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मृत्युदंड और अहम सवाल

सर्वोच्च न्यायालय ने सजा सुनाने के मौजूदा ढांचे में कमी की बात को स्वीकार करते हुए इसे दूर करने के लिए एक संविधान पीठ का गठन किया है। क्या यह उचित नहीं होगा कि इस पीठ का निर्णय आने तक मृत्युदंड पर अस्थायी विराम लगा दिया जाए?

पिछले महीने में उत्तर प्रदेश की एक विशेष अदालत ने इस्लामिक स्टेट (आईएस) के मॉड्यूल को संचालित करने के आरोप में सात लोगों को मौत की सजा सुनाई। इन लोगों को 2017 में गिरफ्तार किया गया था। उनके खिलाफ यह आरोप साबित हुआ कि यह समूह देश के अलग-अलग हिस्सों में विस्फोट करने की योजना बना रहा था। अगर ऐसे आरोप किसी व्यक्ति पर साबित हों, तो उसे अवश्य ही कठोर सजा सुनाई जानी चाहिए। लेकिन क्या सजा-ए-मौत ही ऐसे अपराधों को रोकने का सबसे उचित तरीका है, इस फैसले से यह बहस फिर छिड़ी है। यह एक संयोग ही है कि जिस दिन इन लोगों को मौत की सजा सुनाई गई, उसी दिन संयुक्त राष्ट्र में मानव अधिकार विभाग के उच्चायुक्त वोल्कर तुर्क ने मांग की कि जिन 79 देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है, वे इसे खत्म करने की दिशा में उचित प्रयास करें। उन्होंने कहा- ‘अगर हम इस अमानवीय सजा को खत्म करने की दिशा में अपना प्रयास जारी रखते हैं, तो हम अपने समाज में मानवता के लिए सम्मान सुनिश्चित कर सकते हैं।’

जाहिर है, भारत उन 79 देशों में शामिल है, जिनसे संयुक्त राष्ट्र ने अपील की है। भारत में आज भी अदालतें हत्या, बाल यौन हिंसा और आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधों के लिए मृत्युदंड दे सकती हैं, जबकि दुनिया के 130 से अधिक देश अपनी वैधानिक व्यवस्था में मृत्यु दंड के प्रावधान को खत्म कर चुके हैँ। वैसे भारत में भी इस सजा की उपयोगिता पर दशकों से बहस चलती रही है। मृत्युदंड के विरोधियों की दलील है कि मौत की सजा देना असंगत, मनमाना और संभावित रूप से भेदभावपूर्ण है, क्योंकि कोई न्यायाधीश पक्षपात और पूर्वाग्रहों का शिकार होकर भी सजा सुना सकता है। दरअसल, पिछले वर्ष पहली बार भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया था कि सजा सुनाने की मौजूदा संरचना में कमी है। न्यायालय ने इस कमी को दूर करने के लिए एक अन्य संविधान पीठ का गठन किया है। क्या यह उचित नहीं होगा कि जब तक यह पीठ अपना निर्णय नहीं देती, तब तक मृत्युदंड पर अस्थायी विराम लगा दिया जाए?

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