बेबाक विचार

ठहरे वक्त में जिंदगीनामा!

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ठहरे वक्त में जिंदगीनामा!
जीवन फुरसत में है! वायरस से वक्त मेरा ठहरा है। शायद आपका भी ठहरा हो। ठहरा वक्त खास फुरसत लिए होता है। सोचें, पिछली एक-दो सदियों में, आपके और मेरे माता-पिता या दादा-दादी के जीवन में ऐसा वक्त कब था, जैसा आज कोविड-19 से है? अपने जीवन, अपने घर, पड़ोस, शहर के दायरे में ही क्यों सोचें, पूरी दुनिया आज वक्त ही वक्त लिए हुए है! देश, कम्युनिटी, धर्म, कौम, नस्ल, सभ्यता सब ठहरे हुए, जीने के अपने अंदाज में घर में हैं औरवक्त काट रहे हैं। हिंदू टीवी पर रामायण-महाभारत और शराब की खुमारी में शायद टाइम पास कर रहे होंगे तो दूसरी कौमें इबादत करती हुई होगीं। फिर पृथ्वी पर ऐसे भी समुदाय हैं, जो घर बैठे सोच-विचार, सत्य साधना, सृजनात्मकता, वैज्ञानिकता में फुरसत को जी रहे होंगे। कईयों का जीवन जिंदगी के छोटे-छोटे सुख पा रहा होगा। कोई किताब पढ़ रहा होगा, कोई रसोई पका रहा होगा तो कोई बागवानी, संगीत, कला, रिसर्च, विचार, ध्यान और प्रबुद्धता में रमा होगा। कह सकते हैं ठहरा वक्त कईयों की जिंदगी का निजीपन उकेरे हुए होगा तो शायद गुजरी जिंदगी का फ्लैशबैक भी लिए हुए हो। जिंदगी को फ्लैशबैक में देखना, याद करना, ठहरे वक्त में जितना सहज है, वैसा भागते वक्त में संभव ही नहीं है। ठहरे वक्त की फुरसत अपना ख्याल, अपनी जिदंगी का ख्याल बनवाने की सघनता लिए हुए होती है बशर्ते दिमाग दिशा बोध वाला हो! फिलहाल भागना क्योंकि स्थगित है तो घर बैठे किसी न किसी रूप में ख्याल बन सकता है कि वक्त पार करके आज कहां हैं? 70-80 साल याकि जब तक सांस तब तक प्राण वाली यह जो जिंदगी है वह अभी तक जैसी गुजरी है तो वह कैसी गुजरी? ऐसा सवाल भागते हुए वक्त में दिमाग में ज्यादा टिकता नहीं। यों भी आम औसत जीवन भागते वक्त में जिंदगी के अहसास को अधिक लिए हुए नहीं होता है। वह भी तो वक्त के साथ भाग रहा होता है। तभी वक्त की बुनियादी तासीर भागना याकि भविष्य है, मंजिल है। जिंदगी ताउम्र भविष्य की मैराथन में दौड़ती होती है। आने वाले कल की भूख लिए होती है। उस नाते जीवन कई मायनों में भागने का ही नाम है। अपने ऋषि-मुनियों का यह बोध सच्चा है कि यदि भागना नहीं है और मैराथन में आपको अपने जीवन को यदि निस्सार थकाना याकि जाया करना नहीं है तो संन्यास धारो व सांसारिकता से दूर जगंल में रह कर, वक्त को ठहरा कर ध्यान-साधना करो। वक्त की चिंता के बिना ठहरे वक्त की ठहरी जिंदगी में जीवन जीने का मजा ही अलग है। वह मोक्ष है, मुक्ति है। तभी मोटे तौर पर आध्यात्म-धर्म-दर्शन का यह सार बनता है कि जिंदगी का मजा, सत्व-तत्व तब है जब वक्त को ठहरा कर वक्त का आनंद लें। वक्त की तेजी, उसकी सांसारिकता में भागना तो भटकना है! मैं कहां से कहां चला गया! पर यह निचोड़ बनता है कि मेरा और आपका याकि सहज इंसानी जीवन दरअसल वक्त की गंगा में बहता हुआ होता है। वक्त एक सफर बनवाता है। जन्म, उद्गम, पहाड़ पर इठलाते, मौजमस्ती से मैदान की जिंदगी और फिर सागर में विलय के साथ गंगा की जो यात्रा होती है वैसा ही सफर तो जिंदगी है। क्या नहीं? सोचें, भला गंगा को भी वक्त की गति में कहां यह सोचने की फुरसत मिलती है कि कैसा सफर रहा? कहां किस मोड़ पर मजा था, इठलाना था, कहां पुण्यता पाई, कहां गंदगी, धोखा, नीचता और दूसरों के पापों के भारमें लथपथ सफर हुआ? जो हो, वक्त का ठहरना जिंदगी का बिरला अवसर है!  खासकर जिंदगी जब जीवन के उत्तरार्ध में हो। मतलब जैसे मैं हूं, या वे तमाम लोग जो जिंदगी के साठ वसंत देख चुके हैं। कोविड-19 वायरस ने 60 साल से अधिक की उम्र के लोगों को वक्त ठहराते हुए नोटिस दे रखा है कि घर बैठो और आज्ञा की पालना का वादा करते हुए बाहर दिवार पर लिखे रहो- मौत इधर न आना! पता नहीं आज से पहले दुनिया के बूढ़ों को मौत ने ऐसा अल्टीमेटम पहले कब दिया? मैं बूढ़ा हूं। 64 साल का होने वाला हूं। सालों से डायबिटीज, ब्लडप्रेशर है और मेरे बहुत काबिल डॉक्टर शुक्ला ने मेरे फेफड़े, मेरी सांस को 2010 मैं चेक करवा कर तब से सुबह-शाम सेरोफलो इनहॉलर लेने की मेरी आदत बनवाई हुई है ताकि अस्थमा-सांस की तकलीफ वाली दशा न बने! उस नाते ठहरा वक्त मेरे लिए, मेरे जैसे बूढ़ों के लिए फुरसत का, मजे का वक्त है या मौत के इंतजार का समय? जुमला, जाहिर है बैचेन करने वाला है। अर्थ न निकालें कि मैं मौत की चिंता में हूं। मैं न मौत पर सोचता हूं और न रोता हूं। मैंने जिंदगी को बेफ्रिकी, लापरवाही, जोखिम और अपने दम पर जिया है। और गजब संयोग है कि मेरा हाल के सालों में जिन बूढ़ों से ज्यादा लोकाचार है वे भीवायरस के बावजूद सौ टका बेफिक्री से ठहरे वक्त का मजा ले रहे हैं। सोमवार को संयोग था जो मैंने भीलवाड़ा से मुंबई में कमल मुरारका, दिल्ली में डॉ.वैदिक, राम अवतार आदि को फोन लगाया और बात शुरू हुई नहीं किसबसे सुना मैं आपको ही फोन लगाने की सोच रहा था! आपकी उम्र बहुत लंबी है! जब मैने कमलजी से उनकी सेहत का सवाल किया तो 73 साल के  कमलजी ने ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति.. का जुमला बोलते हुए चिरस्थाई बेफिक्री में कहा मैं और आप जो जान रहे थे बोल रहे थे देखिए वह साकार हो रहा है।... मतलब जीने के अंदाज में चिंता तनिक नहीं! और 78 साल के डॉ. वैदिक का तो खैर जवाब नहीं है। मैंने ठहरे वक्त में दो-तीन बार उन्हें समझाना चाहा कि आप घर में कामवालियों, लोगों के आने-जाने को रोकें, काढ़े के भरोसे न रहें लेकिन वैदिकजी सोमवार को भी इस सठियाई जिद्द पर अड़े हुए थे कि काढ़ा पिलवाने की जगह मोदी ने शराब पिलाने के ठेके खोल दिए। कल मैं लिखूंगा। उधर 75 साल के राम अवतारजी से बात हुई तो मालूम हुआ वेठहरे वक्त में भी शेयर मार्केट में जस के तस मशगूल बेफिक्र हैं। 62 साल के विवेक समोसे का चटोरापन छोड़ने को तैयार नहीं तो मनमोहन हों या मुंबई से अनुराग चतुर्वेदी आदि सभी हमउम्र बूढ़े वैसे ही पोस्ट, संदेश भेज रहे हैं, जैसे वायरस के नोटिस से पहले होते थे। पहली बात, लगता है जो जैसे होते है उनकी जिंदगी का उम्र समूह भी वैसा बनता है! और यमराज भले कोविड-19 रूप में हों या राजा के रूप में इनके नोटिस उन जिंदगियों में मतलब नहीं रखते हैं, जो भागते नहीं हैं! सो, मैं बूढ़ा और मेरे हममिजाज, हमउम्र बूढ़ों के ठहरे वक्त की घर बैठी जिंदगी में यमराज का नोटिस खास अर्थ नही लिए हुए है। मुझे तो उलटे लग रहा है कि कोविड-19 के वायरस ने मुझमें नई ऊर्जा भरी है। मेरा सोचना बढ़ा है और मन चाह रहा है कि मैं इस पर भी लिखूं, उस पर भी लिखूं और दुनिया को ज्यादा बारीकी, ज्यादा गहराई से पढ़ूं-समझूं-जानूं! तभी अचानक आइडिया निकला कि वक्त ठहराहै, फुरसत है तो मौका न चूको और लिख डालो जिंदगी के अपने सफर को। लिखो अपना जिंदगीनामा! सो, आज से नया सिलसिला। जिंदगी को लिखने में शब्दों की बढ़ईगिरी का नया प्रोजेक्ट! अपन तो कहेंगे, शब्द फिरै चंहुधार के अलावा अब जब मन हुआ तो लिखूंगा ‘पंडित का जिंदगीनामा’! (जारी)
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