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राहुल के लिए निर्णायक क्षण

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसे द इंडिया मोमेंट्सकहा वह कांग्रेस नेता राहुल गांधी का भी मोमेंट बना है। अमृतकाल राहुल की राजनीति की भी निर्णायक घड़ी है। वैसे इस बात पर बहस मुबाहिसा हो सकता है कि राहुल गांधी का मोमेंट पहले भी कई बार आया है और वे चूक गए हैं। 2009 में लगातार दूसरी बार कांग्रेस की जीत राहुल का समय था तो 2017 में देश की सबसे पुरानी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना भी उनका मोमेंट था। जब मौजूदा समय के घटनाक्रम से दोनों की तुलना करेंगे तो पक्ष और विपक्ष में बहुत से तर्क दिए जा सकते हैं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभी के समय की जो राजनीति है वह राहुल गांधी के लिए  निर्णायक घड़ी लेकर आई है। इससे पहले उनके 19 साल के सक्रिय राजनीतिक जीवन में उनको लेकर कभी इतनी चर्चा नहीं हुई है। 

अभी देश की राजनीति उनके पक्ष और विपक्ष में बंटी है। कांग्रेस पार्टी भी उनको लेकर जो राजनीति कर रही थी उसका निर्णायक क्षण आ गया है। यह राहुल के लिए नियति से साक्षात्कारका समय है। वे, उनकी मां सोनिया गांधी और उनकी पूरी पार्टी इस क्षण का इंतजार कर रहे थे। उनकी राजनीति यह स्थापित करने की थी कि नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने वाले विपक्षी नेता राहुल गांधी ही हैं। उनकी यही नियति थी। ऐसा लग रहा था कि पांच महीने की भारत जोड़ो यात्रा उनको उस मुकाम पर लाकर खड़ा करेगी, जहां वे मोदी के सामने होंगे। लेकिन किसी तरह से वह मौका निकल गया। भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल गांधी को एक नई इमेज तो दी लेकिन वे नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने वाले सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित नहीं हुए। भाजपा ने उस यात्रा पर नजर रखी थी लेकिन वह महत्व नहीं दिया, जिससे राहुल को बहुत फायदा मिले। लेकिन उसके बाद के घटनाक्रम ने अपने आप राहुल गांधी के लिए मौका बनाया।  

भारत जोड़ो यात्रा के बाद के घटनाक्रम में सबसे अहम घटना अदानी समूह के कथित घोटालों की पोल खोलने वाली हिंडनबर्ग की रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट के पीछे पूरा विपक्ष एकजुट हुआ और राहुल गांधी चेहरा बने। उन्होंने लोकसभा में अदानी और हिंडनबर्ग को लेकर सवाल पूछे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा किया। तभी सात फरवरी के उनके भाषण के बाद उनकी सदस्यता समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई। ऐसा लगा, जैसे नियति उनको किसी बड़ी भूमिका का मौका दे रही हो। तभी गुजरात हाई कोर्ट से सूरत कोर्ट के अपने मुकदमे पर रोक लगवाने वाले भाजपा विधायक पूरनेश मोदी ने वापस हाई कोर्ट जाकर रोक हटवाई, मुकदमे की आनन-फानन में सुनवाई हुई और राहुल गांधी को मानहानि के मामले में दो साल की सजा सुना दी गई। इसके अगले दिन उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त कर दी गई। उसके दो दिन बाद उनको सरकारी बंगला खाली करने का नोटिस भेज दिया गया। ये सारे काम यंत्रचालित तरीके से हुआ। यह जाहिर हो रहा है कि सरकार में भी किसी ने सोचा नहीं था कि इस पर कैसी प्रतिक्रिया होगी। देश और विदेश में इस पर जैसी प्रतिक्रिया हुई है उसने इस अमृतकाल को राहुल गांधी के लिए निर्णायक क्षण में तब्दील किया है। 

पहली बार देश के लोगों ने सोचना शुरू किया है कि आखिर राहुल गांधी जब पप्पूहैं, ‘मंदबुद्धिहैं, अपनी पार्टी के लिए राहुहैं, जनता उनको दर्जनों बार खारिज कर चुकी है फिर क्यों भाजपा उनकी इतनी चिंता करती है? क्यों उनकी सदस्यता खत्म कराने की जरूरत पैदा हुई? अपने आप आम लोगों के बीच मैसेज बना है कि प्रधानमंत्री और पूरी भाजपा राहुल से घबराती है। सत्ता की दुकान को राहुल से खतरा है। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि उनका विरोध करने वाले उनके समर्थक हो जाएंगे या उनको वोट देंगे। लेकिन उनको लेकर सहानुभूति हुई है और सोचने का भाव पैदा हुआ है। विपक्षी पार्टियों ने भी दुराग्रह छोड़ा है और उनकी सदस्यता खत्म करने के खिलाफ संसद में और संसद के बाहर प्रदर्शन किया है। सभी विपक्षी नेताओं ने इस मसले पर राहुल का साथ दिया। 

दुनिया भर के देशों ने भी देखा कि किस तरह भारत में एक चुने हुए जन प्रतिनिधि की आनन-फानन में सदस्यता समाप्त की जा रही है। भाजपा ने इसे ओबीसी के अपमान का, कानून नहीं मानने का, कांग्रेस की आंतरिक कलह आदि के ट्विस्ट देने की कोशिशे की लेकिन अंत में पार्टी ने खीजते हुए कहा है कि कांग्रेस कोर्ट में क्यों नहीं जा रही है? जाहिर है भाजपा को लग रहा है कि राहुल पर हुई कार्रवाई कांग्रेस के लिए मददगार हो सकती है। इसलिए उसके नेता चाहते हैं कि कांग्रेस जल्दी कोर्ट में जाए ताकि राहुल की सजा पर रोक लगे और सदस्यता बहाल हो।

अब यह राहुल गांधी के ऊपर है कि वे इस निर्णायक क्षण का कैसा इस्तेमाल करते हैं। उनकी दादी इंदिरा गांधी के सामने 1978 में यह स्थिति आई थी, जब विशेषाधिकार का मुद्दा बना कर उनकी सदस्यता समाप्त की गई थी। तब पूरी पार्टी सड़क पर उतरी थी। योजना के तहत जनता पार्टी के आंतरिक मतभेदों को बढ़ाया गया और सड़क पर आंदोलन करके कांग्रेस के लिए राह बनाई गई। राहुल को उस राजनीति से सीखना चाहिए। अभी कांग्रेस विरोधी ताकत यानी भाजपा में आंतरिक कलह नहीं दिख रही है लेकिन विपक्ष में जो आंतरिक कलह थी उसे दूर करके एकजुट होने का प्रयास किया जाना चाहिए। इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों को बांटा था, जबकि राहुल गांधी को तमाम विरोधियों को एकजुट करना है। 

अगर वे इसमें कामयाब होते हैं तो वे इस निर्णायक क्षण को अपने पक्ष में मोड़ सकते हैं। विपक्षी पार्टियों के शुरुआती संकेत राहुल का समर्थन करने वाले हैं। राहुल इस क्षण का इस्तेमाल जयप्रकाश नारायण की तरह भी कर सकते हैं और वीपी सिंह की तरह भी कर सकते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि वे किस मॉडल को अपनाते हैं। वे सामने से विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करते हुए नरेंद्र मोदी से लड़ते हैं या मोदी सरकार के प्रति बनी धारणा को तोड़ते हुए 2004 के मॉडल पर कांग्रेस को चुनाव में ले जाते हैं।

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