लोग मेरा अहोभाग्य कहेंगे जो मैं देश की चौखट दिल्ली में रहा। हां, दिल्ली का एक अर्थ दहलीज, चौखट भी है। इस चौखट में छुपा हैभारत का तिलिस्म! मैंने इसलोकेशन के तिलिस्म को भेदने की कोशिश मेंजिंदगी के 45 वर्ष जाया किए। दिल्ली से मैं भारत के सत्य को जानने के लिए भटका। मेरी वह नासमझी थी। बहुत बाद में समझ आया कि दिल्ली ही भारत का श्राप है। वह श्राप, जिसमें हमारी नियति है भेड़-बकरी माफिक जीवन जीना। इसी के चलते हमें बार-बार बंधुआ, गुलाम, कायर, बदतर, नकलची और लूट व भ्रष्टाचार की जिंदगी में पुनर्जन्म लेना है।
कहते हैं दिल्ली इंद्रप्रस्थ काल से चिरंतन है। तभी हिंदू नियति में लाख का यह वह सत्तामहल है, जिसमें हम हिंदुओं को जलना ही जलना है। धर्मराज युधिष्ठर हों या मूर्ख दुर्योधन, महाभारत होगा ही होगा। हिंदू के नसीब में नहीं है समझदारी का राज और राष्ट्र! इंद्रप्रस्थ व दिल्ली की भूख स्थायी है। इसके लाक्षागृह, इसके तिलिस्म, इसकी मुर्दा जमीं हमेशा जिंदगियों को लूटनेके विषाणुओं से तरबतर रही है। जनता की कोई जागृति, उसका कोई आंदोलन उन्हें मिटा नहीं पाया। युधिषठर और दुर्योधन का मतलब नहीं है, पृथ्वीराज और नादिर शाह का मतलब नहीं है, पंडित नेहरू और नरेंद्र मोदी का मतलब नहीं है और न ही किसी राज्याज्ञा या संविधान का! सबदिल्ली के लिए आई-गई बात है। दिल्ली किसी की सगी न थी, न है और न रहेगी। दिल्ली इस पृथ्वी का सबसे बड़ावह मुर्दाघर है, वह कब्रिस्तान है, जिसमे लाखों-लाख बादशाह, राजा, लाटसाहब, गवर्नर, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, वजीर-कारिंदे, नेता, नुमाइंदे, थानेदार जमींदोज हैं। इनमें से किसी से भी न दिल्ली बनी और न देश बना और न इस देश के हिंदुओं ने कभीकोई स्वर्णकाल भोगा। उलटे हिंदू हमेशा लूटते रहे, अपने को लुटाते रहेफरमानों से, भ्रष्टाचार से। फिर भले माध्यम तलवार हो, लफ्फाजी हो, महामारी हो या भेड़-बकरी-कुलियों के बाड़ों वाली गुलामी।
दिल्ली का यह भी सत्य है कि इसके तिलिस्म में अपनी लूट की पताका से, अपने आपको चक्रवर्ती राजाकरार दे कर जिन राजाओं, बादशाहों, प्रधानमंत्रियों नेफूंफकारा मारा उन सभी को दिल्ली ने गुमनामी से जमींदोज किया। तलवार, अंहकार, घमंड, गुरूर, हेकड़ी में कितने ही बादशाह, प्रधानमंत्री, वजीर, थानेदार दिल्ली की सत्ता परबतौर अवतार बैठे, अपने को भगवान बनाया लेकिन इन सबको दिल्ली के तिलिस्म ने ऐसे भटकाया, निगला, खाया, दफनाया कि ढूंढे नहीं मिलेगी पृथ्वीराज की छतरी या मोहम्मद गोरी कानाम लेवा। कहते हैं1947 से पहले गोरी महारानी, गोरे लाटसाहबों के दिल्ली में कई बुत थे। पता नहीं वे इन दिनों कहां धूल खा रहे हैं। उनकी जगह आजादी ने नए बुत लगवाए लेकिन नोट रखें इन बुतों को भी दिल्ली का तिलिस्म वैसे ही निगलेगा, विस्मृत करेगा, जिसके रंज में मरते-मरते बहादुर शाह जफर लिख गए – दिल्ली ‘जफर’ के हाथ से पल में निकल गई!
मैं इस जल्लाद तिलिस्म में जून 1975 में घुसा। तब महारानी इंदिरा गांधी का इमरजेंसी फरमान जारी हो चुका था। फिलहाल सन् 2020 है। तब से अब के सफर का इकलौता सत्य दर्शन है कि हस्ती है कि मिटती नहीं तो बनती भी नहीं। तब डंडे का सन्नाटा था आज वायरस का खौफ है। लोग तब भी बेजुबान थे अब भी है। तब भी उल्लू बने हुए थे अब भी बने हैं। लोगों के फेफड़ों को खुली, साफ, आजाद ऑक्सीजन का तब भीटोटा था और आज भी है।
सोचें, पंद्रह अगस्त 1947 के भारत में (अंग्रेजों के वक्त की व्यवस्था) हालात क्या थे और आज कैसे है? 45 साला अनुभव का अपना निचोड़ है कि दिल्ली के तिलिस्म में जिंदगी का मूल्य सबसे कम है। गण जीरो है और तंत्र ही सबकुछ है। इंसान का मतलब भेड़-बकरी के माफिक। मालिक हांकेगाऔर जनता हंकेगी। इंसान की जिंदगी और जीवन जिस मनुष्यता, मानवता, मानवाधिकारों से खिलती है और सभ्य, सुंसस्कृत, बुद्धिमान याकि सभ्यता के स्वर्णकाल के जो गुण, अनुभूतियां वह लिए हुए होती हैं वैसा कुछ भी दिल्ली के जल्लाद तिलिस्म को गुलाम कौम के लिए मंजूर नहीं। मुगलों के बनाए लालकिले को याद करें या अंग्रेजों के बनाए राष्ट्रपति भवन, नॉर्थ-साउथ ब्लॉक या संसद भवन की इमारतों पर गौर करें, वहां बैठे हाकिमों, कारिंदों के चेहरों का सत्य बूझें तो दिल्ली के तिलिस्म के ये तमाम ऐयार क्या खुदगर्जी में जीने वाले, बेवकूफ बनाने वाले उन कारिंदों, उन कोतवालों का पुनर्जन्म लिएनहीं लगेंगे, जो लालकिले के मुगलों के वक्त भी लोगों को गुलाम रखते थे!
मैं भटका हूं। लेकिन दिल्ली के तिलिस्म को 45 साल से खोजते हुए, उसमें भटकते हुए मेरा सार दो टूक है। हमें सनातनी श्राप में रचे तिलिस्म में जकड़े रहना है।हमें निरर्थक, अमानवीय जिंदगी जीना है। भारत और भारत के हम लोग अपना स्वर्णकाल कभी नहीं बना सकते हैं। इसलिए कि हमारा उस लायक डीएनए ही नहीं है। वह मिट्टी ही नहीं है। वह बुद्धि ही नहीं है। सामान्य जन कल्पना नहीं कर सकता है कि दिल्ली में जमींदोज कितने लाख वजीर, कोतवाल, कारिंदे, लुटेरे, भ्रष्टाचारी अपनी भूतहा उपस्थिति के साथ आज भी सत्ता के गलियारों को भ्रष्ट, बुद्धिहीन, लुटेरा बनाए हुए हैं। जरा सोचें, तुलना करें कि दुनिया की तमाम राजधानियों ने अपनी कौम को अपने जिंदा वक्त में अपना स्वर्णकाल बनाकर उन्हें कैसे गौरवान्वित किया, जबकि दिल्ली से एक भी बार ऐसा नहीं हुआ। वह हमेशा लुटने, डराने का भूतहा तिलिस्म ही बनी रही।
रोम बना, लंदन बना, वाशिंगटन, बीजिंग, टोक्यो, सिंगापुर सब ने अपना स्वर्णयुग बनाया और दिल्ली ने कभी नहीं तो क्यों? हिंदुओं को श्राप है या हिंदुओं की वजह से ऐसा है? यह सवाल 45 वर्षों में अनुभव के साथ मेरे दिल-दिमाग में लगातार बना रहा लेकिन जवाब नहीं मिला। ले दे कर यहीं समझ आया कि हम हिंदू होमो सेपिंयस की वह शाखा हैं, जिसकी हस्ती है कि मिटती नहीं तो फल भी नहीं देती।
इस सत्य में आज का वक्त मील का पत्थर है। मैंने दिल्ली को बहुत खंगाला। जेएनयू, नई दिल्ली, उसका बहादुरशाह जफर मार्ग (अखबारों के दफ्तरों का इलाका), संसद भवन, संसद भवन का सेंट्रल हॉल, नॉर्थ-साउथ ब्लॉक, प्रधानमंत्रियों के चेहरों से लेकर कैबिनेट सचिव, रॉ-आईबी प्रमुख, आईएनए और उसके अनुभवी और अपने हमउम्र पत्रकारों के संसर्ग में, इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी के पीएमओ, ज्ञानी जैलसिंह से ले कर अमित शाह के गृह मंत्रालय में चेहरों की तासीर और निज संवाद आदि के तमाम अनुभवों का निचोड़ है कि दिल्ली की आबोहवा में, सत्ता की भारत की तासीर में इतिहासजन्य वे विषाणु स्थायी तौर पर रचे-बसे हैं, जिनसे तिलिस्म के ऐय्यारों को यह बुद्धि, यह समझपैंठ नहीं सकती है कि दुनिया में बाकी जगह कैसा है विकास? इन्हें समझ नहीं आ सकता कि विकास तभी संभव है, स्वर्णकाल तभी संभव है जब इंसान को पहले निर्भीक, सत्यवादी बना गुलामी के तिलिस्म से बाहर निकालें। उसे इंसान बनाया जाए। उसे बुद्धिमना, जागरूकऔर मानवीय गरिमाओं से भरा-पूरा बनाने का जतन पहले हो। वह पहले आजादी से उड़ना सीखे। इंसान उड़ेगा तो कौम का, देश का उड़ना हो सकेगा।
मैंने इस सत्य को दिल्ली की 45 साला जिंदगी में जाना। मगर हां, इसमें एक रोल जिंदगी की तीसरी लोकेशन याकि लंदन का भी रहा है। इस पर कल। (जारी)