बेबाक विचार

चंदे का हिसाब तो होना चाहिए

Share
चंदे का हिसाब तो होना चाहिए
चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव का स्वागत किया जाना चाहिए कि पार्टियों को मिलने वाले नकद चंदे की सीमा तय की जाए लेकिन साथ ही यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि वह पार्टियों को हर तरह से मिलने वाले चंदे का हिसाब रखे और यह सुनिश्चित करे कि सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दलों के बीच गैर बराबरी की स्थिति न बने। चुनाव आयोग को चुनिंदा प्रस्ताव नहीं भेजना चाहिए और न चुनिंदा तरीके से बरताव करना चाहिए। वह पार्टियों को मिलने वाले 20 हजार रुपए के नकद चंदे को लेकर तो चिंतित है लेकिन इलेक्टोरल बांड के जरिए सैकड़ों करोड़ रुपए के चंदे का लेन-देन ऐसे गोपनीय तरीके से हो रहा है कि किसी को पता ही नहीं चल रहा है किसने, किसको, कितना चंदा दिया, उसके बारे में आंख बंद किए हुए है। चुनाव आयोग को यह चिंता है कि पार्टियों को नकद चंदे की सीमा 20 करोड़ रुपए से ज्यादा नहीं होनी चाहिए लेकिन विदेश से मिलने वाले चंदे की कोई जांच नहीं होगी तो इससे उसको कोई चिंता नहीं है। यह दोहरा रवैया लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। चुनाव आयोग को राजनीतिक चंदे के मामले में समग्रता से विचार करना चाहिए। चुनाव आयोग ने सरकार को एक प्रस्ताव भेजा है कि पार्टियों को मिलने वाले नकद चंदे की सीमा 20 हजार रुपए से घटा कर दो हजार रुपए की जाए। यानी जो गुमनाम चंदा होता है वह प्रति व्यक्ति दो हजार से ज्यादा नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि इस तरह के अधिकतम चंदे की सीमा भी तय की जाए। आयोग के प्रस्ताव के मुताबिक वह सीमा कुल चंदे के 20 फीसदी या 20 करोड़ रुपए नकद में से जो कम हो उसके बराबर होनी चाहिए। इसका मतलब है कि व्यावहारिक तौर पर आयोग ने नकद चंदे की सीमा 20 करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव दिया है। सवाल है कि इतना भी क्यों होना चाहिए? क्यों नहीं सारा चंदा चेक से या डिजिटल तरीके से लेने का कानून बने और क्यों नहीं राजनीतिक दलों के चंदे को आय कर के दायरे में लाया जाए? क्यों नहीं पार्टियों को मिलने वाले हर पैसे का हिसाब हो और उस पर टैक्स लगाया जाए? आखिर पार्टियां कोई देश और समाज की सेवा तो कर नहीं रही हैं? वे जनता से चंदे के रूप में मिले टैक्स फ्री पैसे से चुनाव लड़ती हैं और जीतने के बाद उनको जनता के टैक्स के पैसे से मोटा वेत्तन और भत्ता मिलता है। तो फिर उनके चंदे को टैक्स फ्री क्यों रहना चाहिए? भारत में हमेशा से यह नियम रहा है कि जो सरकार में होता है उसे ज्यादा चंदा मिलता है। क्या यह अपने आप में ‘क्विड प्रो को’ यानी मिलीभगत का सबूत नहीं है? क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि सरकारी पार्टी को व्यक्तिगत या सांस्थायिक या कॉरपोरेट चंदा इसलिए ज्यादा मिलता है कि वह चंदा देने वालों की किसी तरह से मदद कर सकती है? यह तो दो जमा दो की तरह का आसान हिसाब है। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। पहले से भी ऐसा होता था कि सरकार में रहने वालों को ज्यादा चंदा मिलता था लेकिन तब विपक्षी पार्टियों को भी कुछ चंदा मिल जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब लगभग समूचा चंदा सत्तारूढ़ दल यानी भाजपा को जाता है। इस बात को प्रमाणित करने के लिए हर साल का आंकड़ा देने की जरूरत नहीं है। सिर्फ एक या दो साल के आंकड़ों से पता चल जाएगा। कोरोना वायरस जब चरम पर था, तब यानी वित्त वर्ष 2020-21 में भाजपा को 477 करोड़ रुपए का चंदा मिला था, जो कुल चंदे का 80 फीसदी था। उस समय सभी पार्टियों को मिला कर बड़े चंदे यानी नकद दिए जाने वाले चंदे के अलावा जो बड़ा चंदा होता वह 593 करोड़ का था, जिसमें से 80 फीसदी अकेले भाजपा को मिला था। देश की बाकी तमाम बड़ी पार्टियों को मिल कर जितना चंदा मिला उससे चार गुना अकेले भाजपा को मिला। चुनाव आयोग को क्या इस बारे में नहीं सोचना चाहिए? trade deficit find solution इसके बाद आते हैं इलेक्टोरल बांड के मामले में। केंद्र की सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी की सरकार ने इलेक्टोरल बांड का एक सिस्टम शुरू किया। साल में चार बार इलेक्टोरल बांड जारी होते हैं और उन्हें कोई भी खरीद सकता है और खरीद कर उसे राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकता है। इस कानून के मुताबिक किसी को पता नहीं चलेगा कि इलेक्टोरल बांड किसने खरीदा। इसे पूरी तरह से गोपनीय रखा गया है। इससे राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता पूरी तरह से समाप्त कर दी गई है। यह झूठा प्रचार है कि बांड खरीदने वाली कंपनियां अपने बही-खाते में इसे दर्ज करेंगी। वह बही-खाता जनता के सामने नहीं आता है। इसलिए किसी को पता नहीं चलता है कि किस कॉरपोरेट घराने या कंपनी या व्यक्ति ने इलेक्टोरल बांड से किसको कितना चंदा दिया। इसी आधार पर चुनाव आयोग ने इसका विरोध किया था और भारतीय रिजर्व बैंक ने भी इसका विरोध किया था। सुप्रीम कोर्ट में इसके विरोध में बरसों से एक याचिका लंबित है, जिस पर अब सुनवाई होनी है। उस याचिका में यह भी आशंका जताई गई है कि इससे काले धन को बढ़ावा मिलेगा। यह एक तथ्य नोट रखने लायक है कि इलेक्टोरल बांड से चंदे की शुरुआत होने के बाद पहले साल में इसके जरिए 95 फीसदी चंदा भाजपा को मिला था। इलेक्टोरल बांड से यह सुनिश्चित होता है कि कोई भी कॉरपोरेट विपक्षी पार्टियों को चंदा न दे क्योंकि और किसी को पता हो या न हो कि बांड किसने खरीदा, सरकार को इसकी जानकारी रहती है। इसके बाद तीसरा मामला विदेशी चंदे का है। दिल्ली हाई कोर्ट ने विदेशी चंदे के मामले में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों को एफसीआरए के उल्लंघन का दोषी माना था। लेकिन केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 2018 में पार्टियों को मिलने वाले विदेशी चंदे के कानून में ही बदलाव कर दिया, जिससे 1976 के बाद से पार्टियों को मिले विदेशी चंदे को जांच से बाहर कर दिया गया। इसमें कांग्रेस ने भी भाजपा का साथ दिया। सोचें, देश के तमाम गैर सरकारी संगठनों के विदेशी चंदे की जांच हो रही है और एफसीआरए लाइसेंस रद्द किया जा रहा है लेकिन पार्टियों को उसके दायरे से बाहर कर दिया गया! सो, चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के मामले में समग्रता से विचार करना चाहिए। अगर वह समग्रता से नहीं विचार कर सकती है तो उसे 20 हजार रुपए नकद चंदे की बजाय इलेक्टोरल बांड से मिलने वाले बड़े चंदे की जांच पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। उसमें पारदर्शिता और बराबरी की व्यवस्था सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए। उसे विदेशी चंदे के मामले में दखल देना चाहिए और उसकी जांच करनी चाहिए। नकद चंदे के मामले में आयोग ने जो पहल की है उसका निशाना सिर्फ छोटी और विपक्षी पार्टियां बनेंगी। उनकी भी जांच होनी चाहिए लेकिन उनसे ज्यादा जरूरी है कि बड़ी और सत्तारूढ़ पार्टियों की जांच हो।
Published

और पढ़ें