बेबाक विचार

बीमार घर जैसे हो आर्थिकी की चिंता

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बीमार घर जैसे हो आर्थिकी की चिंता
लॉकडाउन के साठ दिन-4:  भारत सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की बुद्धि पर जरा विचार करें। ये क्या सोच कर वायरस के साथ जनता को लिव-इन-रिलेशन, सह जीवन में जीने की बात कर रहे हैं? ताकि आर्थिकी खत्म न हो। वह फिर चलने लगे। अब पहली बात आईसीयू-वेंटिलेटर पर लेटी आर्थिकी याकि मरीज को डॉक्टर कितना ही खड़ा करना चाहें, चाहने से मरीज खड़ा नहीं हो सकता। नोटबंदी के बाद से आर्थिकी आईसीयू में है और उसको कोरोना ने वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया है तो मजदूर-फैक्टरी मालिक-सरकार किसी के बस में मरीज को चलाना संभव नहीं है। बीमारी खत्म होने पर ही वह चलेगा। तर्क है कि वायरस खत्म नहीं हो रहा, उसका इलाज नहीं है तो कितने महीनों वैक्सीन का इंतजार करेंगे, कितने महीने वेंटिलेटर पर आर्थिकी लेटी रहेगी? इसलिए वायरस से सहजीवन में आर्थिकी को चलाएं। मतलब वायरस काबू में नही है तो कोई बात नहीं हमें अपना काम करना है। मृत्यु दर कम है, हम मरेंगे नहीं तो आर्थिकी के मुंह पर वेंटिलेटर नली, मास्क लगा कर उसके पहिए चलाएं। जाहिर है यदि हाथ-पांव नहीं चले, जहान की चिंता नहीं हुई तो लेटे-लेटे मर जाएंगें। सवाल है महामारी में क्या ऐसे सोचा जाता है? क्या दुनिया के किसी देश में इस अनुसार आर्थिकी रिओपन हो रही है? ताला खोलने, आर्थिकी शुरू करने का जिस भी देश में फैसला हुआ है या हो रहा है, वह वायरस को काबू करके, टेस्टिंग, ट्रेसिंग, रिस्पोंस, इलाज की मेडिकल व्यवस्था के बाद है। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, स्पेन आदि सभी जगह वायरस को दबा कर, मौत-मरीजों की संख्या घटा कर आर्थिकी ओपन हो रही है। डोनाल्ड ट्रंप आर्थिकी खुलवाने की जिद्द के बावजूद करोड़ों टेस्ट कराने का बंदोबस्त बनवा रहे हैं। ऐसी एप्रोच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की नहीं है। इनका फिलहाल मंत्र है वायरस के साथ जीना है। प्रधानमंत्री मोदी का लॉक़डाउन 1.0, लॉकडाउन 2.0 में जान की चिंता पर फोकस था। उन्होंने लॉकडाउन 3.0 आते-आते आर्थिकी को वेंटिलेटर पर लेटा बूझा तो रिवर्स में देश का यह नैरेटिव बनवा डाला, जहान बचाओ! भारत को कोरोना वायरस के साथ लिव-इन-रिलेशन में रहना है। वायरस के साथ सहजीवन भारत के लिए ऐतिहासिक मौका है, इससे आत्मनिर्भर, स्वदेशी, विकसित न्यू इंडिया का जन्म होगा। सवाल है प्रधानमंत्री मोदी 24 मार्च को वायरस के कारण भारत के 21 साल पिछड़ने का जब डर लिए हुए थे तो अब वे उसकी बजाय आर्थिकी के बीमार होने का दुस्वप्न क्यों देख रहे है? वे पहले वायरस को भगाने के लिए थाली-ताली बजवा रहे थे, उस पर जीत के दीये जलवा रहे थे और अब वे कैसे उसके साथ 138 करोड़ लोगों का यह लिव-इन-रिलेशन बनवा रहे हैं कि चलो साथ-साथ, वायरस भी फैले और आर्थिकी भी चले! उस नाते भारत राष्ट्र-राज्य का आज का मुकाम संभवतया पूरे इतिहास का, आजाद भारत का तो अनिवार्यतः वह वक्त है, जिससे प्रमाणित है कि मां भारती बुद्धि और सत्य से किस कदर शून्य हैं। मैं अब इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा हूं कि कोरोना वायरस हम हिंदुओं की एंटी-थीसिस, भारत की रचना को खाने वाली बीमारी है। सर्वाधिक बुरा भारत के साथ होगा। सोचें, (शायद ही किसी ने सोचा होगा) भारत कोविड-19 के लिए कैसे आदर्श स्थिति है? एक शब्द में वजह और जवाब है ‘भीड़? भीड़ मतलब? वह जो घनी बसी हुई है, बाड़ों में घनी बसावट की बुनावट को लिए, निरक्षर, अंधविश्वासी और बिना साधन व बिना मेडिकल-वैज्ञानिक सोच के जीवन जीती है। तभी आने वाले महीनों, सालमें 138 करोड़ भारतीयों की जिंदगी को वायरस बदलने वाला होंगा। यह वायरस भारत को सर्वाधिक बदलेगा, उसकी तासीर को सर्वाधिक खाएगा। चीन भीड़ में नंबर एक है। लेकिन चीन की भीड़ पैसा, अमीरी, सिस्टम, वैज्ञानिकता, तानाशाही लिए हुए है। इसलिए वहां वायरस के लिए अधिक मौका नहीं बना। ऐसे ही रूस, अमेरिका, ब्राजील आदि देश भी अपनी भीड़ पर वायरस को हावी नहीं होने देंगे। जबकि भारत की 138 करोड़ की भीड़ के पास इन देशों जैसी कोई ताकत, क्षमता नहीं है, जिससे वह वायरस से इनकी तरह लड़ कर मुकाबला कर सके।कहीं इसलिए तो भारत राष्ट्र-राज्य और उसकी व्यवस्था, उसके प्रधानमंत्री, उसकी संस्थाओं ने वायरस को नियति मान उसके साथ सहजीवन वाली एप्रोच नहीं अपनाई है? मैं भटक रहा हूं। इस पर आगे लिखूंगा। बुनियादी बात है कि वायरस के आगे भारत क्या करे? जवाब में बहुत कुछ कहने को है। लेकिन मोटे तौर पर मोटी बात है कि जैसे भारत के आम घर ने, आम भारतीय ने इस बीमारी की चुनौती से बचने की एप्रोच बनाई है उसे प्रधानमंत्री मोदी, भारत सरकार को क्यों नहीं अपनाना चाहिए? मतलब? सोचें क्या मतलब बनता है? मतलब है परिवारों में, घरों में यदि मौत का, बीमारी का सामना घर जा कर, घर में रहते हुए हो रहा है तो सरकार भी क्यों नहीं इस बेसिक एप्रोच में व्यवहार बनाए? भारत और भारत के 138 करोड लोग सरवाइव करें, जिंदा रहें इसी प्राथमिकता में सरकार की व्यवस्था काम करे। जब पता है कि आर्थिकी पहले से ही आईसीयू में है। पता है अपने घर में रह कर अपने बूते अपने को बचाना है तो खुद का, लोगों का ध्यान क्यों जान और जहान याकि आर्थिकी को बचाने जैसी बातों में सरकार भटकाए। हां, भारत के 138 करोड़ लोगों को मालूम है कि महामारी में जान जाती है। उससे बचने के लिए घर में बंद रहना है। यह बात भय और समझदारी दोनों के चलते दिल-दिमाग में पैठ गई है। सर्वाधिक शिकार हो सकने वाली गरीब आबादी भी जब घर में भूखे रह कर वायरस का मुकाबला करने को तैयार है तो सरकार को इनके लिए साल-सवा साल रोटी-चटनी का प्रबंध करना चाहिए या यह मूर्खतापूर्ण हल्ला करवाना चाहिए कि वापस शहर लौटो और वायरस के साथ जीना सीखो! क्या मैं गलत लिख रहा हूं? कोविड-19 वायरस जब सघन-साधनविहीन भीड़ में चुपचाप घर-घर पहुंचने की ताकत लिए हुए है तो सरकार को लोगों को घर में घुसाए रखना चाहिए या उन्हें घर से निकाल कर उन्हें भीड बनाए रखना चाहिए? ऐसा करने से कितने करोड़ संक्रमित होंगे और हर संक्रमित के साथ मानसिक-आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक कितनी तरह के नकुसान होंगे? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार अंबानियों-अदानियों, एयरलाइंस, कारों, मैन्यूफैक्चरिंग, सर्विस सेक्टर, सरकारों के बजट की चिंता में आर्थिकी को बचाने की जो फूं-फां कर रही है, उसका भारत के 130 करोड़ (मलाईदार आठ करोड लोगों को छोड़ दें) लोगों के लिए मतलब नहीं है। कोविड-19 के वायरस ने दुनिया के आगे निर्ममता के साथ भारत की इस हकीकत को जाहिर कर दिया है कि दुनिया के सर्वाधिक भूखे-नंगे लोग भारत में हैं। सर्वाधिक फेल सिस्टम भारत का है। गरीबी दूर हो जाने का सत्तर साल से जो नैरेटिव चल रहा था वह करोड़ों-करोड़ घर लौटते लोगों के चेहरों की दिन-प्रतिदिन दिखती हकीकत से फ्रॉड प्रमाणित है। सो, लब्बोलुआब- एक, भय और समझदारी में भारत की बहुसंख्यक आबादी ने वायरस के खतरे में घर में रहना सुरक्षित माना है। दो, लोग अपने घर-अपने गांव भूखे तब तक रह लेंगे जब तक वैक्सीन नहीं आ जाती। तीन, घर में रहते हुए परिवारों को यदि सरकार रोटी-चटनी-पानी की सप्लाई नियमितता से करा दे तो ऐसा करना आर्थिकी की आठ-दस प्रतिशत विकास दर से बड़ा पुण्य और श्रम शक्ति को बचाए रखने की ठोस आर्थिक रणनीति होगी। चार, आईसीयू-वेंटिलेटर पर लेटी आर्थिकी अपने आप तब बची रहेगी जब श्रम शक्ति घर में सुरक्षित फील करेगी। आखिर भीड़ का बचना ही भारत की नेचुरल ताकत की सुरक्षा है। पांच, जैसे घर में रह रहे लोग-परिवार अपने पैसे, अपनी बचत, अपने जुगाड़ में आठ-दस महीने जीवन जीने का बजट, रीति-नीति बना रहे हैं उस अनुसार सरकारों की भी एप्रोच हुई तो मितव्ययता बनेगी, खर्चे घटेंगे और न्यूनतम आवश्यकता में जीने की एप्रोच में सुधार संभव है तो बैंकों से कर्ज और सरकारों से दिवालिया हुई कंपनियों, फैक्टरियों, सर्विसेज में भी अपने आपको बदलने, सुधरने का मौका मिलेगा। छह, सबसे बड़ी और अहम बात कि मूल सकंट याकि वायरस के आगे जनता और सरकार दोनों का समभाव घर में अपने-आपको रखते हुए बीमारी से निपटने पर फोकस बना रहेगा। बीमारी भगाओ देश बचाओ पर सौ टका फोकस। सचमुच, सोचें पैदल जाता गरीब चेहरा घर जा कर भूखा रहने को तैयार है। उसकी पहली चिंता बीमारी है और वह संभव नहीं मानता बीमारी के साथ सहजीवन को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इन लोगों की जान, उसकी सोच, उसके घर की एप्रोच में मां भारती पर वायरस सूतक में सादी रोटी-चटनी की बजाय हवाई जहाज चलवाने, दारू बिकवाने, बाजार खुलवाने याकि भीड़ को फिर आबाद करवाने की फितरत में कैसे हैं? जवाब में फिर भारत की बुद्धि का सवाल है।
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