बेबाक विचार

क्या कोई है मतलब?

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क्या कोई है मतलब?
भारत का गजब आज मानस! लोकतंत्र, राजनीति, शासन, नीति के चारों पहलूओं में जितना सत्यानाश, जितनी बरबादी उतनी ही अधिक राजा की गौरव गाथा और लोगों का दिमाग देशभक्ति, धर्मभक्ति और विश्वगुरूता से बम-बम होता हुआ। यहीं हिंदुओं का इतिहास भी रहा है। शायद यहीं वजह है कि सभ्यताओं के विचार में दुनिया के ज्ञानी लोग हिंदुओं की राजनीति, शासन, नीति को अध्ययन लायक नहीं मानते हैं। मैं इन दिनों पांच हजार वर्षों की सभ्यताओं, उनके उत्थान-पतन के इतिहास और राजनीति को पढ़ते हुए हूं। मुझे आश्चर्य तो नहीं लेकिन हिंदू होने के कारण धक्का लगा कि सभ्यताओं-राजनीति की समग्रता से तुलना और लेखा-जोखा करने वाले सैमुअल ई फाइनर (The History of Government from the Earliest Times) ने भारत के संदर्भ में हिंदू सत्ता, राजनीति को बाईपास करके सीधे मुगल काल की सत्ता से विचार शुरू किया। मतलब सिंधु नदी घाटी (लिपि को अभी तक पढ़े नहीं जाने के कारण भी) की सभ्यता और हिंदू राजाओं व शासन व्यवस्था उन्हें बेमतलब लगी। उल्लेखनीय नहीं। वहीं अब स्थिति है। मौजूदा मोदी काल के लोकतंत्र, राजनीति, शासन, नीति का क्या सभ्यतागत वैश्विक मतलब है? क्या भारत का ‘लोकतंत्र’ दुनिया के लिए प्रेरणादायी है? क्या ‘राजनीति’ मनुष्य दिमाग में विचार, विकल्प और अधिकार बनवाते हुए है? क्या वह 140 करोड़ लोगों के जीवन की शांति, समृद्धी का कोई भी मंतव्य, लक्ष्य लिए हुए है? ऐसे उद्देश्यों को लेकर क्या शासन और उसकी नौकरशाही जूझती हुई है? क्या सरकार और सत्ता, नीति-निर्माण की प्रक्रिया और कसौटियों में बुद्धिमान है? उनके पॉजिटिव असर है या निगेटिव? सत्ता का चरित्र देश और प्रजा को सभ्य, सभ्यतागत बनाने वाला है या जंगली बनाने वाला? प्रजा समर्थ, स्वतंत्र, प्रज्ञावान होते हुए है या खैराती, बुद्धिहीन और बिना मानवाधिकारों के जैसे-तैसे जीवन जीते हुए है? यह न सोचें कि ऐसा होना नरेंद्र मोदी के कारण है। 1947 और पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी की राजनीति, सत्ता, शासन और नीति का निर्माण क्योंकि हम हिंदुओं की मनोदशा से है तो जाहिर है समस्या हम हिंदू हैं। हम हिंदुओं, 140 करोड़ लोगों व पूर्वजों को कब, किस वक्त में लोकतंत्र, राजनीति, शासन, नीति के पाठ पढ़ाए गए? इतिहास के किस काल में, 1947 के बाद कब यह जागरूकता बनवाई गई, समझदारी बनवाई गई कि लोकतंत्र, शासन और नीति की पवित्रताओं से ही मनुष्य, मनुष्य बना करता है। सभ्यता बना करती है। चौपाईयां रट कर, चाणक्य की सूक्तियों और राजा की भक्ति के व्हाटसऐप ज्ञान से उत्थान नहीं, बल्कि पतन होता है। मगर गुलामी और भय में बने ठूंठ दिमाग का इलाज क्या है। अब तो वह और पूरी तरह एकांगी बना दिया गया हैं। आधुनिक इतिहास में हिंदू पहले कभी इतना एकतरफा सोचता हुआ नहीं था जितना आज है।
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