बेबाक विचार

कांग्रेस का घटता राजनीतिक स्पेस

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कांग्रेस का घटता राजनीतिक स्पेस
शायद ही किसी को याद होगा कि 2014 के बाद से पिछले सात साल में राहुल गांधी कितनी बार मीडिया के सामने आकर अपनी हार कबूल कर चुके हैं। यह उनकी भलमनसाहत है और साहस भी है कि पार्टी चुनाव हारती है तब भी वे मीडिया के सामने आते हैं और हार स्वीकार करते हैं। लेकिन सवाल है कि कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता कब तक उन्हें हार कबूल करते देखते रहेंगे? एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पिछले सात साल में हर चुनाव के बाद राहुल को हार स्वीकार करनी होती है। कांग्रेस एक के बाद एक चुनाव हारती जा रही है। राज्यों के चुनाव में, जहां उसके पास मजबूत सहयोगी हैं वहां भी कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। यह हैरानी की बात है कि गठबंधन में कांग्रेस के प्रादेशिक सहयोगी को तो लोग वोट दे दे रहे हैं पर कांग्रेस को नहीं दे रहे हैं। झारखंड जैसे राज्य का एकाध अपवाद जरूर है पर बिहार से लेकर असम, केरल और तमिलनाडु तक की राजनीति का सच यह है कि कांग्रेस मजबूत सहयोगी होने के बावजूद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। क्या यह कांग्रेस का या राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का एंडगेम है? क्या दो मई को आए पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद मान लिया जाए कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं और वे न कांग्रेस का नेतृत्व कर सकते हैं और न विपक्ष का? वस्तुनिष्ठ तरीके से इसका जवाब दे पाना, कम से कम अभी संभव नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस की और खास कर राहुल गांधी की चुनौतियां बढ़ा दी हैं। यह चुनाव नतीजों के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की प्रतिक्रिया में भी बहुत स्पष्ट दिख रहा था। भाजपा खुद भी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर पाई है। पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने को दांव पर लगाया था, पर उसके मुकाबले हासिल कुछ नहीं हुआ। भाजपा की सीटें जरूर अच्छी खासी बढ़ी हैं पर अगर ये दोनों घर बैठे रहते तब भी भाजपा को इतनी सीटें मिल जातीं। सो, एक तरह से बंगाल का नतीजा भाजपा के लिए बहुत बुरा हुआ है। इसके बावजूद भाजपा के नेता इस बात को लेकर ज्यादा खुश और आत्मविश्वास से भरे थे कि कांग्रेस हर जगह बुरी तरह से हारी है और अंत की ओर बढ़ रही है। कांग्रेस का अंत की ओर बढ़ना या राहुल गांधी का फेल होना भाजपा को सबसे ज्यादा राहत देने वाली बात है। आखिर राहुल देश के इकलौते नेता हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी कमान वाली भाजपा के सामने मजबूत चुनौती पेश की है। वे राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट करके भाजपा के मुकाबले खड़ा करने में सक्षम माने जा रहे हैं। वे सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े होने के साथ हर बार यह जरूर कहते हैं कि वे किसी से नहीं डरते। ऐसे समय में जब देश के अधिकतर नेता डरे हुए हैं और उनके सर पर केंद्रीय एजेंसियों की जांच की तलवार लटक रही है, राहुल का यह कहना कि वे किसी से नहीं डरते हैं, एक बड़ा राजनीतिक बयान है। यह बात भाजपा को चिंता में डालती है। कुल मिला कर राहुल गांधी इकलौते नेता हैं, जो भाजपा और मोदी-शाह को चिंता में डालते हैं। अगर इस बार के चुनावों में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती तो उसका श्रेय राहुल को जाता और फिर विपक्षी खेमे में उनकी स्वीकार्यता बढ़ती। अगर विपक्षी पार्टियों को एक केंद्रीय नेतृत्व मिलता और वे एकजुट होतीं तो यह मोदी और शाह के लिए बड़ी चिंता की बात होती। उन्हें ऐसे मजबूत और एकजुट विपक्ष को संभालने में मुश्किल आती। पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से मोदी और शाह की वह चिंता कम हुई दिख रही है। अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए थे उनमें कांग्रेस के लिए केरल और असम में बड़ी संभावना थी। केरल फ्लिप स्टेट है यानी पांच साल में वहां सत्ता बदलती है। दूसरे, पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ ने राज्य में शानदार प्रदर्शन किया था। राहुल गांधी खुद राज्य की वायनाड सीट से चुनाव जीते थे। चुनाव प्रचार में उन्होंने खूब दम भी लगाया था। इसके बावजूद केरल में कांग्रेस का हार जाना राहुल के लिए निजी तौर पर बड़ा झटका है। असम में भी कांग्रेस ने एआईयूडीएफ और बीपीएफ से तालमेल किया था और लग रहा था कि यह गठबंधन भाजपा को कड़ी टक्कर देगा। लेकिन उलटा हुआ, वहां भी कांग्रेस गठबंधन को पिछली बार से कम सीटें मिलीं। तमिलनाडु में डीएमके जैसी मजबूत सहयोगी के साथ चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। कांग्रेस ने पुड्डुचेरी की सत्ता गंवा दी सो अलग। कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका पश्चिम बंगाल में लगा। वहां पार्टी एक-दो सीटों पर सिमट गई। पर उससे भी बुरा यह है कि कांग्रेस ने पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी से तालमेल करके पिछले सात साल से मुस्लिमपरस्ती के आरोपों से मुक्त होने की कोशिशों पर पानी फेर लिया। उसके ऊपर मुस्लिम सांप्रदायिक ताकत से तालमेल करने का ऐसा धब्बा लगा है, जिसे निकट भविष्य में छुड़ाना आसान नहीं होगा। इन चुनाव नतीजों के बाद दो बहुत स्वाभाविक राजनीतिक परिघटनाएं दिख रही हैं। पहली, कांग्रेस के अंदर राहुल गांधी के लिए चुनौतियां बढ़ेंगी। पार्टी नेतृत्व खास कर राहुल गांधी की टीम और उनके कामकाज से नाराज चल रहे कई बागी नेता फिर मुखर होंगे। अगले महीने तक कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना है उसमें बागी नेताओं की नाराजगी मुश्किल पैदा करेगी। राहुल को अध्यक्ष बनाने पर आम राय मुश्किल होगी। अगर सोनिया गांधी के प्रयासों से वे अध्यक्ष बन भी जाते हैं तो उनकी ऑथोरिटी बहुत मजबूत नहीं रहेगी। उन्हें कांग्रेस पार्टी को चलाने के लिए कई किस्म के समझौते करने पड़ेंगे, जो उनकी अब तक की राजनीति से बिल्कुल उलट होगी। अब तक राहुल कोई समझौता किए बगैर राजनीति करते रहे हैं। दूसरी, यूपीए की सहयोगी पार्टियों और विपक्ष के अंदर उनके नेतृत्व की स्वीकार्यता बनानी मुश्किल हो गई है। कई सहयोगी और विपक्षी पार्टियां पहले से कांग्रेस नेतृत्व को लेकर चिंता जताती रही हैं। एनसीपी के शरद पवार खुलेआम राहुल के नेतृत्व पर चिंता जता चुके हैं। ऊपर से ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार प्रचंड बहुमत से चुनाव जीत कर बंगाल की सत्ता में लौटी हैं। उन्होंने पहले कहा हुआ है कि बंगाल जीतने के बाद वे दिल्ली की ओर प्रस्थान करेंगी। सो, अगले कुछ दिनों में ममता बनर्जी भाजपा और मोदी-शाह के सामने जितनी बड़ी चुनौती पेश करेंगी, उतनी ही बड़ी चुनौती वे कांग्रेस और राहुल गांधी के सामने भी पेश करेंगी। लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वे विपक्ष की कमान संभालने की स्वाभाविक दावेदार बनेंगी। वैसे भी इस बार का चुनाव उन्होंने आमने-सामने की लड़ाई में मोदी और शाह को हराया है। कांग्रेस, लेफ्ट और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी को खारिज कर मुस्लिम पूरी तरह से उनके साथ खड़ा रहा है तो महिलाएं पूरी तरह से उनके साथ रहीं। तभी वे 50 फीसदी वोट हासिल कर पाईं। यह बात उन्हें पूरे देश में विपक्ष का नेता बनाने के लिए पर्याप्त है। तभी ऐसा लग रहा है कि चुनाव के बाद विपक्षी पार्टियों का नए सिरे से ध्रुवीकरण होगा, जिसमें कांग्रेस और राहुल के लिए स्पेस थोड़ा और कम हो जाएगा।
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