‘मौजूदा आर्थिक यथार्थ मानव मूल्यों का अपमान है। 25 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है, जब चरम गरीबी बढ़ रही है और लगभग एक अरब लोग भुखमरी का शिकार हो रहे हैं।’
नदी में पानी आता है, तो सबकी नाव ऊंची होती है- यह कहावत अक्सर नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के औचित्य को सही ठहराने के लिए कही जाती है। अर्थ यह होता है कि जब समाज में धन निर्मित होता है, तो भले ही धीरे-धीरे रिस कर वह या उसका लाभ सब तक पहुंचता है। इस औचित्य को बल प्रदान करने के लिए इन आंकड़ों का बार-बार उल्लेख होता रहा है कि कैसे पिछले तीन दशक में दुनिया भर में (विश्व बैंक के फॉर्मूले के मुताबिक) गरीबी घटी। भारत में भी यह तर्क दिया गया है कि यूपीए के शासनकाल में जब देश ने ऊंची आर्थिक वृद्धि दर हासिल की, तब 27 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए। ऐसी दलील देते वक्त अक्सर इस बात को चर्चा से बाहर कर दिया जाता था कि इस दौरान विभिन्न समाजों में आर्थिक गैर-बराबरी कितनी बढ़ी? बहरहाल, अब जो आंकड़े सामने आए हैं (अथवा लगातार आ रहे हैं), वे इस अर्थव्यवस्था के ‘नदी में पानी’ वाले औचित्य पर भी सवाल उठा रहे हैँ।
ब्रिटिश एनजीओ ऑक्सफेम ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि कोरोना महामारी के बाद दुनिया जो धन पैदा हुआ, उसका 63 प्रतिशत हिस्सा सबसे धनी एक प्रतिशत आबादी की जेब में चला गया। यह रकम 26 ट्रिलियन डॉलर बैठती है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। संस्था के अधिकारियों ने कहा है- ‘मौजूदा आर्थिक यथार्थ मानव मूल्यों का अपमान है। 25 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है, जब चरम गरीबी बढ़ रही है और लगभग एक अरब लोग भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। दूसरी तरफ अरबपतियों को हर रोज तोहफे मिल रहे हैँ।’ यानी अब सबकी नाव उठने के बजाय बड़ी संख्या में लोगों की नाव डूब रही है। लेकिन वैश्विक विमर्श में यह मुद्दा चर्चा से गायब है। इसके बजाय विभिन्न देशों में धर्म, नस्ल, लिंग, जाति जैसी अस्मिताओं को राजनीति के केंद्र में बनाए रखा जा रहा है, ताकि इस बुनियादी प्रश्न पर चर्चा केंद्रित ना हो। ऑक्सफेम ने सरकारों से धन और उत्तराधिकार कर लगा (या बढ़ा) कर तुरंत समाधान की दिशा में बढ़ने का सुझाव दिया है। लेकिन उसकी बात सुनी जाएगी, इसकी संभावना फिलहाल कम है।