coronavirus pandemic relief package : भारत के एक मनीषी ने कर्ज लेकर घी पीने की सलाह दी थी। घी तो दूभर है लेकिन भारत सरकार चाहती है कि लोग कर्ज लेकर अपना काम चलाएं। काम चलाने का मतलब है कि अगर छोटे छोटे काम धंधे हैं या लघु-सूक्ष्म उद्योग धंधे हैं या किसी दूसरे असंगठित उद्योग से जुड़े हैं तो बैंकों से कर्ज लीजिए और अपना काम चलाइए। कर्ज के बदले में गारंटी केंद्र सरकार देगी। यानी सरकार यह सुनिश्चित कर देगी कि आपको कर्ज मिले लेकिन यह नहीं बताएगी कि आप वह कर्ज कैसे चुकाएंगे! जब बाजार में मांग नहीं है, लोगों के पास पैसे नहीं हैं और प्राइमरी मार्केट यानी नौकरीपेशा या स्वरोजगार करने वालों का भट्ठा बैठा हुआ है तो सामान खरीदेगा कौन? अगर एमएसएमई सेक्टर या माइक्रो यूनिट्स चलाने वाले लोग कर्ज ले लें और उत्पादन शुरू करें या बढ़ाएं तो उसे बेचेंगे कहां? अगर सामान बेच नहीं पाए तो कर्ज कहां से चुकाएंगे?
बैंकों और डाकघरों की एकाध बचत योजनाओं को छोड़ दें तो सरकार किसी भी जमा पर छह फीसदी से ज्यादा ब्याज नहीं दे रही है लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो आर्थिक पैकेज घोषित किया उसमें बताया कि लोन गारंटी योजना के तहत स्वास्थ्य सेक्टर के लिए 50 हजार करोड़ रुपए 7.95 फीसदी और दूसरे सेक्टरों के लिए 60 हजार करोड़ रुपए 8.25 फीसदी ब्याज दर पर दिए जाएंगे। अब सोचें, लोगों के जमा पैसे पर तो सरकार देगी तीन से छह फीसदी ब्याज और राहत के नाम पर दिए जा रहे कर्ज के ऊपर लेगी आठ से सवा आठ फीसदी ब्याज!
सवाल है कि इतने ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज लेने के बाद अगर छोटे, मझोले या सूक्ष्म उद्योग वाले सामान नहीं बेच पाए तो क्या उनका कर्ज एनपीए नहीं होगा? क्या सरकार की खराब आर्थिक नीतियों और देश के आर्थिक सुस्ती के दुष्चक्र में फंस जाने की वजह से हर साल लाखों करोड़ रुपए का कर्ज एनपीए नहीं हो रहा है? और क्या कर्ज लेकर घी पी रही बड़ी कंपनियां इन्सॉल्वेंसी और बैंकरपसी कोड और एनसीएलटी का फायदा उठा कर हजारों-लाखों करोड़ के कर्ज का निपटारा कौड़ियों के मोल नहीं कर रही हैं?
तभी सवाल है कि आर्थिक पैकेज ( coronavirus pandemic relief package ) के नाम पर कर्ज लेकर काम चलाने के लिए लोगों को प्रेरित करने की भारत सरकार की सोच का क्या मतलब है? इससे देश की अर्थव्यवस्था या आम लोगों के जीवन में क्या सकारात्मक बदलाव आ सकता है?
वित्त मंत्री ने कोरोना की पहली लहर के दौरान करीब 21 लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज घोषित किया था और इस बार उन्होंने छह लाख 29 हजार करोड़ रुपए का पैकेज घोषित किया है। हकीकत यह है कि सरकार का न तो पहला पैकेज आर्थिकी में जान फूंक सका और न दूसरा पैकेज यह काम कर पाएगा। इसका कारण यह है कि सरकार ने अपने खजाने से कोई पैसा नहीं निकाला है। उसने सिर्फ लोन गारंटी देने की बात कही है। तभी एक अनुमान है कि वित्त मंत्री के छह लाख 29 हजार करोड़ रुपए के पैकेज में सरकार के खजाने से जो पैसा निकलेगा वह देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 0.60 फीसदी से ज्यादा नहीं होगा।
पहले पैकेज में भी सरकार के खजाने से दो फीसदी से ज्यादा पैसा नहीं निकला था। इसके उलट दुनिया के दूसरे सभ्य और विकसित देशों ने अपनी जीडीपी के 20 फीसदी तक पैसा निकाल कर आम लोगों को दिया है ताकि वे खर्च कर सकें। उन देशों को पता है कि खर्च बढ़ने का उपाय किया जाए तभी आम लोगों का जीवन बेहतर होगा, कोरोना की आर्थिक मार से उनको मुक्ति मिलेगी और देश की अर्थव्यवस्था में वास्तविक तेजी लौटेगी। पता नहीं भारत सरकार ऐसा क्यों नहीं सोच रही है?
यह आर्थिकी का सामान्य सिद्धांत है कि पूंजीगत खर्च बढ़ेगा तब मांग भी बढ़ेगी और विकास दर भी बढ़ेगी। लेकिन सरकार पूंजीगत खर्च नहीं बढ़ा रही है। कैपिटल एक्सपेंडिचर की बजाय सरकार लोन गारंटी के रास्ते पर चल रही है। लोन गारंटी सप्लाई साइड को मजबूत करता है तो कैपिटेल एक्सपेंडिचर डिमांड साइड को मजबूत करता है। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार को भी यह बात पता है। coronavirus pandemic relief package
केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णामूर्ति वी सुब्रह्मण्यम ने एक अध्ययन का हवाला देते हुए पिछले दिनों हैदराबाद में बताया था कि सरकार एक रुपया पूंजीगत खर्च करती है तो अर्थव्यवस्था में साढ़े चार रुपए जुड़ते हैं लेकिन सरकार अगर मुफ्त बांटने में एक रुपया खर्च करती है तो अर्थव्यस्था में सिर्फ 97 पैसे जुड़ते हैं। सोचें, जब मुख्य आर्थिक सलाहकार को पता है कि एक रुपए का पूंजीगत खर्च आर्थिकी को साढ़े चार गुना तेजी देगा तो केंद्र सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है? क्यों वह लोन गारंटी योजना में अटकी हुई है?
प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के कर्ता-धर्ता नेता कई बार कह चुके हैं कि कोरोना वायरस की महामारी से सबसे ज्यादा गरीब प्रभावित हुआ है। इसके बावजूद गरीब को इस संकट से निकालने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है। सरकार मान रही है कि उसको पांच किलो अनाज और एक किलो दाल देने भर से काम चल जाएगा। सरकार उस गरीब की ओर देखने की बजाय अर्थव्यवस्था के बड़े मानकों पर नजर गड़ाए हुए है और उसको लग रहा है कि बड़ी तस्वीर ठीक है तो इसका मतलब है कि सब कुछ ठीक है। तभी सरकार बार बार जीएसटी की वसूली का हवाला देती है।
मई के महीने तक जीएसटी की वसूली पिछले सात-आठ महीने से हर महीने एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा हो रही है इसलिए सरकार संतुष्ट है कि सब कुछ ठीक चल रहा है और इसी वजह से सरकार आश्वस्त है कि वृहत्तर आंकड़े ठीक हैं तो इसका मतलब है कि फंडामेटल्स ठीक हैं और इसलिए बाजार में मांग भी देर-सबेर लौट ही आएगी। लेकिन कई बार इस तरह के आंकड़े भ्रम पैदा करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि समाज के ऊपरी तबके या अमीर लोगों का उपभोग निचले तबके की मांग में आई कमी की भरपाई कर देता है और इस वजह से कर वसूली के आंकड़े बढ़ जाते हैं। अगर सरकार उन आंकड़ों के भरोसे रहेगी तो उसे नीचे की वास्तविक तस्वीर नहीं दिखाई देगी और न निचले तबके के लोगों की समस्याओं का समाधान हो पाएगा।
वास्तविक समस्या को समझने के लिए सरकार को यह वैश्विक आंकड़ा देखना चाहिए। अमेरिका के एक इंटरनेट उद्यमी डैन प्राइस ने एक आंकड़ा देकर बताया है कि कोरोना महामारी के एक साल में कामगारों ने यानी गरीब और निचले तबके के लोगों ने 3.7 खरब डॉलर गंवाएं हैं और दुनिया के अरबपतियों ने 3.9 खरब डॉलर कमाएं हैं। यानी भारत की समूची अर्थव्यवस्था से ज्यादा पैसा इधर से उधर हुआ है। गरीब से अमीर की जेब में यह इतिहास का सबसे बड़ा वेल्थ ट्रांसफर है। इसका मतलब है कि गरीब गंवा रहा है और अमीर कमा रहे हैं। इससे अर्थव्यवस्था का चक्र तो चल रहा है। सरकार को टैक्स भी मिल रहा है। लेकिन गरीब की हालत दिनों-दिन खराब होती जा रही है।
सो, सरकार को अर्थव्यवस्था के बड़े आंकड़ों की बजाय वास्तविकता देखनी चाहिए। उसे समझना चाहिए कि करोड़ों लोगों की नौकरी गई है और काम धंधे बंद हुए हैं। करोड़ों लोग मध्य वर्ग से गिर कर निम्न वर्ग में और निम्न वर्ग से गिर कर एब्सोल्यूट पॉवर्टी की स्थिति में पहुंचे हैं। मध्य वर्ग के लाखों परिवार कोरोना की चपेट में आकर इलाज कराने में तबाह हुए हैं। उनको सरकार के आर्थिक पैकेज से कुछ नहीं मिल रहा है।
सरकार अगर सोच रही है कि उसके ट्रिकल डाउन एप्रोच से देर-सबेर उस वर्ग के लोगों तक भी राहत पहुंचेगी तो वह गलत सोच रही है। उन तक सीधे राहत पहुंचानी होगी अन्यथा बड़ी तबाही होगी। इसलिए सरकार कर्ज लेकर काम चलाने के लिए लोगों को प्रेरित करने की बजाय उनके हाथ में नकदी पहुंचाए, जिसकी सलाह नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने भी दी है। महंगाई और वित्तीय घाटे की चिंता छोड़ कर सरकार किसी तरह लोगों के हाथ में नकदी पहुंचाए तभी हालात सुधरेंगे। coronavirus pandemic relief package coronavirus pandemic relief package