वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपनी तीसरी पत्रकार-परिषद में देश के किसानों के लिए राहत की जो घोषणाएं की हैं, उनसे निश्चित ही उन्हें फायदा होगा और उनकी वे कुछ मांगे भी पूरी होंगी, जो पिछले कई दशकों से वे करते आ रहे हैं। जैसे किसानों की उपज को अब वे जहां भी चाहें, बेच सकेंगे। अब तक वे मजबूर होकर अपनी उपज स्थानीय कृषि मंडी समितियों को बेचते थे, जो लायसेंसधारी दलालों के दखल से बिकती थीं। अब उनके लिए स्थानीय मंडियां ही नहीं, पूरा देश खुल गया है। यहां तक कि वे विदेशों को भी निर्यात करना चाहें तो कर सकते हैं। सरकार ने उन्हें मालभाड़े में भी मदद देने की घोषणा की है। इसका फायदा यह भी है कि अपने खेत में बीज बोते वक्त ही किसान किसी भी मनपसंद खरीददार से सौदा कर सकते हैं।
उन्हें अब शायद अपनी फसलों की बेहतर कीमत मिल सकेगी। इसके अलावा अनाज, आलू, प्याज, तिलहन, दाल जैसे जरुरी खाद्य पदार्थों के भंडारण की सीमा हटा ली गई है। किसानों की आमदनी बढ़ सके, इसके लिए सरकार कई बुनियादी सुविधाओं पर एक लाख करोड़ रु. खर्च करेगी। वह मुर्गी, मछली और मधुमक्खी-पालन पर भी जोर देगी। औषधि उत्पादन पर उसका विशेष योगदान होगा। इन सब राहतों का लाभ यह हो सकता है कि आज भारत का जो कृषि-निर्यात 2.6 लाख करोड़ रु. का है, वह 10 लाख करोड़ तक का बन सकता है। मेरा यह सुझाव तो मैं पहले भी लिख चुका हूं कि इस कोरोना-संकट के दौरान यदि हमारे नेता थोड़ी हिम्मत करते तो काढ़े और हवन-सामग्री का ऐसा विश्व-व्यापी बाजार खड़ा कर देते कि पिछले दो-तीन महिने में ही भारत के पास अरबों-खरबों रु. चले आते, जिनसे हमारे किसानों और प्रवासी श्रमिकों की हम तुरंत मदद कर सकते थे। उन्हें इस वक्त तुरंत नकद सहायता चाहिए, उधार के सपने नहीं। किसानों को चुनाव के पहले अपने बजट में सरकार ने 6000 रु. प्रतिवर्ष देने की घोषणा की थी याने 12 करोड़ किसानों को 18 रु. रोज की मदद! किसान को तो अपने मजदूर को 200 से 300 रु. रोज देने होते हैं। वह आज भयंकर संकट में है। उसके फलों और सब्जियों की फसलें गोदामों में सड़ रही हैं। उसे अभी तुरंत पैसा चाहिए। ऐसी ही जरुरत छोटे उद्योगों और मजदूरों को है। 60-70 करोड़ किसानों और मजदूरों के हाथों में पैसा आए तो ठप्प पड़े हुए हमारे बाजार भी थिरकने लगेंगे। सरकारी राहतें खजूर की तरह मीठी और ऊर्जावान हैं लेकिन पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।
राहते अच्छी लेकिन उन्हें नकद चाहिए
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