बेबाक विचार

शर्मनाक यह जो सब बेमतलब!

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शर्मनाक यह जो सब बेमतलब!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गजब बात कही। उन्होंने कहा कि आठ वर्षों में ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे लोगों का सिर शर्म से झुक जाए। वाह! क्या बात है! यही वाक्य इतिहास में मोदी सरकार के कार्यकाल को जांचने का पैमाना होगा। हिसाब से कसौटी देश का सिर ऊंचा होने या नहीं होने की है न कि सिर शर्म से झुका या नहीं? पर शायद नरेंद्र मोदी जानते हैं कि भारत के लोग और खासकर हिंदुओं ने यह जाना ही कहां हुआ है कि सिर ऊंचा होना या शर्म से झुकना क्या होता है। जो नस्ल हजार साल गुलामी में रही हो और आज भी दस तरह की परतंत्रताओं, तानाशाही में जीती हुई हो उसे क्या भान कि पृथ्वीराज चौहान शान के नायक हैं या शर्म के? चीन यदि जमीन कब्जाए हुए या जमीन खाते हुए है और भारत को आर्थिक तौर पर गुलाम बनाए हुए है तो वह शर्म की बात है या गौरव की? अनुच्छेद 370 खत्म होते हुए भी कश्मीर घाटी में हिंदू मारे जाते हुए, भागते हुए हैं तो वह शर्म से सिर झुकने या नहीं झुकने का क्या सत्य लिए हुए है? डब्लुएचओ की लिस्ट में महामारी से मरने वालों के मोदी सरकार के आंकड़े को न माने जाने और वैश्विक तौर पर भारत में सर्वाधिक मौतों के आंकड़े को शर्मनाक मानें या न मानें का मसला तो तब तय हो सकता है जब पहले यह मालूम हो कि मोदी राज ने हिंदुओं में सत्य और झूठ का क्या फर्क रहने भी दिया है? क्या हिंदुओं को पता है कि दावोस में अभी जो वैश्विक आर्थिक जमावड़ा था उसमें या तो रूस अछूत था या भारत! भारत के मंत्री, अधिकारी बेगानों की तरह कैसे टाइम पास करते हुए थे, इसका वहां से खुलासा वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने पिछले रविवार को इंडियन एक्सप्रेस के कॉलम में किया था। मेरी तरह तवलीन सिंह भी आठ साल पहले नरेंद्र मोदी से उम्मीदें बांधे हुईं थीं। और अब विचार करना पड़ रहा है कि दुनिया में भारत का क्या मतलब बचा है? फिर भले भारत की आर्थिकी और विदेश नीति पर कितनी ही तरह के झूठ बनाकर हिंदुओं को मूर्ख बनाया जा रहा हो। ऐसा होना कोई नई बात नहीं है। भारत के लोग पंडित नेहरू के वक्त भी विदेश नीति के झूठे तरानों में जीते थे। तब भी जनता ने नेहरू-चाऊ एन लाई की दोस्ती के वैसे ही गाने गाए थे जैसे नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग के साथ आठ बार झूलते हुए दोस्ती जतलाई। नेहरू ने जमीन गंवाई, मोदी ने जमीन गंवाई और जनता से यह झूठ कि सब ठीक। याद करें नोटबंदी को, 80-100 करोड़ लोगों की पांच किलो राशन की जिंदगी पर, बेरोजगारी, महंगाई और लोकतंत्र की सेहत पर? इन सब पर मोदी के बाद का रियल इतिहास क्या यह लिखता हुआ होगा कि मोदी की अनुमति, उनके व्यक्तिगत फैसले से ऐसा कोई काम नहीं हुआ, जिससे भारत के किसी भी व्यक्ति का सिर शर्म से झुका हो! सवाल है तमाम वैश्विक पैमानों, इंडेक्सों में भारत का गिरना शर्मनाक है या नहीं? लोकतंत्र और मीडिया का खोखला होना क्या शर्मनाक है या नहीं? विपक्ष का खत्म होना या उसे मारना शर्मनाक है या नहीं? दिन-प्रतिदिन लोगों को गुमराह करने का प्रोपेगेंडा क्या शर्मनाक है या नहीं? सबसे बड़ी बात कि राष्ट्रपति का पद, कैबिनेट नाम की व्यवस्था, संसद, राज्यपाल, रिजर्व बैंक, नीति आयोग, नौकरशाही  से लेकर तमाम तरह की संस्थाओं, विश्विविद्यालयों, राजकाज से लेकर शैक्षिक, वैज्ञानिक-आर्थिक-सामाजिक-इतिहास आदि विषयों के राष्ट्रीय प्रतिष्ठानों का पिछले आठ सालों में मतलब क्या बचा है, जिससे लगे कि भारत जिंदादिल, स्वस्थ और विचारता-चलता हुआ देश है! एक प्रधानमंत्री, उनका एक चेहरा, उनके भाषण, उनके प्रोपेगेंडा, प्रायोजित मीडिया के शोर में पूरा देश ऐसा डूबा है, जिससे बाकी सब कुछ सोख गया है।
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