यह नोटबंदी का ही एक अपेक्षाकृत छोटा और थोड़ा बदला हुआ रूप है। जिस तरह प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की थी वैसे ही वैक्सीनबंदी कर दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस समय नोटबंदी की थी उस समय देश की अर्थव्यवस्था छलांगें मार रही थी। अपने शासन के पहले दो साल में मोदी सरकार भी आठ फीसदी की विकास दर बनाए रखने में कामयाब रही थी। ऐसे समय में नोटबंदी करके सरकार ने अर्थव्यवस्था के दोनों पैर बांध दिए, जिसका नतीजा यह हुआ कि पिछले साल कोरोना की महामारी शुरू होने से पहले लगातार आठ तिमाही में आर्थिक विकास दर गिरी थी और वित्त वर्ष 2019-20 में चार फीसदी तक आ गई थी। यानी आधी हो गई थी। लगभग वैसा ही काम मोदी सरकार की नई वैक्सीन नीति ने किया है। अप्रैल में जिस समय मोदी सरकार ने वैक्सीन नीति में बदलाव किया उस समय देश में 24 घंटे में 35 से 40 लाख वैक्सीन लग रही थी। वैक्सीन नीति में बदलाव के बाद यह घट कर 16-17 लाख पर आ गई है, बल्कि कई दिन तो 24 घंटे में सिर्फ 11-12 लाख ही वैक्सीन लग पाई है। मई के पहले हफ्ते में हर दिन औसतन साढ़े 16 लाख वैक्सीन लगी।
इस तरह केंद्र सरकार ने वैक्सीनेशन की तेजी से दौड़ती गाड़ी को पटरी से उतार दिया है, जिसका बड़ा नुकसान देश को और आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। दुनिया मान रही है कि कोरोना वायरस से लड़ने का सबसे प्रभावी हथियार वैक्सीनेशन है। फिर भी भारत में सरकार ने वैक्सीनेशन की नीति को ऐसा ट्विस्ट दिया, जिससे इसकी गाड़ी पटरी से उतर गई। वैक्सीनेशन की नीति में किए गए दो बदलावों ने सब कुछ बदल दिया। पहला बदलाव यह हुआ कि वैक्सीन सिर्फ केंद्र सरकार नहीं खरीदेगी, बल्कि राज्य और निजी अस्पताल, औद्योगिक समूह आदि स्वतंत्र रूप से वैक्सीन खरीद सकेंगे और दूसरा बदलाव यह हुआ कि कंपनियां अपने हिसाब से वैक्सीन की कीमत तय कर सकेंगी। वैक्सीनेशन की नीति में किए गए ये दोनों बदलाव बहुत घातक साबित हुए हैं।
भारत की पुरानी वैक्सीनेशन नीति में भी कुछ कमियां थीं, लेकिन उसे अपनाए जाने के बाद तीन महीने में उसका एक सिस्टम बन गया था। भारत सरकार का यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम यानी यूआईपी ठीक ढंग से काम करने लगा था। केंद्र सरकार डेढ़ सौ रुपए प्रति डोज की दर से वैक्सीन खरीद रही थी और राज्यों को उनकी जरूरत के हिसाब से उपलब्ध करा रही थी। शुरुआती बाधाओं के बाद यह काम बिल्कुल सुचारू रूप से चलने लगा था। केंद्रीकृत खरीद होती थी, फैक्टरी से लेकर देश में करीब 29 हजार कोल्ड चेन तक वैक्सीन का लगभग सिमलेस ट्रांसफर होता था, केंद्रीकृत भंडारण था और उसके बाद हर किस्म के ट्रांसपोर्ट के जरिए उसे देश भर में बने करीब 60 हजार वैक्सीनेशन सेंटर्स तक पहुंचाया जाता था। जब इस सिस्टम को अपनाया गया था तो शुरुआती दिनों में 13-14 लाख लोगों को एक दिन में टीके लग रहे थे। कहीं ढुलाई में समस्या थी तो कहीं कोविन पोर्टल की समस्या थी। लेकिन 16 जनवरी को शुरू होने से लेकर 16 अप्रैल के तीन महीने में यह सिस्टम परफेक्टली काम करने लगा था। अगर वह सिस्टम चलता रहता तो औसतन 10 करोड़ लोगों को हर महीने वैक्सीन लगती और 10 महीने में देश की 18 साल से ऊपर की पूरी आबादी को वैक्सीन लग जाती। इसके लिए सरकार ने आम बजट में 35 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया है, जिसे संसद की मंजूरी मिल चुकी है। इसलिए पैसे का भी संकट नहीं था।
फिर अचानक एक दिन सरकार ने वैक्सीनेशन की नीति बदल दी और बीच महामारी में अच्छे तरीके से काम करते एक सिस्टम को पटरी से उतार दिया। केंद्र ने कहा कि वह 50 फीसदी वैक्सीन खरीदेगी और 50 फीसदी वैक्सीन राज्य व निजी अस्पताल सीधे कंपनियों से खरीदेंगे। सरकार ने कंपनियों को कीमत तय करने का अधिकार भी दे दिया। इसका नतीजा यह हुआ है कि कंपनियों ने वैक्सीन की कीमत दोगुनी से चार गुनी तक बढ़ा दी है। एक देश में तीन दर हो गई। भारत सरकार को जो वैक्सीन डेढ़ सौ रुपए में मिल रही है वहीं राज्य सरकारों को तीन सौ में और निजी अस्पतालों में छह सौ में मिल रही है। इससे अचानक राज्यों पर बोझ आ गया और वैक्सीन की आपूर्ति से लेकर कीमत तक सब कुछ तय करने का अधिकार वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के हाथ में चला गया। इसी वजह से देश के हर राज्य में वैक्सीन के लिए हाहाकार मचा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा है कि राज्यों के पास 72 लाख वैक्सीन बचे हुए हैं और जल्दी ही केंद्र सरकार 42 लाख वैक्सीन और भेजने वाली है। यानी कुल एक करोड़ 14 लाख वैक्सीन होगी, जबकि एक से सात मई के बीच ही दो करोड़ 42 लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन कराया है। इसका मतलब है कि जितने लोग रजिस्ट्रेशन करा रहे हैं उनमें से आधे के लिए भी वैक्सीन उपलब्ध नहीं है।
ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि फैक्टरी से लेकर वैक्सीनेशन सेंटर तक वैक्सीन पहुंचाने की पूरी शृंखला टूट गई है। अब राज्यों को कंपनियों के साथ वैक्सीन के लिए मोलभाव करनी है और जल्दी आपूर्ति करने के लिए हाथ-पैर जोड़ने हैं। कंपनियां अलग अलग राज्यों को आपूर्ति करेंगी, राज्य अपनी ढुलाई करेंगे, स्टोरेज की अपनी व्यवस्था करेंगे और अपने साधन से उसे वैक्सीनेशन सेंटर तक पहुंचाएंगे। यह सिस्टम भी हालांकि बन ही जाएगा और काम करने लगेगा लेकिन इसमें जितना समय लगेगा उतने समय में कई करोड़ लोगों को वैक्सीन की डोज लग सकती थी। दूसरे, जब तक केंद्र सरकार वैक्सीन की खरीद कर रही थी तब तक एडवांटेज सरकार के हाथ में था, लेकिन जैसे ही राज्यों और निजी अस्पतालों को खरीद के लिए कहा गया वैसे ही एडवांटेज कंपनियों के हाथ में चली गई। सो, नई नीति लागू होने के बाद कीमत से लेकर लॉजिस्टिक्स तक हर चीज की समस्या हो गई। सरकारी वैक्सीनेशन केंद्रों पर वैक्सीन खत्म हो गई है और निजी केंद्रों पर बेहद ऊंची कीमत पर वैक्सीन लग रही है। राज्य वैक्सीन के लिए ग्लोबल टेंडर निकाल रहे हैं पर सबको पता है कि अभी कोई भी कंपनी भारत की जरूरत के मुताबिक वैक्सीन की आपूर्ति करने की स्थिति में नहीं है।
हालांकि अब भी बहुत कुछ नहीं बिगड़ा है। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह तत्काल वैक्सीनेशन की पुरानी व्यवस्था को बहाल करे। वैक्सीन की खरीद सिर्फ केंद्र सरकार करे और वह राज्यों व निजी अस्पतालों को इसकी आपूर्ति करे। अगर केंद्र को अपने पैसे नहीं खर्च करने हैं तब भी वह इस व्यवस्था को लागू कर सकती है। राज्य और निजी अस्पताल केंद्र को पैसे देने के लिए तैयार हैं। यहां दूसरी मुश्किल यह है कि भारत सरकार ने भी वैक्सीन के ऑर्डर देने में बहुत देरी की है। उसने भी कोई एडवांस प्लानिंग नहीं की थी और न कंपनियों को पहले पैसे देकर उनकी उत्पादन क्षमता बढ़वाई थी। इसलिए भारत सरकार को भी पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन मिलने में दिक्कत आएगी फिर भी अगर पुरानी नीति बहाल होती है तो वैक्सीनेशन की रफ्तार बढ़ेगी और एक महीने में फिर पटरी पर आ जाएगी क्योंकि एक महीने में वैक्सीन की उपलब्धता बेहतर होने की संभावना है।
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