
जब दिल्ली में हुई सांप्रदायिक घटनाओं व हिंसा पर नजर डालता हूं तो मुझे दशकों पहले की एक घटना याद हो आती है। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम सीमा पर था। नवंबर 1984 कं दंगे हुए कुछ समय ही गुजरा था। मैं एक बार अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में कुछ हथियार बंद खाडकूओं से मिला। जब मैंने उनसे इस बारे में बात की तो उनमें से एक ने मुझसे पलटकर सवाल पूछते हुए कहा कि आप हम लोगों से निर्दोष लोगों के हत्या करने वाले के बारे में पूछ रहे हैं?
नवंबर 1984 के दंगे में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2733 निर्दोष सिख मारे गए थे। मगर सरकार ने इस घटना पर दुख नहीं जताया। जब दंगे हो रहे थे तो दिल्ली में भीड़ की हिंसा के वक्त भी पुलिस चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही थी। क्या इस नरसंहार व पुलिस के रवैए के पीछे सरकार की स्वीकृति नहीं थी? मैंने उनसे काफी देर तक बात की व उनसे हिंसा का रास्ता छोड़ देने की बात समझानी चाही।
हाल में जब दिल्ली में भड़की सांप्रदयिक हिंसा के दौरान पुलिस द्वारा उसे रोक पाने में पूरी तरह से नाकाम रहने की स्थिति देखी तो वह वक्त याद हो आया। न सिर्फ पुलिस व लोगों का बल्कि इस हिंसा ने सभी राजनीतिक दलों तक का परदाफाश कर दिया। जब शाहीन बाग में लोग पिछले दो महीनो से सीएए के विरोध में लगातार धरना दे रहे थे तब उन्हें वहां से हटाने की जरा भी कोशिश नहीं की गई।
इसके विपरित दिल्ली के होने वाले विधानसभा चुनावो के मद्देनजर भाजपा ने इसे चुनावी युद्ध बनाने की कोशिश की। आम आदमी को जबरदस्त परेशानी हो रही थी। लोगों के स्कूल व दफ्तर जाने में काफी देरी हो रही थी। उनकी गाडि़यां व जहाज छूट रहे थे। उस इलाके के व्यापारियों के काम धंधे चौपट हो रहे थे। मगर सरकार ने उन्हें हटाने का प्रयास नहीं किया बल्कि भाजपा के आला नेतृत्व ने अपनी रैलियों में यहां तक कहा कि इतनी तेज नारे लगाना कि उसकी आवाज शाहीन बाग तक पहुंच जाए। रैली में एक युवक द्वारा खुले आम गोली चलाए जाने के बाद भी कुछ नहीं हुआ।
दिल्ली में तो इस रैली का असर नहीं पड़ा मगर दूसरे शहरों में रहने वाले मेरे दोस्त अक्सर मुझसे फोन पर पूछते थे कि आखिर इस सरकार को क्या हो गया है? वह कुछ करती क्यों नहीं? मगर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की भारत यात्रा के बावजूद भी सरकार ने कुछ नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट की एक-दो सदस्यीय नियुक्त कर इतिश्री कर ली। मुस्लिम वोटों के थोक चहेते माने जाने वाली आप पार्टी व कांग्रेस ने भी खुद को इससे दूर ही रखा। मगर सरकार शायद चाहती थी कि इस रेली के कारण होने वाली दिक्कतो से एक वर्ग विशेष को मुसलमान व केजरीवाल के प्रति नाराजगी बनेगी। उसने पुलिस को कुछ न करने का आदेश दिया और वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।
बहरहाल ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान ही रविवार को दिल्ली के मुस्लिम बाहुल्य इलाके में दंगे भड़क उठे। ऐसा लगा कि देश की राजधानी में पुलिस व सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में ट्रंप के साथ व्यस्त थे और दिल्ली के पुलिस अधीक्षक अमूल्य पटनायक कहीं दिखते नहीं पड़े। गृह मंत्रालय के अधीन आने वाली दिल्ली पुलिस नाकाम बनी रही। एक पुलिसकर्मी की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई। हथियारो से लैस दंगाई ने सैकड़ो घर, वाहन जला दिए। निर्दोष लोगों को मारा-पीटा। हालांकि कुछ का कहना है कि भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने हवा दी उन्होंने धरने पर बैठे लोगों को पुलिस द्वारा हटाए जाने की मांग करते हुए कहा था कि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो हम लोग खुद उन्हें हटा देंगे।
मुस्लिम बाहुल्य इलाके जैसे भजनपुरा, जाफराबाद आदि में हुए सांप्रदायिक दंगों में दो पुलिस वाले व 35 लोगों के मारे जाने की खबर है। न तो गृहमंत्री और न हिंसली राजनीतिक दल ने हिंसाग्रस्त इलाके का दौरा कर अपने कार्यकर्ताओं की मदद से हालात शांत करवाने की कोशिश की। कुल मिलाकर गृहमंत्री अमित शाह ने सर्वदलीय बैठक बुलवा कर व तीसरे दिन कर्फ्यू लगवा कर इतिश्री कर ली। और-तो-और मुसलमानों की सबसे प्रिय पार्टी होने का दावा करने वाली आप पार्टी ने भी अपने नेताओं व कार्यकर्ताओं को इससे दूर रखा।
कोरोनो वायरस के मरीजो के लिए दवाएं व मेडिकल सामान चीन भेजने वाली भारत सरकार ने दंगा पीडि़तो तक राहत पहुंचाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। काश कर्फ्यू पहले ही दिन लगा दिया होता तो हिंसा शहर के नए इलाको में नहीं फैलती। जब देश की राजधानी में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा के दौरान ये हालात थे तो बाकी देश के लोगों पर क्या गुजरती होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। किसी भी नेता व राजनीतिक दल को उसकी जान-बूझकर कोई अनदेखी के लिए माफ नहीं किया जा सकता है। आज हम लोग यह भूल जाते हैं कि सांप्रदायिक दंगों में हर दल की रूचि होती है। हर दंगे के बाद सांप्रदायिक ध्रुविकरण से वोटों की फसल लहलहाती है।
सोआम नागरिक व निर्दोषों के अलावा सांप्रदायिक दंगा तो उस जंगल की आग की तरह होता है जो चमन के जलने के बाद जमीन की उर्वरता बढ़ा देती है व नेता वोटों की फसलों को काटते हैं। आम छात्र के लिए बोर्ड की परीक्षाएं स्थागित कर दी गई है। कई परिवार के इकलौते सहारे छीन लिए गए हैं। सरकार हालात नियंत्रण में होने का दावा कर रही है व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आम आदमी के जीवन की सुरक्षा की ऐसी तैसी के बाद सडकों पर घूम रहे है।
सचमुच राजधानी का कुछ हिस्सा जब सीरिया जैसा लग रहा हैं तो एक शायर द्वारा भेजी गई यह पंक्तियां उद्धत करना जरूरी हो जाता है- सुना सुनाया है। बस ठिकाने व चेहरे बदले हैं। पहले तूने दिल्ली, गुजरात फिर हरियाणा जलाया था अब फिर दिल्ली जलाया है। यह तेरी बेशर्मी की इंतहा कहां है। अभी तो पूरा हिंदोस्तान जला कहां? खुद की नाकामी बताया गैर की साजिश बोल वह तो दूर से दुकान जलाता है। जलाने से पहले बोर्ड पर लिखे नाम देखता है। अब दरोगा से मेरी शिकायत कैसी जब हाकिम ने ही आंखे फेर चमन जलाया है। तूने कुछ अलग ही किया, तूने पहले मुझे आजमाया है। सारा मकान जला डाला, दीवारे जली मगर कुर्सियां बची। आखिर यह माजरा क्या है। न कपिल मिश्रा आएगा न वारिस पाठन आएगा। जब शहर जलेगा तो जद में आपका मकान आएगा। ऐसे में लगता है कि क्या27 निर्दोष लोगों की जिदंगी की कोई कीमत नहीं होती? हम तो इंसानों की लाशे तुलना के आंकड़ो की तरह गिनते हैं। जब 1984 के दंगों में दिल्ली में हजारो लोग मारे गए हो तो यह संख्या क्या मायने व अहमियत रखती है!