आपने कभी अपने वंश वटवृक्ष पर सोचा है? उससे समझा है कैसे बचपन ने आपको रचा? मैं और आप जिन वशंवृक्षों की बदौलत हैं उसका ब्योरा बना सकना, रेखाचित्र बना सकना असंभव सा काम है। पेड़ के पत्ते को कहां मालूम होता है कि जिस शाखा पर वह है, और वह शाखा जिस तने से निकली है उस तने की जड़ें कितनी गहरी और किन नामों से चिन्हित हैं। मैं जब शास्त्रीय मूड लिए हुए होता हूं तो कुमार गंधर्व की आवाज में कबीर का लिखा यह सत्य कानों में गूंजता है कि ‘उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला … जैसे पात गिरे तरूवर से, मिलना बहुत दुहेला..’
हां, इंसान अपने-अपने कालजयी वंशवृक्ष पर वक्त विशेष में दुनिया के मेले को देखने के पत्ते वाली निर्गुणता ही लिए हुए होता है। शाखाओं पर पत्तों का जन्मना और उम्र के साथ सूख कर पत्तों के ढेर में खोना प्राणों कावह निर्गुण, निराकार अस्तित्व है, जिस पर इतराने की गुंजाइश ही नहीं है। बावजूद इसके इंसान के फितरत के क्या कहने। इंसान को निर्गुणता में छोड़ें या फितरत में जानें? मेरी बुद्धि एक तरफ अफ्रीकी गुफाओं के चिंपाजी की बुद्धि चेतना वाले आदि मानव से शुरू, होमो सेपियंस के सफरसे इंसान को बूझती है तो हिंदू चेतना में धर्म-वंश व्यवस्था, जन्म-पुनर्जन्मको भी लिए हुए है। मानता हूं वंश, वटवृक्ष और उसके डीएनए, उसकी छाया के बचपन पर असर को।
तभी अपने पितरों, पूर्वजों के डीएनए के प्रति श्रद्धा है। बहुत पहले‘शब्द फिरै चहुंधार’कॉलम में मैंने(जिससे प्राण उसका श्राद्ध क्यों नहीं?-25 सितंबर 2016) लिखा था- भले अपने को कोई रूढ़िवादी माने, पर अपना मानना है कि जिन माता-पिता और पूर्वजों की बदौलत हम इस दुनिया में हैं उन्हें साल में एक बार जरूर याद करना चाहिए। साल में पितृपक्ष के वक्त और श्राद्ध के मूल विचार को हिंदू धर्म के जिस भी ऋषि ने सोचा होगा, वह अपने पूर्वजों, अपनी कौम की धरोहर के प्रति बहुत भावपूर्ण, संवेदनशील व जाग्रत था। आखिर हमें उन प्राणों को क्यों भूलना चाहिए, जिनका प्राण पुंज हम लिए हुए हैं, जिनसे हमारा अस्तित्व है। जो जीवन है, जो भाव है, जो सुख-दुख है यानि हमारा होना, वह सब पूर्वजों की बदौलत ही तो है! इसलिए मुझे हिंदू धर्म की व्यवस्थाओं में श्राद्ध का मतलब गहराई से जंचता है। साल में एक बार मैं उन सभी को जरूर याद करना चाहता हूं, जिनकी बदौलत मैं हूं। मेरा होना, आपका होना या जीवात्माओं की कुल सृष्टि कुल मिलाकर वंशानुगत है। हम पूर्वजों के कारण ही तो हैं। उसी से हमारा इतिहास है।…
तभी मैंने अपने वंश का ब्योरा जानने की कोशिश की। लेकिन खास सफलता नहीं मिली। इसलिए अगले कॉलम में ‘न वंशावली मालूम न अपना इतिहास’ में मैंने असमर्थता जताते हुए लिखा कि कितना ही खोजो, पूर्वजों की दो-तीन पीढ़ी से अधिक नाम तलाश सकना मुश्किल है। कबीरदासजी ठीक कह गए हैं कि वट वृक्ष से पत्ता टूट कर गिरा तो पवन के झोंके में उड़े पत्ते का फिर अता-पता नहीं मिलेगा।
मैंने हरिद्वार में सुनील पांडे के जरिए अपने पुरोहित की खोज खबर करके वंशावली का ब्योरा जानातो वह सिलसिलेवार नहीं था। शायद मेरे पूर्वजों ने भी कायदे से पंडे कोब्योरा नहीं दिया होगा। मैंने सोचा मुझे कहां अपने समवर्ती रिश्तेदारों या चाचा-चाचियों के बेटे-बेटियों, पोते-पोतियों, शादी-ब्याह का पूरा अता-पता है? जब मैं नाम, उम्र सहित सभी का ब्योरा नहीं रख सकता हूं तो पैदल या बैलगाड़ी से पहुंचने वाले पूर्वजों से भला यह उम्मीद कैसे की जाए कि वे पुष्कर या हरिद्वार में पुरोहित के यहां सिलसिलेवार वंशावली लिखवाते।
बहरहाल, मैं ब्राह्मण (गुर्जरगौड़) परिवार में पैदा हुआ, जिसकी गोत्र शांडिल्य ऋषि से बताई जाती है। मैं आजादी बाद की पीढ़ी का हूं। मेरे दादाजी, माता-पिता का गांव भीलवाड़ा जिले का रायला था। पर मैं वहां नहीं रहा। मेरे पिता और उनके दो भाईयों की शिक्षा-दीक्षा की मजबूरी मेंवंश का गांव छूटा, नया खूंटा बना। गांव के खंडहर बताते हैं कि तब दादा, पड़दादा ने किस जतन से वहां घर, खूंटा बनाया था। मेरे हिस्से में चूने का जो छोटा मगर पक्का घर है, उसका ओखला याकि झरोखा आज भी चूने की खासी घिसी-फिसलनदार दीवारें लिए हुए है। चूने-रेत-पत्थर से बने घर को बचाए रखने के लिए मैंने दो–तीन बार सीमेंट प्लास्टर भी करवाया। यह सोचते हुए कि कहीं धरोहर खंडहर नहीं बन जाए। उस घर को मेरे बेटे-बेटी ने नहीं देखा। इसलिए कि उनके लिए पुश्तैनी घर का अर्थ भीलवाड़ा का मेरे पिताजी का घर है। पड़दादा के बनाए घर, उनके गांव, उनके मोहल्ले और कुनबे या वंशावली की शाखाओं का भला उन्हें कैसे भान हो। शायद यहीं घर-घर की कहानी है। वक्त सब कुछ छुड़ा देता है। वक्त गतिमान है तो विरासत, इतिहास, धरोहर बेमतलब ही तब तक रहेंगे जब तक विचारने की क्षमता और फुरसत लिए हुए दिमाग नहीं हो।
मैंने दिवगंत भाई साहेब जगदीश व्यास सेश्राद्ध पर कॉलम लिखते वक्त वंशावली जानी। उनसे भी हरिद्वार से जुटाए मात्र 130 साल का रिकार्ड बना। उससे पहले का पता नहीं! जो ब्योरा मिला वह कुछ यों है- 1833 में शिवराम व्यास के साथ कश्यप ऋषि शाखा में नौसाल्या तिवारी गोत्र शुरू हुआ। वे मेड़ता के चेतनदास के वंशज थे। उनके बेटे गोविंददास थे। उनसे बुद्धानंद (या छीतरदास?) थे। जिनकी दो शाखा रामलाल और सीताराम थे। सीताराम की दो संतान नंदलाल और केसर बुआ थीं। नंदलाल की एक बेटी नर्मदा बुआ थीं। मेरी वंशावली में पितृमह चार पीढ़ी पूर्व के रामलाल थे, जिनके दो बेटे बलदेव और गजानंद थे। पंडित गजानंद के बेटे दामोदर शास्त्री थे। उनके चार बेटे पुरुषोत्तम, सोमेश्वर, गोविंदप्रसाद और वासुदेव व बेटी कमला थीं। चारों बेटों की 22 संतानें हुईं। इन 22 में गोविंद प्रसाद व्यास-विद्या देवी की मैं सबसे बड़ी संतान हूं। मतलब मेरी पीढ़ी 22 जनों की है और उसके बाद की पीढ़ी में कोई 33 जनों की संख्या। इससे आगे मतलब मेरे चेचेर भाई-बहन के बेटे-बेटियों की पीढ़ी भी बन चुकी है।
130 साल की इस तस्वीर में हैरानी वाली बात नौ पीढ़ी का लेखा है। हरिद्वार के पंडे के रिकार्ड में हिसाब के गड़बड़ होने की सोचें तो समय अवधि को दौ सौ साल कर लेते हैं। तब भी नौ पीढ़ी और 250-300 साल का वक्त। पूर्वज कितनी जल्दी दिवंगत होते थे! तभी बचपन में छन्यू के अकाल, महामारी आदि आपदाओं के कैसे-कैसे किस्से सुनने को मिलते थे। बहरहाल बचपन से लेकर आज तक वंशावली के नाते स्मृति में चार पीढ़ियों के नाम-चेहरे अंकित हैं। प. दामोदर शास्त्री(संस्कृतअध्यापक), उनके चार बेटे क्रमशः पुरूषोत्तम व्यास (अध्यापक), सोमेश्वर व्यास (बैरिस्टर-मजिस्ट्रेट), गोविंदप्रसाद व्यास (कंपनी मैनेजर), कमला व्यास(अध्यापक) और वासुदेव व्यास(पंडिताई) के पांच भाई-बहनों का जीवन, इनके सामूहिक याकि संयुक्त परिवार के घरौंदे, खूंटे की स्मृति मेरी छह-आठ वर्ष की उम्र की क्षणिकाएं कुछ ही हैं। फ्लैशबैक खाली सा है। इतना ध्यान है कि मेरे दादाजी पंडित दामोदर शास्त्री ने लंबी बीमारी के बाद अंतिम सांसें भीलवाड़ा के हमारे घर में लीं। मैं पिताजी के साथ अस्थि विसर्जन के लिए पुष्कर, हरिद्वार गया था।
वटवृक्ष केवंशानुगत जीवन रसायन के ख्याल मेंमानना है कि मेरे दादा पंडित दामोदरशास्त्री ने ही मेरा नाम जन्मराशि से‘हरिशंकर व्यास’ रखा। उनकी वजह से ही घर में अनुशासन और सनातनी धार्मिकता में बचपन शुरू हुआ।जिया (मां) के धर्म-कर्म में वह छाया बनी, जिसने बचपन में कुछ बातें दिल-दिमाग में गहरी पैठाईं। तभी ताउम्र पत्रकार होते हुए भी शराब नहीं चखी। मांसाहारी नहीं हुआ। जाहिर है बचपन की घुट्टी से ही शायद जिंदगी का स्वभाव बनता होगा। ( जारी)।
अपने आदर्श और मार्गदर्शक के बारे में पढ़ना जानना मेरा सौभाग्य ।
पंडित का जिंदगीनामा पढ़ कर अत्यंत रोचक लगा है। इससे आपको करीब से समझने का मौका मिल रहा है। इसमें बिना छिपाये तथ्यों को उजागर करना अपने आप में विशिष्ट है। आपको बहुत बहुत साधुवाद।
बहुत खूब
Vah kya umda vyang hai- ” Ta-umra Patrakar rah kar bhi Sharab nahi chakhi”. Regards – Mahesh Malviya Indore 9229194325