बेबाक विचार

वायरस का अनुभव ‘असामान्य’

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वायरस का अनुभव ‘असामान्य’
अब परिचितों में वायरस की खबरें बढ़ गई हैं। जगदीश ने सूचना दी कि कैलाश का पूरा परिवार संक्रमित है तो अलवर से संजय अरोड़ा ने बताया कि वे फोन इसलिए नहीं उठा रहे थे क्योकि वे, उनका मैनेजर, परिवार के चार सदस्य महीने भर से कोरोना से जूझ रहे थे। कोई मेदांता में था तो कोई मैक्स में। उनका मैनेजर बच नहीं पाया! उधर आशीष-श्रुति को उनकी दोस्ता ताबिना ने बताया कि उसकी मौसी को कोरोना हुआ और दो दिन में मृत्यु हो गई, जबकि वह घर से बाहर निकलती ही नहीं थीं। उससे पहले हेमंत शर्मा से मैसेज मिला था कि वे कोविड निगेटिव हो कर घर आए हैं। आप सब साथ थे, सबकी दुआएं साथ थीं। हेमंत बीस दिन अस्पताल में तो कोलकाता में अनन्य सुनील सरावगी 19 दिन अस्पताल में रहने के बाद फिलहाल 120 दिन घर पर आइसोलेशन में हैं। उनकी मानें तो पोस्ट-कोविड कम चिंतादायी नहीं है। उफ! एक के बाद एक खबर। दिल-दिमाग के तारों से बंधी, चेतन-अवचेतन की स्मृतियों में पैठी जिंदगियों और परिवारों का ऐसे वायरस के चपेटे में आना। क्या सोचूं? मैं अमित शाह की खबर से भी बैचेन हुआ। पहले मेदांता में, फिर एम्स में उनके भरती होने की खबर ने मन में सवाल बनाया तब सुरक्षित कौन है? उनके पास मेदांता, एम्स है और अपने पास तो वह जिला अस्पताल है, जहां संजय अरोड़ा को अनुभव हुआ कि ऑक्सीजन नहीं थी, मैनेजर को तुरंत दिल्ली के मैक्स में पहुंचाया। लेकिन वहा अनुभव कि जितना ऊंचा अस्पताल उतना ही मरीज के लिए ‘नॉर्मल’ व्यवहार। फिर भले वायरस फेफड़े पर जमा हो। नोट रखें वायरस यदि प्राण वायु, ऑक्सीजन की नलियों से फेफड़ों पर कुंडली लगा बैठा है तो डॉक्टरों की पूरे फोकस, असामान्य निगरानी, चुस्ती के बिना मामला मौत के पाले को छूए होता है यह मैंने कोलकाता में सुनील सरावगी के अनुभव से बूझा है। मैं डरा नहीं रहा हूं और न डर में हूं लेकिन आपने भी हेमंत शर्मा का अनुभव पढ़ा होगा। मेरे करीबी के दो छोटे ये अनुभव भी जानें। कोलकाता में सुनील सरावगी को पता नहीं पड़ा कि उनके शरीर में वायरस, कब, कैसे, किससे घुसा? 51 वर्षीय सुनील वैसे सनातनी हिंदू हैं जो गले में रूद्राक्ष पहनते हैं। 23 मार्च से वे दिन में दो बार काढ़ा पी रहे थे। बीस साल से उनकी दिनचर्या में दिन में दो-तीन बार गर्म पानी पीना और शाम को हल्दी दूध पीना शामिल है। न डायबिटीज, न ब्लडप्रेशर और न फेफड़े कमजोर। रोजाना पूजा के बाद शंख बजाने की आदत। आनुवंशिक तौर पर भी फेफड़े के कमजोर होने का इतिहास नहीं तो रोजाना 15 हजार स्टेप्स का सहज सामर्थ्य। वे मेरे नियमित पाठक भी हैं। इसलिए वायरस को ले कर शुरू से सतर्क, सावधान, जागरूक, चौकन्ने थे। उनकी पत्नी डॉक्टर हैं। सुनील सरावगी को छह जून को बुखार हुआ और सर्तक स्वभाव से सात जून को टेस्ट कराया। आठ जून को पॉजिटिव होने की रिपोर्ट आई। वे कोलकाता में रसूख, जनसपंर्क और साधन-संपन्नता सहित हैं। उनका कोलकाता के अपोलो अस्पताल व उसके मैनेजमेंट पर पहले से भरोसा था। सो, सभी परिवारजनों के टेस्ट में वे अकेले जब पॉजिटिव निकले तो अपोलो में भरती हो गए। मुझे सूचना दी मैनेजमेंट, डॉक्टर सब परिचित, अनुभवी हैं चिंता की बात नहीं। लेकिन अगले दिन उनका मैसेज था, जिसमें कई फोटो थे और मुझसे आग्रह था कि इन्हें देखें। मुझे आधी रात को कोविड सेक्शन में शिफ्ट किया है और यह वार्ड तो उफ! फलां-फलां बदहाली। और परेशानी व चिंता के साथ आग्रह! मैंने कोलकत्ता में सुनील के रसूख, सामर्थ्य को समझ ध्यान नहीं दिया। दोपहर में फिर उनका मैसेज। सूझ नहीं पड़ा कि कोलकाता में अपना क्या?  मैं किससे कहूं? इतने बड़े नामी प्राइवेट अस्पताल को कैसे खड़काया जा सकता है? कोलकाता में राजस्थान से जा कर बसे मेरे सुधी पाठक और आला अफसर राजेशजी को फोन किया तो उनसे मालूम हुआ कि हां, उन्हें भी मैसेज है और वे बात कर चुके हैं। मैं आश्वस्त हुआ। लेकिन शाम को जस की तस दशा, लापरवाही का वापिस मैसेज। बैचेनी बनी तभी स्मरण हो आए जगदीप धनकड़ याकि पश्चिम बंगाल में महामहिम। उन्हें मैंने व्हाट्सअप से अपोलो अस्पताल में, सुनील सरावगी की चिंता में अस्पताल मैनेजमेंट से बात करने का अनुरोध किया। भला हो महामहिमजी का उन्होंने फुर्ती से अस्पताल से सुनील की खैरियत ली। उस क्षण उन घंटों, उस दिन क्या हुआ उसके लब्बोलुआब में बाद में सुनील की डाक्टर पत्नी ने मुझे फोन पर बताया कि देखभाल के रूख में 360 डिग्री परिवर्तन हुआ। मेडिकल बोर्ड, डॉक्टर टीम बनी। उससे नौ दिन के आईसीयू, एक दिन नॉन-इनविजिबल वेंटिलेशन पर रखें-न-रखें की दुविधा सहित इलाज के 19 दिन सुनील सरावगी के जैसे गुजरे वह ईश्वर ही जानता है। ‘नॉर्मल’ चिकित्सकीय प्रबंधन यदि होता तो  न जाने क्या होता। कोई 25 दिन बाद मैसेजेज से सुनील सरवागी से धीरे-धीरे जाना कि वे दिन कैसे गुजरे। इसलिए सुनील और फिर हेमंत के अनुभव का लबोलुआब है कि वायरस के शिकार हुए तो प्राइवेट कमरे को ही आईसीयू बनवाने जैसी ‘असामान्य’ केयर का सामर्थ्य, इलाज है तो जीवन रक्षा है! हर तरह से स्वस्थ, सतर्क, सावधान, जागरूक सुनील सरावगी के अनुभव के अर्थ दो टूक हैं। काढे, गरम पानी, हल्दी दूध, फेफड़ों की ताकत, किसी भी तरह की पूर्व बीमारी न होने के बावजूद वायरस सभी को चकमा दे कर प्राणवायु से शरीर में घुस सकता है। निःसंदेह 95 प्रतिशत मरीज बुखार तोड़ने वाली गोलियों से स्वस्थ होते हैं लेकिन बुखार के दो-तीन दिनों में हवा से घुसा वायरस यदि फेफड़ों पर कुंडली मारने लगा तो पांच प्रतिशत क्रिटिकल और एक-दो या ढाई प्रतिशत आईसीयू, वेंटिलेटर यानी मौत से जूझने की अचेतन अवस्था में पहुंचेंगे। फिर तो भगवानजी की ही परम कृपा, जीवन की पुण्यता से ही बचना संभव है। सोचना चाहिए कि वायरस का छोटा-बड़ा हर हमला मरीज और उसके परिवार को जैसे तोड़ता है, जिस अनुभव से उसे गुजारता है क्या उसे लेकर हम संवेदनशील हैं? वायरस वह सत्य है, जिसके आगे लाचारगी का अनुभव व्यक्ति-देश की दशा-दिशा में समान है। जर्मनी या उस जैसे देश भले कम संक्रमित हैं लेकिन ये देश भी, इनकी आर्थिकी, लोगों का जीवन वैसे ही सहमा, डरा, ठहरा हुआ है जैसे सर्वाधिक प्रभावित अमेरिका में ठहरा है। फर्क यह है भारत को छोड़ कर इन तमाम देशों में केयर है, व्यवस्था की संवेदना, सतर्कता है। वहां लोग रामभरोसे नहीं हैं, अपने जुगाड़ों की चिंता में नहीं हैं। न ही वहां यह झूठ है कि वायरस महज एक बीमारी है और उसे काढे, गर्म पानी और टोने-टोटकों से भगाया जा सकता है। मैं पहले भी मानता था और अब भी मानता हूं कि यह वायरस, यह महामारी भारत राष्ट्र-राज्य, भारत के लोगों का वह अनुभव बनाएगा, जिसकी स्मृतियां खौफनाक और अमिट होंगी। आखिर बतौर नागरिक, बतौर देश, बतौर व्यवस्था हमारा पूरा व्यवहार धूल में लट्ठ मारने और रामभरोसे सब कुछ छोड़ने का है जबकि महामारी को जुगाड़ व रामभरोसे वाली एप्रोच से खत्म नहीं किया जा सकता है। उसके साथ सहजीवन नहीं हो सकता है। मगर भारत ने मार्च से अगस्त के छह महीनों में अपने आपको झूठे जैसे ‘नॉर्मल’ बनाया है तो उसके परिणाम 130 करोड़ लोगों को भुगतने ही होंगे। तभी अनिवार्य तौर पर, निजी स्तर पर गांठ बांधे रखें, सरकार के वायरस पर काबू कर लेने के, सब कुछ ‘नॉर्मल’ होने के हल्ले के झांसे में कतई न आएं। अलवर, भीलवाड़ा, लखनऊ और श्रीनगर से मैंने जो सुना है और हेमंत का लिखा अनुभव पढ़ेंगे या 19 दिन के अस्पताल अनुभव के बाद पोस्ट-कोविड सुनील सरावगी अभी भी हार्ट, किडनी, लीवर, लंग्स पर हुए असर को मिटाने में जैसे लगे हुए हैं, जैसी सावधानियां बरते हुए हैं तो सक्रमण होने पर और संक्रमण के बाद दोनों वक्त का सार व्यक्ति के आत्मबल, धैर्य और साधनों की परीक्षा का है। हां, साधन और सामर्थ्य का मसला मामूली नहीं है। मुझे हैरानी हुई जो अलवर से जानने को मिला कि कोविड अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी थी। राजस्थान में ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसे ही मधुजी से जान आश्चर्य हुआ था कि सूरत में उनके रिश्तेदार को वहां के प्राइवेट अस्पताल में भरती होने के लिए कोटा के सांसदजी से कहलवाना पड़ा। मुझे मधुजी ने आपद फोन करते हुए कहा अस्पताल के पास रेमडिसिविर दवा नहीं है। एक डोज लग चुका है। उससे ऑक्सीजन की दिक्कत शाम को ठीक हुई। पर अब स्टॉक में नहीं है। क्या कुछ हो सकता है? मुंबई में भी चेक करा रहे हैं वहां नहीं मिल रही है। यह बात जुलाई की है। मुंबई सुन मुझे विनोद का ध्यान आया और उसे फोन लगाया तो आयात करने वाले एक व्यापारी से बात कर उससे जुगाड़ बनवाया लेकिन पचपन हजार रुपए का एक डोज! मैं चकरा गया, अजीत चकराया तभी हम लोगों ने ‘नया इंडिया’ में रेमडिसिविर के इतने महंगे मिलने पर बहुत लिखा। अलवर में ऑक्सीजन न मिलने पर संजयजी ने अपने मैनेजर को दिल्ली में शिफ्ट कराया लेकिन वह अस्पताल आठ-नौ लाख रुपए का बिल बनवा कर भी बचा नहीं पाया। और परिवारजनों को यह समझ आया कि देखभाल में स्टॉफ पर्याप्त संजीदा नहीं दिखा। जाहिर है त्रासदी में भुक्तभोगी और उसके परिवार की कैसी व्यथा, कितनी तरह की चिंताएं, कैसे भाव, कैसे अहसास छुपे हुए है, इस पर जितना सोचेंगे दिमाग भन्नाएगा। इसलिए बचपना, नादानी और मूर्खता है जो हम आप या देश सोचे कि वायरस इतने दिनों में, इतने महीनों में या इतने साल में खत्म हो जाएगा। वह जब होगा तब होगा। अभी वक्त वायरस का है तो वायरस काल के वर्तमान में मास्क लगा कर, घर में रह कर घर बैठे जीना है। यहीं ठानें, यहीं विचारें! अब यह मैं लिख तो दे रहा हूं लेकिन व्यवहार में वैसा कर नहीं पा रहा हूं, जैसे अपने अजीत द्विवेदी ने मार्च से ठानी हुई है। अपना अजीत मार्च से घर से नीचे ही नहीं उतरा!
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