ईद के मौके पर अफगान सरकार और तालिबान ने तीन दिन का युद्ध विराम घोषित कर रखा है लेकिन देखिए कि यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों के खास तीर्थ-स्थल में क्या हो रहा है। यरुशलम, गाजा और आस-पास के इलाकों में सैकड़ों लोग हताहत हो रहे हैं। फलीस्तीनी संगठन हमास ने यहूदी बस्तियों पर सैकड़ों मिसाइल बरसा दिए हैं और जवाब में इजराइल ने अरब बस्तियों पर इतने जबर्दस्त हमले बोल दिए हैं कि जो लोग मरने से बच गए, वे उन इलाकों को खाली करके दूर-दूर भाग रहे हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन कह रहे हैं कि इजराइल को अपनी रक्षा का पूरा अधिकार है और जल्दी ही वहां शांति हो जाएगी। लेकिन तुर्की और मलेशिया जैसे देश इजराइल को इस हिंसा के लिए दोषी ठहरा रहे हैं। उनका इशारा अमेरिका की तरफ है। उनका मानना है कि अमेरिका के दम पर ही इजराइल इतना बड़ा दुस्साहस करता आ रहा है। कुछ हद तक यह सच भी है।
अमेरिका में यहूदियों की संख्या ज्यादा नहीं है लेकिन उनके पास संख्याबल की बजाय धनबल और बुद्धिबल कई गुना ज्यादा है। कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति इजराइल-विरोधी रवैया कभी नहीं अपना सकता है। यद्यपि राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इजराइल-फलस्तीनी संबंधों में सुधार की कुछ पहल जरुर की थी लेकिन डोनाल्ड ट्रंप की एकतरफा नीति अभी भी जस की तस चलती दिखाई पड़ रही है। लेकिन मिस्र, कतर और संयुक्तराष्ट्र संघ की कोशिश है कि यह हमास—इजराइल मुठभेड़ शीघ्र ही रुक जाए।
संयुक्तराष्ट्र संघ ने दो राज्यों—इजराइल और फलस्तीन— का प्रस्ताव भी पारित किया है लेकिन उस पर अमल होना तो बहुत दूर की बात है, जिन इलाकों पर इजराइल ने 1967 के युद्ध में कब्जा कर लिया था, उन पर वह न केवल यहूदियों की बस्तियां बढ़ाता जा रहा है बल्कि वह अरबों को वहां से खदेड़ता जा रहा है। आजकल जो युद्ध का माहौल बना है, उसका भी तात्कालिक कारण यही है। अल-अक्सा मस्जिद के निकटवर्ती शेख जर्रा इलाके से अरबों को खदड़ने के कारण ही यह दंगा भड़का है।
हमास और इजराइली फौजों ने मिसाइल तो बाद में दागे हैं, चार-पांच दिन पहले फलस्तीनियों और इजराइलियों के बीच सीधे झगड़े हुए हैं। उन दंगों और मारपीट ने ही अब युद्ध का रुप धारण कर लिया है। इस सांप्रदायिक दंगे को युद्ध का रुप देने का एक कारण यह भी हो सकता है कि इजराइल में आजकल भयंकर अस्थिरता चल रही है। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की सत्ता आजकल डांवाडोल है। उनके लिए राष्ट्रीय महानायक बनने का यही मौका है। उन्होंने अत्यंत उत्तेजक भाषण भी दिया है।
ऐसा भाषण कि उनके विरोधी भी उन्हें अपना नेता मानने के लिए मजबूर हो जाएं। इस सारे मामले में भारत की भूमिका बिल्कुल तटस्थ है, जो ठीक है लेकिन वह मूकदर्शक बना रहे, यह उचित नहीं है।इजराइल से भारत के संबंध नरसिंहराव के जमाने से काफी घनिष्ट हो गए हैं और फलिस्तीनी नेता यासिर अराफात तो भारत के प्रिय मित्र रहे ही हैं। भारत चाहे तो अब भी काफी सार्थक भूमिका निभा सकता है।
अरब-यहूदी दंगा और भारत
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