दिल्ली की हवा फिर से खराब हो गई है। यह महज नमूना भर है कि अब जबकि लॉकडाउन के बाद आम गतिविधियां बहाल हो रही हैं, तो फिर पर्यावरण का क्या हाल होने जा रहा है। यह सच है कि लॉकडाउन से और चाहे जो नुकसान हुआ हो, लेकिन पर्यावरण का इससे भला हुआ था। यह बात अब शोधकर्ताओं ने भी सिद्ध कर दी है। उन्होंने तथ्यों के साथ ये बात सामने रखी है कि 2020 की पहली छमाही में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अभूतपूर्व गिरावट देखी गई। यह गिरावट 2008 के वित्तीय संकट और यहां तक कि द्वितीय विश्व युद्ध की तुलना में बहुत अधिक रही। शोधकर्ताओं का कहना है कि कोरोना वायरस के कारण सरकारों ने संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए लॉकडाउन लागू किया। उसके बाद यातायात, बिजली उत्पादन और हवाई जहाजों से होने वाला कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन बंद हो गया। शोधकर्ताओं ने प्रति घंटे के हिसाब से बिजली उत्पादन, वाहन ट्रैफिक से जुड़े डेटा को दुनिया के 400 से अधिक शहरों से इकट्ठा किया।
उन्होंने दैनिक यात्री उड़ानों और मासिक उत्पादन और खपत समेत डेटा का इस्तेमाल करते हुए निर्धारित किया कि उत्सर्जन में बड़ी गिरावट आई थी। इसके आधार पर उन्होंने कुछ बुनियादी कदम सुझाए हैं, जो वैश्विक जलवायु को स्थिर करने के लिए उठाए जा सकते हैं। गौरतलब है कि कई देशों में जुलाई 2020 तक प्रदूषण अपने सामान्य स्तरों पर लौट आया, क्योंकि वहां लॉकडाउन के नियम नरम कर दिए। वैज्ञानिकों ने कहा है कि उत्सर्जन पर महामारी के प्रभाव पर ताजा अध्ययन अभी तक का सबसे सटीक अध्ययन है। इस अध्ययन में टाइमलाइन भी शामिल थी, जो दिखाती है कि हर एक देश में लॉकडाउन के उपायों के मुताबिक उत्सर्जन कैसे घटा। यह शोध नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में छपा है। शोधकर्ताओं ने पाया कि 2020 की पहली छमाही में गाड़ियों से निकलने वाला कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 40 फीसदी कम हो गया। बिजली उत्पादन से 22 फीसदी और उद्योग से 17 फीसदी उत्सर्जन कम हो गया। पेरिस जलवायु समझौते के तहत देशों को तापमान 2 डिग्री के भीतर सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है। इसी समझौते में इस मकसद को हासिल करने के लिए विभिन्न देशों से ग्रीन हाउस गैसों में कटौती को कहा गया है। मगर इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। इसीलिए लॉकडाउन के दौरान कार्बन उत्सर्जन पर हुआ अध्ययन अहम है। इससे दुनिया को सीख लेनी चाहिए।
दुनिया ने आखिर क्या सीखा?
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