मैं व मेरो फोटोग्राफर साथी सुभाष भारद्वाज इसके लिए तुरंत तैयार हो गए। हम लोग असम एक्सप्रेस में दूसरी श्रेणी की टिकट लेकर 24 घंटो की यात्रा करने के बाद गुवाहाटी पहुंचे। उन दिनों सरकार ने चुनाव के दौरान तमाम वाहनो व होटलो को जब्त कर रखा था। संयोग से राजेश पायलट वहां प्रचार के लिए आए थे। उनसे मेरा पुराना परिचय था। मैंने सुभाष से अपना सबसे लंबा लैंस कैमरे में लगाकर उनकी फोटो खिचवाते हुए इंटरव्यू किया। इंटरव्यू खत्म होने पर मैंने उनसे कहा कि हमारे रहने की बड़ी समस्या है। उन्होंने तुरंत स्थानीय अधिकारियों को फोन करके सरकारी सर्किट हाउस में हमारे रहने का प्रबंध करवा दिया। वहां हमें 12 रुपए 1 दिन पर कमरा मिल गया। वहां मिलने वाला खाना व चाय भी काफी सस्ती थी। हम तो खर्च के लिए बहुत कम पैसे लेकर आए हुए थे। अब समस्या वाहन की आई। दिल्ली प्रेस में तमाम पत्रिकाएं प्रकाशित होती थी। इनमें सरिता बहुत विख्यात थी। खासतौर से व्यापारी वर्ग में उसका काफी प्रभाव था। उसमें आमतौर पर सरकार व धर्म विरोधी लेख छपा करते थे। अतः मैंने अपने पर खर्च किए जाने वाले पैसे पूरे वसूलने के लिए कुछ और लेख लिखने के लिए असम में व्यापार कर रहे उत्तर भारतीय लोगों से मिलने का फैसला किया। वहां का एक युवा व्यापारी घराना गोयनका परिवार था। जिनके असम में पेट्रोल पंप से लेकर शोरूम आदि थे। उनके परिवार के एक युवा सदस्य से हमारी दोस्ती हो गई व उन्होंने हमारी बहुत मदद की। उनके लिए दिल्ली से आए किसी पत्रकार से दोस्ती बहुत बड़ी बात थी। उन्होंने हमें अपने वाहन उपलब्ध करवाए। जब हम उसके शीशे पर प्रेस लगाकर उनके साथ घूमते तो उनका गर्व से भरा चेहरा देखने लायक होता था। जब हम लोगों के चलने की बारी आई तो उन्होंने हमारे सम्मान में अपने घर पर दावत आयोजित कर अपने तमाम परिचितो को बुलाया व हमें कुछ उपहार भी दिए। वे हमसे कहने लगे कि हमारे दादाजी से भी मिल लीजिए। हम उनके साथ एक कोठरी में तख्त पर लेटे उनके बुजुर्ग दादाजी से मिलने गए तो उन्होंने उनसे परिचय करवाते हुए कहा कि दादा ये पत्रकार हैं, दिल्ली से आए हैं। हमारी तारीफ सुनने के बाद दादाजी ने उनसे पूछा- पत्रकार है तो ठीक है मगर इनका धंधों के है? रोटी वोटी कैसे चले हैं। यह सुनते ही हमें लगा कि किसी ने हमारे ऊपर घड़ी पानी डाल दिया हो व हमारी हालात प्रेमचंद की कहानी नशा के मुख्य पात्र वाली हो गई व आज पत्रकारो की जो हालात हो रही है उसे देखकर 'धंधो के है?' शब्द याद आ रहा हैं।
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