बेबाक विचार

मोदी के आठ सालः नया क्या, जो पहले नहीं था, आगे नहीं होगा!

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मोदी के आठ सालः नया क्या, जो पहले नहीं था, आगे नहीं होगा!
कुछ पाठकों ने मुझे कहा सम-सामयिक विषयों पर लिखते-लिखते मैं क्या नीरस पृथ्वी और मानव सभ्यता के उबाऊ मामले पर लिखने लगा। कौन पढ़ता है? हमें क्या लेना-देना पृथ्वी व मानव की भावी दिशा से। पृथ्वी हमसे है न कि हम दुनिया से। भारत विश्व गुरू है। सोने की चिड़िया बन रहा है। दुनिया का पेट भर रहा है। जगत जननी भारत भूमि से औरंगजेबों का सफाया हो रहा है। त्रेता युग से पहले परशुराम ने असुरों का संहार किया था, अब कल्कि अवतार नरेंद्र मोदी जी जिहादी मानसिकता के असुरों का संहार कर रहे हैं। देश में भव्य बाहुबली फिल्म चल रही है तो उस पर लिखें। जब जापान, डेनमार्क से लेकर पेरिस तक में नरेंद्र मोदी के लिए ढोल बजे रहे हैं तो आप न ताली बजा रहे हैं और न आलोचना कर रहे हैं। लिखना ही छोड़ दिया। क्या थक गए हैं? सेकुलरों, यूट्यूबरों, सोशल मीडिया के वीर सेनानियों जैसे आप भी यूपी चुनाव के बाद उदास, निराश और वैरागी हो गए हैं। लगता है आपने भी हार मान ली! पहली बात हर मनुष्य अपनी प्रवृत्ति में जीता है। दूसरे, मैंने देश-काल में सरकारों, 13 प्रधानमंत्रियों का आना-जाना और इनमें भी एक 15 वर्ष चली-उतरी फिल्म देखी हैं। फिल्में जिस दिन उतरती हैं वे भेड़-बकरियों के समाज में उसी दिन खत्म हो जाती हैं। फिल्में चेतना में नहीं पैठती। इसलिए नरेंद्र मोदी की फिल्म के सुपरहिट होने का अर्थ नहीं है। मैंने इंदिरा गांधी के लंबे कार्यकाल में गैर-कांग्रेसवाद के आइडिया में उकताहट झेली हुई है। हालांकि तब यह मजा था कि विपक्ष के धुरंधर बोलते व राजनीति करते हुए फिल्म को दिलचस्प बनाए रखते थे। तब लोकतंत्र का रियल सेट था। बहरहाल सही है मैंने नरेंद्र मोदी और उनकी दिशा, अंत को बूझ फिल्म देखना छोड़ दिया है। टीवी चैनलों, उन पर बजते ढोल-नगाड़ों को देखना-सुनना बंद कर दिया है। मैं छह साल पहले तभी सिनेमा हॉल से बाहर निकल आया था जब नोटबंदी का एक्शन देखा। उसके बाद मैं कई बार लिख चुका हूं कि मोदी सरकार की फिल्म जितनी लंबी चलेगी उसके दर्शक (हिंदू) ही भविष्य में सर्वाधिक सिर पीटेंगे। मेरा मानना है कि आने वाले दशकों में हिंदुओं के सबसे बड़े इतिहास पुरूष-महानायक सेकुलर नेहरू होंगे क्योंकि हिंदू-मुस्लिम गृहयुद्ध, देश बिखरने का जब रियल टाइम शो होगा तो बच्चा-बच्चा बोलेगा कि नेहरू का सेकुलर आइडिया ही सच्चा था! हां, नरेंद्र मोदी के आठ सालों के एक्शनों का सबसे बड़ा परिणाम भविष्य की भारत बरबादी में हिंदू आइडिया की ठुकाई और नेहरू-गांधी के आइडिया के पुनर्जन्म व अवतार का है। निश्चित ही मोदी की फिल्म में एक्टिंग-एक्शन है। भव्य सेट है। भाषण, डायलॉग और जुमले हैं। खलनायकों से भरा पूरा कथानक है। पानीपत की लड़ाइयां हैं। इतिहास का बदला है। खलनायकों पर बुलडोजर है। ईडी और सीबीआई के छापे हैं। ढोल-नगाड़े हैं। महानायक की दिव्यता है। भक्तों के कीर्तन हैं। लंगूरों की फौज है। गरीबों के लिए भंडारा है। और सबसे बड़ी बात जो फिल्म के हर अगले शॉट में महानायक ऊर्जा नए-नए करतब, नई-नई झांकियां लिए हुए होती हैं। क्या कभी ऐसी फिल्म बॉलीवुड ने भी बनाई? नहीं। आजाद भारत की बात छोड़ें, हिंदुओं के पूरे कलियुग में भगवान के अवतार का आंखों देखा यह अनुभव क्या पहले कभी हुआ? बावजूद इसके मैंने क्यों फिल्म देखना छोड़ दिया? जबकि मैं ताउम्र सनातन हिंदू की चाहना में जीता आया हूं और पत्रकारिता के अब तक के 45 वर्षों में हिंदू इच्छा-आकांक्षा का मान करता रहा हूं? इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी की फिल्म उस हिंदू इतिहास का रिमेक है, जिसका अंत, जिसकी नियति में भविष्य के ये नतीजे तय हैं- हिंदू ठगे हुए होंगे। वे देश और समाज में बिखराव, गृहयुद्ध में सांस लेते हुए होंगे। समाज बंटा हुआ और उसमें खुद हिंदू दो अखाड़ों, प्रादेशिक-जातीय पहचान की सुलगती चिंगारियों में जलता हुआ होगा। वहीं लोकतंत्र घुटता व घसीटता हुआ। संस्थाएं जर्जर होगी। हिंदुओं की बुद्धी, दिमाग का लंगूरीकरण तो उनकी गरिमा और स्वतंत्रता कलंकित! आर्थिकी न केवल कंगली होगी, बल्कि पूरा देश चीजों के लिए चीन पर निर्भर तो पूंजी के लिए पश्चिम पर निर्भर और लोग मजदूरी के लिए देश-दुनिया में भटकते हुए भी अवसर नहीं पाएंगे। वैसे अवसर, वैसी कमाई जो कभी पीवी नरसिंह राव से लेकर मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बनती हुई थी! सवाल है मोदी सरकार के वर्तमान में लोगों का सड़कों पर दौड़ता ठाठ, खुशहाली क्या नहीं दिखती है। नगाड़ों में बुद्धि-ज्ञान क्यों नहीं दिखलाई दे रहा है? इसलिए कि जो दिखलाई दे रहा है वह पहले भी था। आज से अधिक मनमोहन सरकार के वक्त में निर्माण होता हुआ था। सबसे बड़ा प्रमाण भारत के इतिहास से है। मुगल हिंदुस्तान भी बीस-पच्चीस करोड़ लोगों का था। इसलिए संख्या-आकार-भूगोल के कारण तब भी भारत दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी था। शाहजहां, आगरा की सड़कों की रौनक में मीना बाजार लगवा कर गुलाम हिंदू श्रेष्ठि जनों की सत्ता भड़वागिरी से नजराने वसूलता था। नाच-गाने करवाता था। लाल किले की बादशाहत के वक्त भी दिल्ली में ठसके थे, कमाई थी। मनसबदार हिंदू मंत्री, तब के आईएएस-आईपीएस-कोतवाल प्रजा को लूटते हुए अमीरी से ठसके से जीवन जीते थे। सो, इतिहास और आधुनिक दुनिया के अनुभव में मोदी राज की फिल्म की चकाचौंध कितने कौड़ियों की है? क्या इससे 140 करोड़ लोगों की जिंदगी बन रही है? कथित विकास से मोदी के कालजयी राजा बनने की तनिक भी भूमिका बनती है? इस नाते अपना आग्रह है, खासकर नरेंद्र मोदी, उनके मंत्रिमंडल, भाजपा, संघ परिवार व हर हिंदू हितधर्मी से कि फिल्म के आठ साला इंटरवल पर ही कुछ सोचें। रियलिटी में लौटें। फिल्म के अगले हिस्से पांच-दस साल के शो याकि इसकी सीक्वेल में योगी व अमित शाह या किसी की भी फिल्म चलती रही तो सावरकर के आइडिया ऑफ इंडिया व हिंदू राजनीति का फिल्म सारांश क्या होगा? क्या हिंदू औरंगजेब की प्राप्ति? क्या तुगलक की प्राप्ति? अहंकार के रावण की प्राप्ति? क्या देश जीवन सुख-शांति-समद्धि का उपमहाद्वीप होगा? क्या नरेंद्र मोदी तनिक भी अटल बिहारी वाजपेयी वाला सम्मान पाएंगे? क्या वे मर्यादा पुरुष राम और रामराज्य का हिंदुपना लिए साबित कर रहे हैं? या वे भक्त हिंदूजनों में औरंगजेब के नाते पूजे जाएंगे? देश की आजादी, लोकतंत्र व सभी नागरिकों के भरोसे से भारत बनाने के आईडिया के वैश्विक प्रतीक गांधी-नेहरू की वैश्विक इमेज के आगे अपनी पासंग छाप भी बना पाए हैं?
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